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तिथवाल के रक्षक लांस नायक करम सिंह से पस्‍त हुई पाकिस्‍तानी सेना

कर्नल शिवदान सिंह
सोम, 20 दिसम्बर 2021   |   7 मिनट में पढ़ें

आजाद भारत तरक्‍की के दो कदम चलता, इससे पहले ही नापाक पड़ोसी ने दुश्‍मनी के बीज बोने शुरू कर दिए। पाकिस्‍तान अपने नागरिको को रोटी, कपड़ा और मकान देने की बजाय जम्‍मूकश्‍मीर पर कब्‍जा करने के इरादे से हमला कर बैठा। यह पाकिस्‍तान की पहली भूल थी जिसे वह अब तक कई बार दोहरा चुका है और हमेशा इसे दोहराने की ताक में भी रहता है। हर बार परिणाम उसकी बुरी हार ही रही है। हमले के दौरान राजा हरि सिंह द्वारा जम्‍मू-कश्‍मीर को भारत का अभिन्‍न अंग बनाए जाने के बाद भारतीय सेना ने रक्षा और सुरक्षा की कमान संभाली और पाकिस्‍तानी सेना को उसकी नापाक हरकत का करारा जवाब दिया। युद्ध में भारतीय सेना जीती और हमारे सैनिकों ने वीरता की ऐसी शौर्य गाथाएं लिख दी जो सैन्‍य इतिहास में मिशाल है। ऐसी ही एक शौर्य गाथा लांस नायक करम सिंह के नाम दर्ज है जिन्‍होंने दुश्‍मन को बार-बार हराने के लिए चौखट पर खड़ी मृत्‍यु को इतना इंतजार करवाया कि वह भी उनकी वीरता देख वापस लौट गई और दुश्‍मन पस्‍त होकर पीछे भाग गया। लिचमार चोटी पर तैनात करम सिंह ने अपने साथियों के साथ दुश्‍मन के हर हमले को नाकाम किया। बुरी तरह जख्‍मी होने के बाद भी हर बार पूरे जोश के साथ मुकाबला करने उठते और दुश्‍मन सैनिकों को पीछे धकेलने के बाद ही आराम करते। सात बार असफल प्रयास से बौखलाएं पाकिस्‍तानी सैनिकों का जोरदार आठवां हमला भी नाकाम होने के बाद वह जीत की आस छोड़ पीछे हट गए।

आजादी के फौरन बाद पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से अक्टूबर 1947 में हमला कर दिया। पाकिस्तानी सेना के इस हमले को महाराजा की छोटी सी सेना रोक नहीं पाई जिसके कारण पाकिस्‍तानी सेना कश्मीर घाटी में बारामुला तक आ गई और जम्मू क्षेत्र में इसने नौशेरा, रजौरी, पुंछ और तिथवाल आदि पर कब्जा कर लिया। इस पूरे क्षेत्र में कहीं पर भी महाराजा के सैनिक नहीं थे और इस समय तक जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय भी नहीं हुआ था। इसलिए पाकिस्तान के हमले के समय भारतीय सेना वहां पर सीमाओं की सुरक्षा के लिए उपलब्ध नहीं थी। राज्य का भारत में विलय होने के बाद भारतीय सेना ने जम्मू-कश्मीर में मोर्चा संभाला और इन हमलावरों को पीछे धकेलना शुरू किया।  दोनों सेनाओं में युद्ध अक्टूबर 1948 तक चला और आखिर में भारतीय सेना ने पूरे जम्मू क्षेत्र से पाक सेना को बाहर किया। इसी क्रम में कुपवाड़ा के तिथवाल में दोनों सेनाओं के बीच में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें आखिर में भारतीय सेना की ही विजय हुई। इसी युद्ध में वीर सैनिक लांस नायक करम सिंह की वीर गाथा भी है।

