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जोगिंदर सिंह के आगे फीकी पड़ी चीनी हमलों की ‘लहर’

कर्नल शिवदान सिंह
सोम, 17 जनवरी 2022   |   6 मिनट में पढ़ें

1962 के भारत चीन युद्ध में उत्तर पूर्व में अरुणाचल प्रदेश से लगने वाली भारत-चीन सीमा पर तवांग जाने वाले रास्ते पर सूबेदार जोगिंदर सिंह 1 सिख इन्फेंट्री बटालियन के 20 सैनिकों के साथ बामला नाम की चोटी से इस रास्ते की सुरक्षा कर रहे थे। 23 अक्टूबर को चीनी सेना के 600 सैनिकों ने इस रास्ते से तवांग की ओर बढ़ना शुरू किया। जिसको सूबेदार जोगिंदर सिंह ने चुनौती दी और इनको रोकने का प्रयास किया। इस पर चीनी सैनिकों ने अपनी प्रसिद्ध युद्ध तकनीक लहर द्वारा जोगिंदर की चौकी पर हमला करना शुरू कर दिया। पहली लहर में 200 सैनिकों ने भारतीय 20 सैनिकों पर हमला किया। जिसको जोगिंदर सिंह और उनके साथियों ने नाकाम कर दिया। इसके बाद दूसरी लहर को भी भारतीय सैनिकों ने धूल चटा दी। परंतु दूसरी लहर के बाद जोगिंदर सिंह के पास केवल 10 सैनिक बचे और उनका गोला बारूद समाप्त हो चुका था। इसलिए इस तीसरी लहर को हराने के लिए जोगिंदर सिंह ने अपने साथियों को अपनी राइफल पर संगीन चढ़ाने के लिए हुकुम दिया। जिसके बाद इन्होंने वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह का नारा देते हुए चीनियों पर हमला कर दिया। जिसको देखकर चीनी सैनिक घबरा गए और अकेले जोगिंदर सिंह ने 56 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।

अधूरी भारतीय तैयारी में जीत दर्ज कर गया चीन

अंग्रेजों ने भारत-चीन सीमा को मैकमोहन लाइन से विभाजित किया था। जिसका 1947 में आजादी के बाद भी भारत सम्मान कर रहा था। परंतु चीन ने भारत की आजादी के बाद से इस रेखा को विवादित बताते हुए अपने सैनिकों के द्वारा मैकमोहन लाइन के अंदर भारतीय सीमा में घुसपैठ करानी शुरू कर दी। 1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद माओसेतुंग शक्तिशाली बन कर उभरे और उनकी नीति थी, चीन के पड़ोसी देशों पर चीन का प्रभाव स्थापित करना। इसके लिए चीन ने तिब्बत, बर्मा और भारत पर अपनी नजर डालनी शुरू कर दी। इस नीति के चलते ही चीन ने 1959 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया था और उसके बाद उसने भारत की सीमा पर अपनी सैनिक गतिविधियां बढ़ा दी। इसको देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस चीनी अतिक्रमण को रोकने के लिए सुझाव मांगे। इस पर भारतीय सेना ने और रक्षा मंत्रालय के नौकरशाहों ने अलग-अलग सुझाव प्रधानमंत्री को दिए। सेना के सुझावों को दरकिनार करते हुए पंडित नेहरू ने एक नौकरशाह के सुझाव को मान लिया जिसके अनुसार चीनी सीमा पर जगह-जगह छोटी सैनिक चौकिया पुलिस की तरह स्थापित की जानी चाहिए जो अपनी जिम्मेवारी के क्षेत्र पर नजर रख सकें। जिसे आगे देखने या लुकिंग फॉरवार्ड नाम से पुकारा गया। सुझाव देने वाले नौकरशाह ने यह मान रखा था कि चीन कभी भी भारत पर हमला नहीं करेगा और प्रधानमंत्री नेहरु भी चीन के प्रधानमंत्री के साथ पंचशील के सिद्धांतों पर समझौता करने के बाद यह मानने लगे थे कि चीन और भारत के बीच में युद्ध नहीं होगा। परंतु चीन ने अचानक अक्टूबर 1962 में भारत पर हमला कर दिया। एक प्रकार से चीन ने इस समझौते की आड़ में भारत को धोखा देते हुए चुपचाप सैनिक तैयारी के साथ भारत के लद्दाख और उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों  पर अक्टूबर 1962 में हमला कर दिया। जिसके लिए भारतीय सेना तैयार नहीं थी और न ही इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में संचार व्यवस्था का विकास हो पाया था। जिसके कारण भारतीय सेना उस समय चीनी सेना को पूरी तरह से जवाब देने की स्थिति में नहीं थी। इसका फायदा उठाकर चीन ने भारत के पूरे अक्शाई चिन क्षेत्र पर लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक कब्जा कर लिया जो अभी तक चीन के कब्जे में ही है।

