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भारतीय ‘गार्ड’ अल्‍बर्ट एक्‍का के प्रहार से ध्‍वस्‍त हुआ पाकिस्‍तानी किला

कर्नल शिवदान सिंह
सोम, 31 जनवरी 2022   |   8 मिनट में पढ़ें

स्‍वयं से पहले देश, यही भारतीय सेना के हर जवान की पहली और आखिरी पहचान है। और देश की रक्षा के दौरान खुद से पहले अपने साथी की जान की परवाह करना ही हमारे सैनिकों की परंपरा रही है। पड़ोसी देशों के साथ युद्ध लड़ चुकी सेना के वीर सपूतों ने ऐसे अनगिनत उदाहरण पेश किए हैं जिन पर हमें गर्व भी है और वह हमारे प्रेरणास्‍त्रोत भी हैं। ऐसी ही एक वीरगाथा लांस नायक अल्‍बर्ट एक्‍का ने भी वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्‍तान युद्ध में लिखी थी। ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स के 14 गार्ड बटालियन में शामिल होकर उन्‍होंने पूर्वी पाकिस्‍तान में प्रवेश का द्वार बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। तात्‍कालीन पूर्वी पाकिस्‍तान (अब बांग्‍लादेश) में प्रवेश के दौरान दुश्‍मन की ओर से साथी सैनिकों पर बरस रही गोलियों की परवाह किए बिना ही अल्‍बर्ट एक्‍का ने एक नहीं दो-दो बार दुश्‍मन की गनों को शांत किया। यह उनकी वीरता, साहस और त्‍वरित निर्णय का ही नतीजा है कि भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्‍तान में प्रवेश करने का रास्‍ता बना सकी और महज 13 दिनों की लड़ाई में दुनिया के सैन्‍य इतिहास में दर्ज सबसे बड़ा आत्‍म समर्पण कराने में सफल रही।

1971 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि
1970 में पाकिस्तान के आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान के लोकप्रिय नेता शेख मुजीबुर रहमान के भारी बहुमत से विजय प्राप्त करने के बाद भी पश्चिमी पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह यहया खान के द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाने के विरोध में पूर्वी पाकिस्तान में भारी असंतोष फैल गया। यहां पर स्वतंत्रता की मांग उठने लगी, इस को दबाने के लिए पाकिस्तानी सेना ने तरह-तरह के अत्याचार और बंगाली महिलाओं का बलात्कार पूर्वी पाकिस्तान में शुरू कर दीया।  जिनके कारण पूर्वी पाकिस्तान के भयभीत नागरिक भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में शरण लेने लगे और इन शरणार्थियों की संख्या बढ़कर करीब एक करोड़ हो गई। भारत सरकार को मानवीय आधार पर इन शरणार्थियों के खाने-पीने और रहन-सहन की व्यवस्था करनी पड़ी जिसके कारण भारत के ऊपर अतिरिक्त आर्थिक दबाव पड़ने लगा। पूर्वी पाकिस्तान के निवासियों को पाक सेना के अत्याचार से बचाने के लिए भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान पर हमले के लिए 1971 के अप्रैल महीने में तत्कालीन सेना प्रमुख फील्ड मार्शल मानेकशॉ से आग्रह किया। पूर्वी पाकिस्तान में नदी नाले काफी तादाद में है जिनमें मानसून के मौसम में अक्सर बाढ़ आ जाती है। जिसके कारण यह नदी नाले   सैनिक अभियानों में अवरोध पैदा करते हैं। सेना प्रमुख ने इसको देखते हुए गर्मी के महीनों को युद्ध के लिए उचित न मानते हुए हमले को दिसंबर महीने तक टालने की सलाह दी। जिसको प्रधानमंत्री ने मानते हुए भारतीय सेना को दिसंबर में हमले का आदेश दिया। इस हमले के लिए भारतीय सेना ने देश के उत्तर-पूर्व राज्यों में सेना की यूनिटों को भेजना शुरू कर दिया। इस हरकत को देखते हुए पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर अक्सर भारत-पाकिस्‍तान सैनिकों में मुठभेड़ होने लगी। इन्हीं मुठभेड़ों के चलते दिसंबर में हमले से पहले सेना की 14 पंजाब इन्फेंट्री बटालियन ने पूर्वी पाकिस्तान के गरीबपुर और 3 दिसंबर को सुबह 10:00 बजे गंगासागर क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना को करारी हार दी थी। पाकिस्तानी वायु सेना के द्वारा 3 दिसंबर 1971 को दिन में 4:30 बजे भारत के वायु सेना ठिकानों पर गोलाबारी करके युद्ध की औपचारिक घोषणा कर दी थी। जिसके बाद भारतीय सेना ने भी युद्ध की घोषणा करते हुए पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना पर तैयारी के साथ हमला कर दिया। भारतीय सेना ने इस युद्ध के लिए योजना बनाई जिसके द्वारा भारतीय सेना पूर्वी सीमाओं पर हमलावर और पश्चिम में रक्षात्मक प्रक्रिया से युद्ध लड़ेगी।

