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कंटूर बचाने को दुश्मन से सीधे भिड़ गए थे पीरू सिंह

कर्नल शिवदान सिंह
मंगल, 23 नवम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के तिथवाल में 8 जुलाई 1948 को पाकिस्तानी हमलावरों ने यहां की एक महत्वपूर्ण पहाड़ी रिंग कंटूर पर कब्जा कर लिया था। इस मुश्किल पहाड़ी पर दोबारा कब्जा करके पाकिस्तानी हमलावरों को खदेड़ना एक असंभव मिशन नजर आ रहा था। ऐसे समय में पीरु सिंह ने वीरता दिखाते हुए इस पहाड़ी पर कब्जा करके तिथवाल-श्रीनगर मार्ग को यातायात के लिए खोला  जिससे भारतीय सेना आगे बढ़ी। इस वीरता पूर्ण कार्य के लिए धावा बोलते समय पीरु सिंह लगातार अपनी बटालियन के युद्ध- घोष ‘राजा रामचंद्र की जय’ पुकार रहे थे और 18 जुलाई को उन्होंने दोबारा इस असंभव लगने वाली पहाड़ी पर कब्जा करके पाकिस्तानी हमलावरों को इस क्षेत्र से खदेड़ दिया।

सीजफायर से कुछ ही समय पहले इन हमलावरों ने कुपवाड़ा के एक महत्वपूर्ण स्थान तिथवाल में घुसपैठ की और इस क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण पहाड़ी रिंग कंटूर पर कब्जा कर लिया। तिथवाल का महत्व इस कारण है की किशनगंगा नाम की नदी के ऊपर बना पुल इसी स्थान पर है। इस पुल के द्वारा सड़क मार्ग से पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद जो पहले अखंड कश्मीर का हिस्सा था उसे श्रीनगर से यह पुल जोड़ता है। इस पहाड़ी से इस सड़क पर पूरी नजर रखी जा सकती थी और आसानी से इस सड़क पर चलने वाले यातायात को बाधित किया जा सकता था। भारत पाकिस्तान के इस पहले युद्ध के  पाकिस्तानी कब्जों से यह साफ हो गया था कि अक्सर पाकिस्तानी हमलावर ऐसे स्थानों पर कब्जा करते हैं जहां से कश्मीर घाटी का पूरे देश से संपर्क तोड़ा जा सके। यही कुछ पाकिस्तानी हमलावर तिथवाल में भी करना चाह रहे थे, जिससे जम्मू श्रीनगर के मुख्य राजमार्ग के अलावा इस मार्ग को भी बाधित किया जा सके।

जब मिला दुश्मन को उखाड़ फेकने का हुक्म

पाकिस्तान के रिंग कंटूर पहाड़ी से कब्जे को हटाने की जिम्मेदारी सेना द्वारा 163 इन्फेंट्री ब्रिगेड को सौंपी गई। ब्रिगेड ने 11 जुलाई को आगे बढ़ने का प्रयास शुरू किया परंतु अगले 4 दिन तक इसमें रिंग कंटूर पहाड़ी पर इन हमलावरों का कब्जा होने के कारण सफलता नहीं मिली। इसको देखते हुए पहले रिंग कंटूर पहाड़ी से पाकिस्तानियों को खदेड़ने के लिए सेना की 6 राजपुताना राइफल्स इन्फेंट्री बटालियन को यह जिम्मेवारी दी गई। प्राकृतिक रूप से यह पहाड़ी इस प्रकार स्थिति है जहां पर ऊपर तक जाने के लिए केवल एक रास्ता है जो कुल 1 मीटर चौड़ा है। इस रास्ते के एक तरफ ऊंची सख्त पहाड़ियां है और दूसरी तरफ गहरी खाई हैं। इसलिए इस पहाड़ी पर चढ़ने के लिए पाकिस्तानियों का सीधा मुकाबला करना जरूरी हो गया था।

