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रेजांगला की चोटियों पर आज भी गूंजती है मेजर शैतान सिंह की हुंकार

कर्नल शिवदान सिंह
सोम, 24 जनवरी 2022   |   9 मिनट में पढ़ें

1962 के युद्ध से कुछ समय पहले ही 13 कुमाऊं इन्‍फैंट्री बटालियन लद्दाख के चुशूल क्षेत्र में  भेजी गई, जहां पर इस बटालियन को रेजांगला की पहाड़ियों के आस-पास के क्षेत्र में सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी। इसके अंतर्गत इसकी चार्ली कंपनी को रेजांगला पहाड़ी पर तैनात किया गया। इस कंपनी को मेजर शैतान सिंह कमान कर रहे थे। इस कंपनी के सैनिक ज्यादातर हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र के थे जिसमें रेवाड़ी महेंद्रगढ़ गुड़गांव और भिवानी जिले हैं, से आते हैं। अचानक 18 नवंबर 1962 को सुबह 5:00 बजे चीन के करीब 1200 सैनिकों ने रेजांगला पर तैनात चार्ली कंपनी पर हमला कर दिया जिसके सैनिक संख्या में केवल 122 थे। चीनी अपनी प्रसिद्ध युद्ध प्रणाली लहर के अनुसार हमला करने लगे। इस प्रणाली में चीन के सैनिक बड़ी तादाद में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हमला करते हैं और यह हमले थोड़े-थोड़े समय के बाद होते रहते हैं, जब तक दुश्मन को हरा नहीं दीया जाता। इसी तकनीक के अनुसार बड़ी बड़ी संख्या की लहर से चीनी सैनिकों ने रेजांगला पहाड़ी पर चारों तरफ से हमला किया। परंतु मेजर शैतान सिंह ने अपने केवल 110 सैनिकों से चीन की इतनी बड़ी सेना का मुकाबला किया और आखिर में जब इनके ज्यादातर सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए और इनका गोला-बारूद भी समाप्त हो गया, तब केवल 20 सैनिकों ने अपनी संगीनों के द्वारा बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार कर स्वयं वीरगति प्राप्त की और प्रसिद्ध कहावत आखिरी गोली आखिरी सैनिक तक लड़ने को चरितार्थ किया।

भारत को 1947 में स्वतंत्रता मिली और चीन में 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हुआ। चीन में इस समय वहां के शक्तिशाली राजनीतिज्ञ माओसेतुंग का भी उदय हुआ, जिन्होंने अपनी विचारधारा के अनुसार चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित किया जिसको आज तक कम्युनिस्ट-एम के नाम से पुकारा जाता है। माओ ने विस्तार वादी नीति अपनाई और इसके द्वारा चीन ने अपने पड़ोसी देशों की भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इसी के अंतर्गत चीन ने 1959 में तिब्बत पर कब्जा किया और उसके बाद चीन ने लद्दाख से अरुणाचल तक फैले भारत के अक्साई चिनक्षेत्र में घुसपैठ शुरू कर दी। भारत और चीन के बीच में अंग्रेजों ने मैक मोहन लाइन के द्वारा सीमा का निर्धारण किया था जिसको भारत और चीन 1947 तक मानते आ रहे थे। इस लाइन के साथ ही भारतीय सीमा के अक्साई चिन के नाम से पुकारा जाता है। भारत और चीन के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और चाओएनलाइ के बीच में 50 में दशक के आखिर तक पंचशील सिद्धांत पर समझौता हो चुका था। इसके अनुसार दोनों देश एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे और देशों के बीच मैककॉनलाइन के द्वारा निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय सीमा का सम्मान करेंगे। इसलिए भारत ने, भारत और चीन की सीमा पर न तो संचार माध्यमों का विकास किया और न ही सेना को पूरी तरह से वहां पर युद्ध की संभावनाओं के लिए तैनात किया। इसको देखते हुए अपनी धोखे वाली आदत के अनुसार चीन ने अक्साई चीन क्षेत्र में अपनी घुसपैठ शुरू कर दी।