चीनी सैनिकों पर कहर बनकर टूट पड़े थे सूबेदार जोगिंदर सिंह

आगे देखने के सुझाव के अनुसार 9 सितंबर 1962 को तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने सेना को अरुणाचल की थाना पहाड़ी के दक्षिण में घुस आए चीनी सैनिकों को भारतीय सीमा से बाहर खदेड़ने के आदेश दिए। इस आदेश के अनुसार सेना की 7 इन्फेंट्री ब्रिगेड को नामकाचू  क्षेत्र में तैनात होने का आदेश मिला। इन्फेंट्री की 1 सिख बटालियन इसी ब्रिगेड का हिस्सा थी। अचानक 22 अक्टूबर को चीनी सैनिकों ने नामकाचू में तैनात भारतीय सैनिकों सैनिकों की एक बड़ी संख्या के साथ पूरी तैयारी से हमला कर दिया। इस समय तक भारतीय सैनिक इस क्षेत्र में अपने मोर्चे इत्यादि नहीं बना पाए थे। इस स्थिति का फायदा उठाते हुए चीनी सैनिक नामकाचू में कब्जा करते हुए तवांग की तरफ बढ़ने लगे। सीमा से तवांग के एक रास्ते पर बामला नाम की पहाड़ी चोटी पर 1 सिख बटालियन की एक सैनिक पोस्ट इस रास्ते की रक्षा के लिए तैनात की गई थी। इस पोस्ट में 20 सिख सैनिक थे, जिन की कमान सूबेदार जोगिंदर सिंह कर रहे थे। नामकाचू को कब्जे में कर के चीनी सैनिक 23 अक्टूबर की सुबह 5:30 बजे बामला पोस्ट के पास पहुंच गए और इन सैनिकों ने अपनी लहर सैनिक तकनीक के अनुसार बामला चोटी पर हमला शुरू कर दिया। जिसे चीनी सैनिक वेब तकनीकी के नाम से पुकारते हैं। पहली लहर में 200 चीनी सैनिकों ने इस पोस्ट पर हमला किया।

 

जोगिंदर सिंह और उसके साथियों ने इन चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया और उन्हें उनके इरादों में नाकाम कर दिया। उसके कुछ ही क्षण बाद चीनी सैनिकों ने उसी हिसाब से 200 सैनिकों के साथ दूसरा हमला भी कर दिया। इसको भी जोगिंदर सिंह व उनके साथियों ने बुरी तरह परास्त करते हुए नाकाम कर दिया। परंतु इस हमले के बाद जोगिंदरसिंह के साथ केवल 10 सैनिक बचे थे और इनका गोला बारूद भी समाप्त हो चुका था। दूसरे हमले के बाद चीन ने तीसरा हमला किया जिसको देखते हुए जोगिंदर सिंह ने अपने साथियों को अपनी मातृभूमि पर मर मिटने का आव्हान किया और अपनी रायफलों पर संगीन चढ़ाकर चीनी हमलावर पर धावा बोलने का आदेश दिया। इसके अनुसार सिख सैनिकों ने वाहेगुरु जी का खालसा वाहे गुरुजी की फतेह का युद्ध घोष करते हुए चीनी हमलावरों पर आक्रमण कर दिया। इन सैनिकों ने बहुत से चीनी सैनिकों को अपनी संगीनों से मार गिराया और सूबेदार जोगिंदरसिंह ने अकेले 56 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। परंतु तीसरे हमले तक जोगिंदर सिंह काफी घायल हो चुके थे जिसके कारण उन्हें चीनी सेना ने युद्ध बंदी बना लिया था। जिसके बाद चीनी सेना के कब्जे में युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण सूबेदार जोगिंदर सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए। परंतु चीनी सेना को इन तीन हमलों में उलझा कर उन्होंने भारतीय सेना को पर्याप्त समय दिया जिसके कारण सेना अरुणाचल के प्रमुख स्थान तमांग की रक्षा कर सकी।

युद्ध के बाद चीनी सेना ने पूरे सैनिक सम्मान के साथ सूबेदार जोगिंदर सिंह का अस्थि कलश भारतीय सेना को 17 मई 1963 को सोंपा। इसके बाद मेरठ में सिख रेजीमेंट के सेंटर में इस अस्थि कलश को जोगिंदर सिंह की पत्नी को इसके अंतिम संस्कार के लिए दिया गया। सूबेदार जोगिंदर सिंह की बहादुरी को जन-जन तक फैलाने के लिए इस युद्ध पर एक पंजाबी फिल्म भी बनाई गई जो काफी लोकप्रिय हुई। भारतीय सरकार ने सूबेदार जोगिंदर सिंह की वीरता और बलिदान को सम्मानित करने के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।

सैनिकों को पढ़ाया वीरता का पाठ

सूबेदार जोगिंदर सिंह का जन्म मोगा जिले के महला गांव में एक किसान परिवार में 26 सितंबर 1921 को हुआ था। उनके पिता का नाम शेरसिंह और माता का नाम बीबी किशन कौर था। इन्होंने अपने गांव के पास स्थित प्राथमिक और मिडिल स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद वह महज 16 वर्ष की आयु में यह 28 सितंबर 1936 को सेना में भर्ती हो गए थे। इसके बाद इन्होंने सेना में सेना के द्वारा दी गई शिक्षा प्राप्त की और उसमें इन्हें अच्छी सफलता प्राप्त हुई। शिक्षा में इनकी रूचि को देखते हुए इन्हें इनकी यूनिट में सैनिकों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई। सूबेदार जोगिंदर सिंह ने दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी सेना में रहते हुए बर्मा में युद्ध लड़ा। इसके बाद इनकी 1 सिख बटालियन को 27 अक्टूबर 1947 को अचानक दिल्ली से श्रीनगर पाकिस्तानी हमलावरों को रोकने के लिए भेजा गया। यहां पर इनकी बटालियन ने अभूतपूर्व वीरता से इन हमलावरों का मुकाबला किया जिसके कारण आज कश्मीर भारत का हिस्सा है। बाद में 1962 के भारत-चीन युद्ध में जोगिंदर सिंह ने वीरता से अरुणाचल प्रदेश के  बामला में चीनी सेना का डटकर मुकाबला किया जिसमें वह वीरगति को प्राप्त हुए।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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POST COMMENTS (2)

Vikram%20Thakur%20

जनवरी 21, 2022
जय%20हिन्द%20🇮🇳

Poonam Dave

जनवरी 17, 2022
Salute to Subedar Joginder Singh for his bravery. Jai Hind 🇮🇳.

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