बटालियन ने अपनी चार्ली और डेल्टा कंपनी को इस पहाड़ी पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ाया। कंपनी हवलदार मेजर पीरु सिंह उस समय डेल्टा कंपनी में ही थे। डेल्टा कंपनी ने 18 जुलाई को रात 01.30 बजे पर पहाड़ी पर हमला किया। इस दुर्गम पहाड़ी पर नीचे से ऊपर जाना बहुत मुश्किल था। इसलिए यह हमला रात्रि में अंधेरे का फायदा उठाने के लिए किया गया था।

दुश्मन तैयार था मारने को, पीरू तैयार थे शहादत को

सेना के हमलों में पहले तोपों के गोलों से दुश्मन के मोर्चा को बर्बाद किया जाता है, जिसे सेना की भाषा में टारगेट मुलायम करना कहा जाता है। परंतु यहां पर दुश्मन के ठिकानों पर भारतीय सेना की तोपों का फायर नहीं किया जा सकता था, क्योंकि उस समय उस क्षेत्र में तोपों के लिए स्थान नहीं था। इसलिए बगैर तोपखाने की मदद के ही इस कंपनी ने ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया। कंपनी के इस एडवांस यानि आगे बढ़ाने के क्रम में पीरु सिंह का सेक्शन सबसे आगे था। हालांकि रात में अंधेरे की आड़ में दुश्मन की गोलीबारी से बचने में मदद मिलती है। परंतु इस क्षेत्र में पिछले कुछ दिनों से भारतीय सेना की आमद को देखकर पाकिस्तानी चौकाने हो गए थे। इसलिए उन्होंने इस पहाड़ी पर चढ़ने वाले मार्ग को पूरी तरह से मोटर और मीडियम मशीन गन के फायर से सुरक्षित कर चढ़ाई को असंभव बना दिया था। इस कारण कंपनी पाकिस्तानी हमलावरों के सीधे फायर में आ गई। सैनिकों के आगे बढ़ाना शुरू करने के आधे घंटे के अंदर ही कंपनी के आधे सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। इसी कारण पीरु सिंह के सेक्शन में भी 10 सैनिकों में से 7 को शहादत मिल चुकी थी।

दौड़ पड़े दुश्मन की एमएमजी को नष्ट करने

पीरु सिंह ने स्थिति को देखते हुए समझ लिया कि दुश्मन की एमएमजी सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हो रही है। इसलिए उन्होंने बिजली की गति से पाकिस्तान की पहली एमएमजी पोस्ट पर अपने बचे हुए साथियों के साथ धावा बोल दिया। उस समय पाकिस्तानी पीरु सिंह और उनके साथियों पर ग्रिनेड और मोर्टर के गोले दाग रहे थे। इस कारण इस हमले में वीरू सिंह के शरीर में इन गोलों के टुकड़े घुस गए, जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए और उनके साथी वीरगति को प्राप्त हो गए। पीरु सिंह के शरीर से  खून बह रहा था। इस सब की परवाह न करते हुए पीरु सिंह ने इस एमएमजी पोस्ट में ग्रेनेड फेंका और वहां पर मौजूद दो पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। तभी पीरु सिंह ने देखा की दूसरी एमएमजी अभी भी फायर कर रही है। अपनी चोटों की परवाह न करते हुए पीरू सिंह ने इस दूसरी एमएमजी पर भी अकेले ही कब्जा करने के लिए धावा बोला। इस समय तक पीरु सिंह की स्टेनगन की गोलियां समाप्त हो चुकी थी और दूसरे हमले के दौरान पीरु के चेहरे के सामने पाकिस्तान का एक ग्रेनेड फटा। जिसके कारण उनके शरीर में और चोट आने के साथ-साथ उन्हें आखों से दिखना भी बंद हो गया। परंतु इस समय एक सच्चे देशभक्त की तरह पीरु सिंह लगातार राजा रामचंद्र की जय पुकारते हुए पाकिस्तानियों को केवल अपनी स्टेन की संगीन से मौत के घाट उतारते रहे और उन्होंने शीघ्रता से पाकिस्तान की दूसरी एमएमजी की पोस्ट में ग्रिनेड फेंक कर इसको तबाह कर दिया। इस प्रकार पीरु सिंह ने पूरे रिंग कंटूर पर भारत का कब्जा कर दिया था। परंतु इसी समय उनके सिर में हमलावरों की एक गोली लगी जिससे हुए वहीं पर वीरगति को प्राप्त हो गए। वीरगति को प्राप्त होने से पहले उन्होंने इस महत्वपूर्ण पहाड़ी को सुरक्षित बनाते हुए मुजफ्फराबाद-श्रीनगर सड़क को यातायात के लिए खोल दिया था।