चीन इस की घुसपैठ के कारण भारत के मीडिया में इस घुसपैठ की खबरें आने लगी। इसको देखते हुए नेहरू जी ने चीन की इस घुसपैठ को नियंत्रित करने के लिए सेना और नौकरशाहों से सुझाव मांगे। इसके अंतर्गत भारतीय सेना ने अपने सुझाव में प्रधानमंत्री को बताया की भारत-चीन सीमा के ऊपर चीन को भौगोलिक और सामरिक बढ़त प्राप्त है। क्योंकि तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन ने सीमा पर सड़क निर्माण और सेना की तैनाती बड़े रूप में कर दी थी। जबकि भारतीय क्षेत्र में उस समय तक न तो आवागमन और संचार के लिए सड़कों का ही निर्माण हुआ था और न भारतीय सेना पूरी संख्या में तैनात थी। इसलिए सेना ने अपनी युद्ध नीति के अनुसार बड़ी संख्या में इस सीमा पर सेना की तैनाती और हवाई सहायता के प्रावधान के लिए प्रस्ताव दिया था। परंतु उस समय के एक प्रसिद्ध नौकरशाह ने प्रधानमंत्री को प्रस्ताव दिया की चीन से युद्ध की कोई संभावना नहीं है क्योंकि दोनों देशों के बीच में पंचशील का समझौता हो चुका है। इसलिए इस सीमा पर केवल निगरानी रखने के लिए पुलिस की तरह थोड़े-थोड़े सैनिकों की चौकियां जगह-जगह स्थापित की जानी चाहिए, जिसे आगे देखने या लुकिंग फॉरवार्ड नाम दिया गया। लंबी पराधीनता के कारण देश 1947 आजाद हुआ था जिसके कारण देश में आर्थिक संसाधनों और आधारभूत ढांचे की भारी कमी थी। जिसके कारण देश का ज्यादातर धन देश के विकास पर खर्च करने की योजनाओं पर भारत सरकार ज्यादा ध्यान दे रही थी। इसी को देखते हुए पंडित नेहरू ने छोटी-छोटी सैनिक चौकियों वाले प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इसके अनुसार पूरी सीमा पर छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दी गई। इसी के अंतर्गत 13 कुमाऊं बटालियन को पूरे चुशूल क्षेत्र की निगरानी के लिए तैनात किया गया। निगरानी के लिए ही इस बटालियन की चार्ली कंपनी, जिसको मेजर शैतान सिंह कमान कर रहे थे, को रेजांगला की पहाड़ी पर तैनात किया गया।

1962 का रेजांगला युद्ध

रेजांगला के आसपास की पहाड़ियां इतनी दुर्गम है कि उनका संपर्क एक दूसरे से भी नहीं है। कुमाऊं बटालियन की चारों कंपनियां इसके आसपास की पहाड़ियों पर तैनात कर दी गई जिनका एक दूसरे के साथ संपर्क बहुत मुश्किल था। रेजांगला पहाड़ी की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है  की  फायर की सहायता के लिए आर्टिलरी और बटालियन के भारी हथियारों जैसे एमएमजी, मोर्टर इत्यादि की सहायता यहां नहीं पहुंच सकती थी। इस पहाड़ी की ऊंचाई करीब 5,000 मीटर (16000 फुट) है, जहां पर सर्दी के मौसम में भयानक ठंड के साथ-साथ यहां पर ऑक्सीजन की भी भारी कमी हो जाती है। इसलिए यहां पर मनुष्य का रहना काफी मुश्किल है। इसके कारण हरियाणा के मैदानी क्षेत्र से आने वाले चार्ली कंपनी के सैनिकों को यहां के माहौल में ढलने का एक निर्धारित समय स्वास्थ्य के अनुसार चाहिए था, जो उन्हें चीन के हमले के समय तक नहीं मिल पाया था और भारतीय सैनिकों की इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए चीन ने 18 नवंबर 1962 को चाली कंपनी पर हमला कर दिया।

मेजर शैतान सिंह की वीरगाथा

मेजर शैतान सिंह ने इस पहाड़ी की सुरक्षा के लिए अपनी कंपनी की तीनों प्लाटूनों को पहाड़ी की अलग-अलग दिशाओं से रक्षा करने के लिए मोर्चे बनाने के आदेश दिए। 18 नवंबर 1962 को सुबह 5:00 बजे यहां पर रोशनी बहुत कम थी। तब अचानक करीब 1200 चीनी सैनिकों ने रेजांगला पर हमला करना शुरू कर दिया। जब भारतीय सैनिकों ने इनको पहाड़ी की तरफ आते देखा, तब इन्होंने इन हमलावरों पर एमएमजी और रायफलों के फायर द्वारा इन्हें पहाड़ी पर ऊपर आने से रोकना शुरू कर दिया। इस प्रकार चीनियों की पहली लहर को विफल कर दिया  गया। पहली लहर के साथ चीनियों ने तोपों और एमएमजी का फायर इसलिए नहीं किया क्‍योंकि वह भारतीय सैनिकों को अंधेरे में चुपचाप भौचक्का करके इस पहाड़ी पर कब्जा करना चाह रहे थे। परंतु चौकने भारतीय सैनिकों ने उन्‍हें उनके मंसूबों में सफल नहीं होने दिया।