हमलावर पद्धति से युद्ध लड़ने के लिए लिए उत्तर पूर्व में तैनात सेना की 4 कोर को इस हमले की अगुवाई करने की जिम्मेदारी सेना द्वारा दी गई। पूर्वी पाकिस्तान में हमला करने के लिए सेना को यहां पर एक सुरक्षित प्रवेश द्वार की आवश्यकता थी जिसके द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में सेना घुसकर पाकिस्तानी सेना को हरा सके। इस प्रवेश द्वार को बनाने के लिए 4 कोर ने 73 माउंटेन ब्रिगेड को इसकी जिम्मेवारी सौंपी। 73 माउंटेन ब्रिगेड ने अपनी बटालियन 14 गार्ड को पूर्वी पाकिस्तान के गंगासागर क्षेत्र से प्रवेश के लिए 14  इन्फेंट्री बटालियन को  तैनात किया। यह गंगासागर क्षेत्र बांग्लादेश के ब्राह्मणबरिया जिले में स्थित है। इस क्षेत्र में पाकिस्तान ने तिकोने रूप में जिसमें गंगा सागर रेलवे स्टेशन, गोल गंगेल और मोगरा के क्षेत्र शामिल हैं, के अंदर अपनी युद्ध की तैयारियां की और यहां पर आबादी के मकानों को बंकरो और मोर्चों में बदलकर अपने सैनिकों को यहां पर तैनात किया। 14 गार्ड्स बटालियन इस क्षेत्र में दिसंबर 1971 में अपनी जिम्मेवारी को पूरा करने के लिए यहां की सूचना एकत्रित करने के लिए पेट्रोलिंग करने लगी। इसी के दौरान इस बटालियन के पेट्रोलिंग पार्टी को पाकिस्तान के सैनिक रेलवे लाइन के आसपास घूमते नजर आए और उन्होंने देखा कि पाकिस्तानी सेना ने रेलवे लाइन को भी मोर्चे के रूप में इस्तेमाल किया हुआ है।

सुरक्षित गलियारा बनाने के लिए पाकिस्तान पर हमला

गंगासागर क्षेत्र में पाकिस्तानी सैनिकों की हलचल के बाद 14 गार्ड्स बटालियन को फौरन हमले के लिए आदेश सेना द्वारा दिए गए। इस बटालियन ने 3 दिसंबर 1971 की सुबह 2:00 बजे गंगासागर क्षेत्र पर अपना हमला शुरू किया। इस हमले में इस बटालियन की ब्रावो और चार्ली कंपनी सबसे आगे थी। ब्रावो कंपनी में ही लांस नायक अल्बर्ट एक्का तैनात थे। अल्बर्ट एक्का की ब्रावो कंपनी हमले में बाई दिशा में थी और अल्बर्ट एक्का कंपनी के सबसे अगले भाग में युद्ध लड़ रहे थे। क्योंकि पाकिस्तान लंबे समय से भारत के साथ युद्ध की तैयारी इस क्षेत्र में कर रहा था, इसलिए यहां पर उसके बंकर और मोर्चे मजबूत स्थिति थे। इस तैयारी के अंतर्गत यहां पर पाकिस्तान की आर्टलरी और मोर्टर भी भारी संख्या में मौजूद थी। इनके द्वारा भारतीय सैनिकों पर भारी मात्रा में आर्टलरी और मोर्टर के गोलो की वर्षा की गई। इसकी परवाह न करते हुए गार्ड्स बटालियन के सैनिक आगे बढ़ते चले गए।