भारत सरकार ने पीरुसिंह की इस अभूतपूर्व वीरता और बलिदान के लिए देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से मरणोउपरांत सम्मानित किया।

आज़ादी के पहले ही बन गए थे सैनिक

सीएचएम पीरू सिंह का जन्म 20 मई 1918 को राजस्थान के झुंझुनू जिले के रामपुरा बेरी गांव में हुआ था। बचपन से ही पीरु सिंह को स्कूली शिक्षा से दूर रहना पसंद था, क्योंकि उन्हें स्कूल में घुटन महसूस होती थी। इसलिए उन्होंने अपने किसान पिता का हाथ कृषि कार्य में बटाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे पीरु सिंह एक सुंदर और बलिष्ठ नौजवान के रूप में बड़े हुए जिन्हें खेल कूद के साथ-साथ शिकार का भी बहुत शौक था। 18 साल की आयु में 20 मई 1936 को वह उस समय की ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए।

तस्वीर स्त्रोत : कर्नाटक केंद्रीय विश्वविद्यालय वेबसाइट।

उन्हें सेना की पंजाब रेजीमेंट में भर्ती किया गया और ट्रेनिंग के लिए इस रेजीमेंट की 10वीं बटालियन में भेजा गया। जहां से इन्हें 1 मई 1937 को अपना प्रशिक्षण पूरा करके इसी रेजिमेंट की पांचवी बटालियन में तैनाती मिली। हालांकि पीरू सिंह को अपने बचपन में शिक्षा से लगाव नहीं था परंतु सेना में आने के बाद उन्होंने बड़ी लगन से सेना द्वारा दी जाने वाली शिक्षा को प्राप्त किया और शिक्षा में अच्छा स्थान प्राप्त किया। इसको देखते हुए पीरू सिंह को शीघ्रता से प्रमोशन मिलने शुरू हो गए। 5 पंजाब बटालियन के साथ वीरू सिंह ने आज के पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में लड़ाई में हिस्सा लिया।

पीरू सिंह को बचपन से ही खेलों में विशेष रूचि थी जिसमें उन्होंने सेना में आने के बाद हॉकी, बास्केटबॉल और क्रॉस कंट्री में राष्ट्रीय स्तर पर सेना का प्रतिनिधित्व किया। उनके इस प्रकार के व्यक्तित्व को देखते हुए उन्हें मई 1945 में कंपनी हवलदार मेजर के पद पर प्रमोशन मिला। 1945 में दूसरे युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जापान में अपनी कब्जा करने वाली फोर्स का हिस्सा बनाते हुए तैनात किया। भारत की स्वतंत्रता के बाद पीरु सिंह वापस भारत आए और उन्हें 6 राजपूताना राइफल्स इन्फेंट्री बटालियन में पोस्टिंग यानि तैनाती दी गई। इसी बटालियन के साथ पीरू सिंह ने जुलाई 1948 में तिथवाल के युद्ध में भाग लिया और विजय प्राप्त करके इस क्षेत्र से पाकिस्तानियों को खदेड़ा।  पीरू सिंह सैनिक सेवा के लिए इतने समर्पित थे कि उन्होंने अपने जीवन में विवाह ही नहीं किया और केबल 30 वर्ष की आयु में 18 जुलाई 1948 में अपने जीवन का बलिदान राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा के लिए कर दिया।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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