पहली लहर के विफल होने के बाद चीनियों ने रेजांगला पर सुबह 5.40 बजे ही दूसरे हमले के  लिए तोपखाने और मोर्टार से शुरुआती फायर शुरू कर दिया, जिससे टारगेट को कमजोर बनाया जा सके। कुछ समय तक शुरुआती फायर के बाद करीब 350 चीनी सैनिकों ने मेजर शैतान सिंह की 9 प्लाटून पर पहाड़ी के साथ बहने वाले एक नाले की तरफ से हमला करना शुरू कर दिया। भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों को अपने फायर रेंज में लाकर उन्हे पूरी तरह समाप्त करने के उद्देश्य से अपने फायर को तब तक रोका जब तक कि वह उनके रेंज में नहीं आ गए। इस प्रकार जब चीनी सैनिक केवल 300 गज दूरी पर थे, तब भारतीयों ने अपने-अपने फायर को प्रभावशाली तरीके से टारगेट पर केंद्रित करते हुए इन हमलावरों को अपनी गोलियों का उचित इस्तेमाल करते हुए समाप्त किया। भारतीय सैनिक अपने एम्युनिशन को इसलिए बचा रहे थे कि उन्हें पहाड़ी की ऊंचाई और रास्तों को देखते हुए इसकी दोबारा सप्लाई की जल्दी आशा नहीं थी।  इसी समय मेजर शैतान सिंह की कंपनी को दो तरफ से घेरने के लिए इनकी 8 प्लाटून जो 9 प्लाटून के पीछे तैनात थी, उस पर भी चीनियों ने हमला कर दिया। 8 प्लाटून के आगे भारतीय सैनिकों ने कटीले तारों का एक अवरोध लगा रखा था, चीनी सैनिकों ने इसी अवरोध के बाहर से 8 प्लाटून पर एमएमजी आर्टलरी और मोटर से फायर किया।

आठ और नौ प्लाटून को पूरी तरह उलझा कर कुमाऊं की सात नंबर की प्लाटून, जो इस कंपनी की तीसरी प्लाटून थी, उस पर भी करीब 120 चीनियों ने उसी समय धावा बोल दिया।  इस प्रकार चीन ने अपने बहुसंख्यक सैनिक बल से चार्ली कंपनी के 122 सैनिकों, जो इन तीनों प्लाटूनों में बटे हुए थे, पर चारों तरफ से वार करना शुरू कर दिया। अहीरवाल हरियाणा के बहादुर अहीर सैनिकों ने अपनी जान की बाजी लगाकर चीनी हमलावरों का पूरी तरह से मुकाबला किया। इस संघर्ष में मेजर शैतान सिंह तीनों प्लाटूनओ के मोर्चों पर दौड़-दौड़ कर अपने सैनिकों को जरूरी निर्देश देते हुए उनका मनोबल बढ़ा रहे थे। इस प्रकार बिना किसी सुरक्षा के खुले में भाग दौड़ करने के कारण शैतान सिंह पूरी तरह से घायल हो चुके थे और इतने बड़े चीनी सैन्य दल से टक्कर लेने के कारण चार्ली कंपनी की 7 और 8 प्लाटून पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। 5:00 बजे से लेकर 7:00 बजे तक चीनियों का मुकाबला करते-करते इस कंपनी का पूरा गोला बारूद भी समाप्त हो चुका था। आखिर में प्लाटून के केवल 20 सैनिक जिंदा बचे थे। इस समय तक मेजर शैतान सिंह भी गंभीर रूप से घायल हो चुके थे जिनको सैनिकों ने डॉक्टरी सहायता के लिए पीछे भेजने का प्रयास किया परंतु उन्होंने पीछे जाने से मना कर दिया। शैतान सिंह अपने बचे हुए सैनिकों के साथ एक बड़े पत्थर के पीछे घायल अवस्था में लेट गए जिससे वह अपने सैनिकों का साथ आखरी समय तक दे सकें। इस प्रकार वे अपने सैनिकों के साथ आखरी समय तक डटे रहे। जब भारतीय सैनिकों के पास गोला बारूद सब समाप्त हो गया तब इन बचे हुए 20 सैनिकों ने अपनी संगीनों के द्वारा मोर्चे से बाहर आकर चीनी हमलावरों पर धावा बोलने की योजना और चीनी सैनिकों पर खुले में हमला कर दिया। एक-एक भारतीय सैनिक ने 10-10 चीनी सैनिकों को वीरगति प्राप्त करने से पहले समाप्त कर दिया। इसी समय मेजर शैतान सिंह भी अपनी चोटों के कारण ज्यादा खून बह जाने के कारण वीरगति को प्राप्त हो गए।