लांस नायक अल्बर्ट एक्का की शौर्य गाथा

4 गार्ड की ब्रावो कंपनी जब अपने टारगेट के लिए आगे बढ़ रही थी तभी उस समय पाकिस्तान के एक सुरक्षित मोर्चे से ब्रावो कंपनी पर एलएमजी फायर आने लगा। जिसके कारण ब्रावो कंपनी के अग्रिम पंक्ति के सैनिक हताहत होने लगे। इसको देखते हुए अल्बर्ट ने बिना समय गवाएं और अपनी जान की परवाह न करते हुए इस मोर्चे पर अपनी संगीन के द्वारा धावा बोल दिया और इस मोर्चे में एलएमजी फायर करने वाले दोनों पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दीया। इस हमले में अल्बर्ट घायल हो चुके थे परंतु अपनी चोटों की परवाह न करते हुए अल्बर्ट कंपनी के साथ आगे बढ़ते रहे। इस पाकिस्तानी अवरोध के साफ होने के बाद गार्ड्स बटालियन की दोनों कंपनियां फिर अपने टारगेट की तरफ आगे बढ़ने लगी। इसके बाद कुछ दूरी पर जाने के बाद एक मकान से पाकिस्तान की मीडियम मशीन गन का फायर गार्ड्स की ब्रावो और चार्ली कंपनियों पर आना शुरू हो गया। यह फायर इतना भारी था कि इन कंपनियों का आगे बढ़ना पूरी तरह से रुक गया। इस बार भी अपनी जान की परवाह न करते हुए अल्बर्ट ने जमीन पर रैंगकर मकान में  ग्रिनेड डाल दिया। जिससे कुछ देर के लिए एमएमजी फायर रुक गया परंतु थोड़े समय के बाद दोबारा उसी मकान से एमएमजी का फायर आने लगा। इसको देखते हुए दोबारा अल्बर्ट ने इस फायर को शांत करने के लिए मकान के साइड की एक बाउंड्री की दीवार को पार करके इस मकान में प्रवेश किया और एमएमजी फायर करने वाले पाकिस्तानी सैनिक को संगीन से मौत के घाट उतार दिया। परंतु इस वीरता पूर्ण काम को करने में अल्बर्ट पूरी तरह घायल हो चुके थे जिसके कारण  वह वीरगति को प्राप्त हो गए।

अल्बर्ट एक्का द्वारा इन दोनों अवरोधों को दूर करने के कारण यह दोनों कंपनियां फिर आगे बढ़ने लगी और इन्हें अल्बर्ट एक्का द्वारा सुरक्षित मार्ग मिल जाने के बाद इन्होंने आसानी से गंगासागर के मोर्चे को  फतह कर लिया। इन दोनों अवरोधों को साफ करने के लिए अल्बर्ट एक्का को  उसके किसी भी अधिकारी ने कोई आज्ञा नहीं दी थी। उन्होंने स्वयं स्थिति की गंभीरता और समय को देखते हुए निर्णय लिया और अपने जंगल और शिकार के अनुभव का प्रयोग करते हुए पाकिस्तान के इन दोनों अवरोधों को बिना समय गवाएं साफ किया और अपनी बटालियन को विजय दिलवाई।

इस प्रकार पूर्वी पाकिस्तान में घुसकर भारतीय सेना ने सफलतापूर्वक अपने अभियान को पूरा करते हुए पूर्वी पाकिस्तान पर विजय प्राप्त करके बांग्लादेश का निर्माण किया। बांग्लादेश के निर्माण में अल्बर्ट एक्का ने नीव का पत्थर डालने के रूप में गंगासागर पर विजय के लिए अपनी जान की परवाह न करते हुए पाकिस्तान की एलएमजी और एमएमजी बिना समय गवाते हुए बर्बाद किया और अपनी बटालियन के सिर पर जीत का सेहरा बांधा। भारत सरकार ने लांस नायक अल्बर्ट एक्का की वीरता और साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।

