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तंगहार चोटी की रक्षा को चट्टान बने थे नायक जदुनाथ

कर्नल शिवदान सिंह
मंगल, 09 नवम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

अक्टूबर 1947 में कश्मीर पर हमला करने के साथसाथ पाकिस्तानी हमलावरों ने जम्मू से पुंछ के क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर घुसपैठ कर ली थी। इसी के चलते पाकिस्तानियों ने नवंबर 1947 में राजौरी पर कब्जा कर लिया क्योंकि उस समय इस क्षेत्र में न तो महाराजा की सेना थी और न ही भारतीय सेना थी। जम्मूकश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह के द्वारा जम्मू कश्मीर राज्य का भारत में विलय होने के बाद भारत सरकार ने कश्मीर घाटी में पाकिस्तानियों को वापस खदेड़ने के साथ ही सेना की 50 पैरा ब्रिगेड को आगरा से हवाई मार्ग के द्वारा जम्मू भेज दिया था। उस समय इस ब्रिगेड में केवल दो  बटालियन थी। जम्मूकश्मीर राज्य की अधिकतर सीमा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से मिलती है। जहां पर उसके संचार के साधन आजादी से पहले भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। इसी के कारण पाकिस्तान ने जम्मू से लेकर पुंछ तक के क्षेत्र में अपने हमलावरों को इस सीमा में अंदर घुसा दिया। इस सब को देखते हुए जम्मू हवाई अड्डे पर उतरते ही 5 नवंबर 1947 को स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पैरा ब्रिगेड के सैनिक सड़क मार्ग से अखनूर के रास्ते रजौरी की तरफ आगे बढ़ने लगे।

अखनूर से लेकर पूंछ तक यह सड़क पीर पंजाल की पहाड़ियों की तलहटी में सकरे रास्ते से गुजरती है और यह मुर्गे की गर्दन की तरह नजर आती है। इसलिए इस पूरे क्षेत्र को चिकन नेक के नाम से पुकारा जाता है। 1947 से लेकर अब तक सारे युद्धो में पाकिस्तान का इरादा इस चिकन नेट पर कब्जा करने का रहा है। इसके महत्व को देखते हुए 50 ब्रिगेड अति शीघ्र आगे बढ़कर इन हमलावरों को इस क्षेत्र बाहर निकालना चाहती थी। पैरा ब्रिगेड के यहां पर आने से पहले ही पाकिस्तानी हमलावरों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया था जो क्षेत्र का महत्वपूर्ण शहर है। राजोरी पर पाकिस्तान का कब्जा होने के कारण जम्मू का इस मार्ग से श्रीनगर के लिए रास्ता बिल्कुल बंद हो चुका था। इसलिए पैरा ब्रिगेड ने सर्वप्रथम राजोरी को अपने कब्जे में लिया। इसके बावजूद पाकिस्तानी हमलावर लगातार इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण इलाकों में हमले कर रहे थे और उनका मुख्य इरादा इस क्षेत्र के झाझर, कोटली, मीरपुर और नौशेरा पर कब्जा करना था।

नौशेरा की पहरेदार हैं प्रकृतिक चोटियाँ

नौशेरा की रक्षा में नौशेरा के चारों तरफ फैली पहाड़ियांकोट पहाड़ी, पथराड़ी, उपराला और तंगधार हैं, जिन्हें नौशेरा का प्राकृतिक पहरेदार कहा जाता है। नौशेरा के लिए इन पहाड़ियों का महत्व देखते हुए  पाकिस्तान ने अक्टूबर में ही घुसपैठ के फौरन बाद इनमें से सबसे महत्वपूर्ण पहाड़ी कोट पर कब्जा कर लिया था। यह पहाड़ी ऐसे स्थान पर स्थित है जहां से जम्मू राजौरी मार्ग पर पूरी तरह से नजर रखी जा सकती है। इसलिए पाकिस्तान का इस पर कब्जा होने के बाद इस सड़क मार्ग से यातायात पूरी तरह से ठप हो चुका था, जिसके कारण आगे के शहरों में रोजमर्रा की सामग्री भी नहीं पहुंच पा रही थी।  इसलिए पैरा ब्रिगेड ने राजौरी पर दोबारा कब्जा लेने से पहले कोट पहाड़ी को अपने कब्जे में लेकर इस मार्ग को राजोरी तक जाने वाले यातायात के लिए दोबारा खोला। इस प्रकार भारतीय सेना आगे बढ़ने में सफल हुई।