जैसा कि पहले बताया गया है कि इस क्षेत्र में संचार माध्यम बहुत कम थे। इस कारण इस कंपनी का संबंध अपने बटालियन हेड क्वार्टर से भी ना के बराबर था। इसी के चलते यह कंपनी चीनी हमलावरों से मुकाबला करती रही, परंतु बटालियन हेडक्वार्टर को इनके इस मुकाबले की भनक तक नहीं लगी। करीब 1 महीने तक इस क्षेत्र में कोई नहीं पहुंचा जिसके द्वारा इस वीरता पूर्ण मुकाबले का ब्यौरा पीछे पहुंच सके। 1 महीने के बाद एक चरवाहा अपने जानवरों के साथ इस क्षेत्र में पहुंचा और उसने देखा कि चारों तरफ लाशें बिछी हुई थी। इस चरवाहे ने दौड़ कर कुमाऊं के बटालियन हेड क्वार्टर में इसकी सूचना दी। तब बटालियन के सैनिकों ने आकर यहां पर चारों तरफ फैले शवों को अपने कब्जे में लिया।

रेजांगला जैसी दुर्गम और भयानक ठंड और ऑक्सीजन की कमी के चलते भी मेजर शैतान सिंह और उनके सैनिकों ने जो वीरता, साहस और देश प्रेम का प्रदर्शन रेजांगला युद्ध में किया,  वैसा उदाहरण दुनिया भर के सैनिक इतिहास में नहीं मिलता है। इसी का सम्मान करने के लिए भारत सरकार ने कई वीरता पुरस्कार इस कंपनी के सैनिकों को मरणो उपरांत दिए और मेजर शैतान सिंह को भी मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। मेजर शैतान सिंह की वीरता और साहस के लिए देश का उच्चतम वीरता पुरस्कार परमवीरचक्र भी कम प्रतीत हो रहा था।

जीवनी

मेजर शैतान सिंह का जन्म 1 दिसंबर 1924 को जोधपुर के बानासर गांव में एक भाटी राजपूत  सैनिक परिवार में हुआ था। इनके पिता अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर थे, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजी सेना के साथ फ्रांस में युद्ध में हिस्सा लिया था। इसमें उनकी वीरता के लिए उन्हें ब्रिटिश ऑर्डर ऑफ एंपायर (ओबीई) नाम के वीरता पुरस्कार से अंग्रेजी सरकार ने सम्मानित किया था।

मेजर शैतान सिंह की प्रारंभिक शिक्षा जोधपुर के चौपासनी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हुई थी। स्कूल में वह एक अच्छे फुटबॉल प्लेयर के नाम से जाने जाते थे। दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के बाद 1943 में शैतान सिंह को जसवंत कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया। जहां से उन्होंने 1947 में बीए की परीक्षा पास की। इसके बाद 1 अगस्त 1949 को उन्हें एक कमीशंड ऑफिसर के रूप में जोधपुर स्टेट की सेना में सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके बाद जोधपुर राज्य का भारत में विलय होने के बाद जोधपुर स्टेट की सेना का भी भारतीय सेना में विलय हो गया, जिसके बाद शैतान सिंह को भारतीय सेना की कुमाऊं बटालियन में शामिल कर लिया गया। जहां पर उन्होंने 1955 में नागा हिल और 1961 में गोवा के लिए लड़े जाने वाले युद्ध में भाग लिया। इसके बाद 11 जून 1962 को उन्हें मेजर के पद पर तरक्की मिली और उन्होंने 13 कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी की कमान संभाली जिसके साथ उन्होंने 1962 के भारत चीन युद्ध में हिस्सा लिया।

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तस्‍वीर स्‍त्रोत : एडीजीपीआइ सोशल मीडिया


लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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