लांस नायक अल्बर्ट एक्का की रेजीमेंट ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स का संक्षिप्त परिचय

पश्चिमी देशों की सेनाओं में एक ऐसी यूनिटों के समूह का गठन किया जाता है जिसके सैनिक पूरी सेना से उनके शारीरिक व्यक्तित्व को देखकर एकत्रित किए जाते हैं। इनकी यूनिटों को पूरे देश में एक प्रकार से सेना के प्रदर्शन के रूप में रखा जाता है। इसी को देखते हुए 1947-48 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति के बाद तत्कालीन भारत के सेना प्रमुख जनरल के एम. करिअप्पा ने 1 सितंबर 1949 को ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स का गठन किया। यह एक इन्फेंट्री रेजीमेंट है जिसमें शुरू में सेना की 1 ग्रेनेडीएर्स, 1 राजपूताना राइफल्स, 1 राजपूत और 2 पंजाब बटालियनों को मिलाकर इस को ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स का नाम दिया।

सामान्यतः सेना में ब्रिगेड से तात्पर्य एक लड़ाकू संगठन से है जो अपनी जिम्मेवारी के क्षेत्र में अपनी यूनिटों के द्वारा दुश्मन का मुकाबला करता है। इस संगठन में सामान्यतः तीन या चार लड़ाकू यूनिट होती हैं। इसी को देखते हुए शुरू में जब जनरल करिअप्पा ने इन चार इन्फेंट्री बटालियन को एक साथ एकत्रित किया तो उन्होंने इसे ब्रिगेड की तरह ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स का नाम दिया। अल्बर्ट एक्का की 14 गार्ड बटालियन का गठन भी इसी प्रकार गार्ड्स के रेजिमेंटल सेंटर कोटा में जनवरी 1968 को कोटा में हुआ। इस बटालियन में कुमाऊं रेजिमेंट से अहीर, सिखलाई से मजबी सिख और बिहार रेजिमेंट से बिहारी सैनिकों को लेकर इसमें शामिल किया गया। शुरू में इसे 32 गार्ड्स बटालियन का नाम दिया गया। परंतु 1971 के युद्ध से पहले इसको 14 गार्ड्स के रूप में इसका नाम परिवर्तित किया गया। ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स सेना की एक गौरवशाली इन्फेंट्री रेजीमेंट है जिसने अब तक के भारत के द्वारा लड़े गए पांचो युद्धों में अपनी विजय पताका फहाराया।

अल्‍बर्ट एक्‍का का जीवन परिचय

अल्बर्ट एक्का का जन्म झारखंड के गुमला जिले के जारी गांव में 27 दिसंबर 1942 को हुआ था। यह झारखंड का आदिवासी क्षेत्र है। इसमें यहां के निवासी हॉकी के साथ-साथ शिकार को भी खेल के रूप में पसंद करते हैं। शिकार तथा जंगल इनका शौक और जीवन यापन का प्रकार भी है। अल्बर्ट भी यहां की संस्कृति के अनुसार शिकार, जंगल और हॉकी में काफी कुशल थे। इसलिए वे एक अच्छे सैनिक बने जिन्हें जमीन और जंगल का पूरा अनुभव था।

एक बार अल्बर्ट एक्का अपने जिले के एक हॉकी टूर्नामेंट में खेल रहे थे, जिसे इसी जिले के सूबेदार मेजर भागीरथ सोरेन ने देखा जो 7 बिहार इन्फेंट्री बटालियन में सेवारत थे। अल्बर्ट के खेल को देखते हुए सूबेदार मेजर भागीरथ सोरेन ने अल्बर्ट को सेना में भर्ती करवा दीया। इस प्रकार अल्बर्ट 7 बिहार इन्फेंट्री बटालियन में  एक सैनिक के रूप में 27 दिसंबर 1962 को भर्ती हुए जो बाद में 14 गार्ड्स इन्फेंट्री बटालियन में स्थानांतरित कर दिए गए और इसी बटालियन में रहकर उन्होंने 1971 का भारत-पाक युद्ध लड़ा जिसमें वीरता की उच्च परंपरा स्थापित करने के लिए भारत सरकार ने मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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