लाज बचाने को तिथवाल पर हमला भी हार गई पाकिस्‍तानी सेना

सामरिक दृष्टि से तिथवाल एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह भारत-पाकिस्तान के बीच में नियंत्रण रेखा पर स्थित है। इसी गांव के पास में नीलम नदी पर एक महत्वपूर्ण पुल है। पाक अधिकृत कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद (1947 से पहले) कुपवाड़ा–श्रीनगर जाने वाली सड़क इसी से गुजरती थी। वर्ष 1947 से पहले श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच में यह पुल एक महत्वपूर्ण संचार का साधन था। बारामुला के रास्ते श्रीनगर पर कब्जा करने के साथ-साथ पाकिस्तान तिथवाल क्षेत्र से आगे बढ़कर भी कश्मीर घाटी पर कब्जा करना चाह रहा था। जिसके द्वारा वह दोनों दिशाओं से कश्मीर घाटी पर अपने कब्जे को मजबूत करना चाहता था। इसी इरादे से युद्ध शुरू होने के कुछ ही दिन बाद पाकिस्‍तान सेना ने जम्मू क्षेत्र के महत्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा करते हुए तिथवाल गांव पर भी अपना कब्जा कर लिया था। दिसंबर 1947 में नौशेरा के शेर कहे जाने वाले ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान ने धीरे-धीरे पाकिस्‍तानी सेना को इस क्षेत्र से बाहर निकालना शुरू किया और 23 मई को उन्होंने तिथवाल पर भी दोबारा कब्जा कर लिया था। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तिथवाल पर दोबारा कब्जा करने के लिए पाकिस्‍तानी सेना ने मई से ही  हमले करने शुरू कर दिए।  इसी क्रम में अक्टूबर 1948 में पाक सेना ने अपना इरादा बनाया कि वह तिथवाल को एक तरफ छोड़ते हुए रिचमार गली के बाईपास से श्रीनगर तक आगे बढ़ेगी। इस गली के ऊपर इसकी रक्षक के रूप में एक पहाड़ी है जिस पर बहुत सीमित स्थान सैनिक चौकी बनाने के लिए है। यह पहाड़ी अन्य पहाड़ी क्षेत्रों से अलग है। इसलिए इस पर तैनात सैनिक टुकड़ी अकेले ही इस क्षेत्र की रक्षा करती थी।

चोटी पर चट्टान बने रहे करम सिंह

रिचमार गली के ऊपर स्थित यह पहाड़ी एक प्रकार से तिथवाल और पूरे क्षेत्र की  प्राकृतिक पहरेदार के रूप में है। जैसा कि विदित है तिथवाल-कुपवाड़ा-श्रीनगर  सड़क पर आगे बढ़ने के लिए इस पहाड़ी पर कब्जा करना जरूरी था। इस पहाड़ी  पर सीमित स्थान होने के कारण भारतीय सेना की सिख बटालियन का एक सेक्शन यहां पर अक्टूबर 1948 में इसकी रक्षा के लिए यहां पर तैनात था। जिसमें सेक्शन कमांडर के अलावा केवल 11 सैनिक होते हैं। 13 अक्टूबर 1948 को ईद के अवसर पर पाकिस्‍तानी सेना ने सोचा की ईद होने के कारण भारतीय सेना पाकिस्‍तानी सेना की ओर से बेखबर होगी, इसलिए पाकिस्‍तानी सेना ने उसी दिन शाम को रिचमार पर एक ब्रिगेड के साथ अटैक शुरू कर दिया। हमले से पहले पाकिस्‍तानी सेना के तोपों ने यहां पर भारी बम वर्षा की। तिथवाल पर युद्ध के शुरू में कुछ समय पाकिस्‍तानी सेना का कब्जा होने के कारण उन्‍हें इस क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी थी। इसलिए शुरुआती बमबारी में पाकिस्‍तानी सेना ने रिचमार पहाड़ी पर स्थित सिख बटालियन के मोर्चों को ध्‍वस्‍त करने की कोशिश की। परंतु इसके बावजूद इस पर तैनात सिख सैनिकों ने स्वयं की रक्षा की और अपने एमएमजी और मोर्टार फायर के द्वारा पाकिस्‍तानी सैनिकों को आगे बढ़ने से प्रभावशाली तरीके से रोका। इन हमलावरों का मुकाबला करने के लिए करम सिंह अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने और उन्हें सहायता देने के लिए एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे में जाकर सैनिकों का उत्साह बढ़ाते रहें। इसके साथ-साथ वह पाकिस्‍तानी सेना पर ग्रेनेड भी फेंकते रहे। क्योंकि यह पहाड़ी ऊंचाई पर थी इसलिए सिख सैनिकों के एमएसजी फायर और मोर्टार फायर पाकिस्‍तानी सैनिकों को रोकने के लिए प्रभावशाली साबित होते रहे। इस प्रकार 13 अक्टूबर की रात में पाकिस्‍तानी सैनिकों ने इस पहाड़ी पर 7 बार हमला किया जिसे वीर सिख सैनिकों ने नाकाम कर दिया था।

युद्ध के बाद एक सिख (4 मेकेनाइज्‍ड) के वीरों के साथ 19 इन्‍फैंट्री डिवीजन के डीएसओ जीओसी मेजर जनरल केएस थिमैैय्याया। तस्‍वीर स्‍त्रोत – एडीजीपीआइ फेसबुक

आखिरी हमला दुश्‍मन के शरीर पर नहीं, उनकी रूह पर था

इन हमलों में तीन चौथाई रात बीत चुकी थी और सुबह के 4:00 बजे पाकिस्‍तानी सैनिकों ने अपना आठवां हमला किया। इस समय तक भारतीय सैनिकों के पास  गोला बारूद का भंडार भी समाप्त होने के कगार पर था और उन्हें इसकी पूर्ति की कोई आशा नहीं थी। बुरी तरह जख्‍मी होने के बाद भी करम सिंह को साथियों की चिंता थी। सैनिकों के साथ उन्‍होंने मोर्चे से निकलकर पाकिस्‍तानी सैनिकों पर हमले की योजना बनाई। इशारा मिलते ही सभी सैनिक एक साथ बिजली की गति से करम सिंह के साथ मोर्चे से बाहर आ गए और उन्होंने भूखे शेर की तरह पाकिस्तानी सैनिकों पर हमला कर दिया। भारतीय सैनिकों की ओर से ऐसे हमले के लिए पाकिस्‍तानी सैनिक न तो तैयार थे और न ही वह इस प्रकार के साहस की कल्पना कर रहे थे। एक-एक भारतीय सैनिक ने कई हमलावरों को अपनी बंदूक की संगीनों से मौत के घाट उतारा। इस गति और साहस को देखते हुए पाकिस्तानी सैनिक वहां से भाग खड़े हुए। इस प्रकार करम सिंह ने अपनी बटालियन को चोटी तक पहुंचकर मजबूत कब्‍जा जमाने के लिए पूरी रात का समय प्रदान किया। 13 अक्टूबर की रात में रिचमार पहाड़ी की रक्षा करके करम सिंह ने भारतीय सेना को बहुत बड़े संघर्ष को बचा लिया, क्योंकि यदि इस मार्ग से पाकिस्‍तानी सेना अंदर घुस जाती तो इसको दोबारा निकालने में भारतीय सेना को बहुत बड़ा संघर्ष करना पड़ता। और हो सकता है युद्ध और भी लंबा चलता।

भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ जनरल केएम करियप्‍पा के साथ लांस नायक करम सिंह। तस्‍वीर स्‍त्रोत – एनसीईआरटी शौर्य गाथा

भारत सरकार ने लांस नायक करम सिंह की बहादुरी और साहस जिसके द्वारा उन्होंने रिचमार गली के साथ-साथ पूरे तिथवाल क्षेत्र की रक्षा की, उसके लिए उन्‍हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया। सेना ने उनकी उत्कृष्ट सेवा को देखते हुए उन्हें समय-समय पर तरक्की दी और आखिर में वे सूबेदार और ऑनरेरी कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त हुए।

आजाद भारत में तिरंगा फहराने का मिला सम्‍मान

सूबेदार करम सिंह का जन्म पंजाब के बरनाला जिले के सिहाना गांव में 15 सितंबर 1915 को एक किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही करम सिंह पिता सरदार उत्‍तम सिंह की तरह किसान बनना चाहते थे। परंतु अपने गांव के प्रथम विश्व युद्ध के सैनिकों की वीर गाथाओं से प्रेरित होते हुए वह 1941 में सेना में भर्ती हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वर्मा के एडमिन बॉक्स नाम के ऑपरेशन में इन्होंने भाग लिया जिसमें उनकी बहादुरी को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें मिलिट्री मेडल से सम्मानित किया था। आजादी के बाद 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने तिथवाल के क्षेत्र में युद्ध में हिस्सा लिया जहां पर उन्हें उनकी वीरता के लिए भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 15 अगस्‍त 1947 को जब भारत आजाद हुआ,तब करमसिंह उन पांच सैनिकों में से एक थे, जिन्‍हें भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ तिरंगा फहराने के लिए चुना गया था। सैन्‍य सेवा से निवृत्त होकर वह अपने गांव में रहे जहां उनका स्वर्गवास 20 जनवरी 1993 को हुआ। उनकी वीरता को सम्मान देने के लिए उनका अंतिम संस्कार सैनिक सम्मान के साथ उनके गांव में ही किया गया था। आज भी कुपवाड़ा क्षेत्र में सूबेदार करम सिंह का नाम तिथवाल के रक्षक के रूप में लिया जाता है।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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