नौशेरा के शेर की ललकार

इन पहाड़ियों का महत्व देखते हुए नौशेरा पर कब्जा करने के लिए पाकिस्तानी नौशेरा के इन प्राकृतिक पहरेदारओं पर भी कब्जा करना चाह रहे थे। पैरा ब्रिगेड ने दिसंबर में झाझर मीरपुर इत्यादि क्षेत्रों पर दोबारा कब्जा करके इस पूरे क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया था। जनवरी 1948 में पैरा ब्रिगेड की कमान नौशेरा का शेर कहे जाने वाले ब्रिगेडियर उस्मान के हाथों में आ चुकी थी। ब्रिगेडियर उस्मान ने पाकिस्तानी घुसपैठ को देखते हुए कसम ली कि जब तक वह एकएक पाकिस्तानी को इस क्षेत्र से नहीं खदेड़ देंगे तब तक वह जमीन पर चटाई बिछाकर ही सोएंगे। ब्रिगेडियर उस्मान के इस प्रकार के निश्चय से भारतीय सैनिकों का मनोबल और भी मजबूत हो गया।

30 राजपूत वीरों ने रोके रखा दुश्मन का रास्ता

नौशेरा के प्राकृतिक पहरेदार पहाड़ियों में तंगधार पहाड़ी कोट पहाड़ी के साथ ही है। इसलिए तंगधार पहाड़ी का भी नौशेरा की सुरक्षा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है। इसको देखते हुए ब्रिगेडियर उस्मान ने इस पहाड़ी की रक्षा के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल गुमान सिंह की कमान में 1 राजपूत बटालियन को यहां पर सुरक्षा में लगा दीया था। पहाड़ी क्षेत्रों में रक्षा के लिए सेना छोटीछोटी टुकड़ियों में पिकेट के रूप में मोर्चे संभालती है। इन्हीं में से तंगधार पहाड़ी के पिकेट नंबर दो पर नायक जदुनाथ सिंह अपनी प्लाटून के साथ डटे हुए थे। जिसमें उनके साथ 30 सैनिक थे। पाकिस्तानी हमलावर लगातार इस पूरे क्षेत्र में हमले कर रहे थे। 6 फरवरी 1948 को सुबह 6:00 बजे हल्के अंधेरे में पाकिस्तानियों ने बड़ी संख्या में जदुनाथ सिंह की तरफ बढ़ना शुरू किया और हमलावरों ने पहला हमला पिकेट नंबर दो पर कर दिया। नायक जदुनाथ सिंह और उनके साथियों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए अपनी अभूतपूर्व वीरता से कई गुना ज्यादा हमलावरों को हराकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया।

…और फिर पाकिस्तानी चूहों पर टूट पड़ा भारतीय शेर

एक के बाद एक हमलावरों ने जदुनाथ सिंह पर तीन हमले किए। उनसे लगातार लोहा लेते हुए जदुनाथ सिंह के 30 साथियों में से 27 वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और उनका एम्युनिशन का भंडार तकरीबन समाप्त हो चुका था। इस स्थिति में भी नायक जदुनाथ सिंह का साहस और मनोबल उच्च कोटि का था। पाकिस्तानियों ने अपना आखिरी हमला 8:00 बजे के आसपास किया। जादू नाथ सिंह ने अपने तीनों साथियों के साथ इन हमलावरों का मुकाबला करना शुरू किया। इसके दौरान उनके 3 साथी भी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और उनकी गोलियां भी समाप्त हो चुकी थी। इस स्थिति में नायक जदुनाथ सिंह  एक वीर राजपूत की तरह अपनी राइफल की संगीन चढ़ाकर मोर्चे से निकल पड़े पाकिस्तानियों पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े। उन्होंने अपनी संगीन से बहुत से हमलावरों को मार गिराया। उनकी बहादुरी और बिजली जैसी गति को देखकर वहां से ज्यादातर हमलावर भाग खड़े हुए। इस दौरान हमलावरों की 2 गोलियां सीधे जदुनाथ सिंह के सिर और छाती में लगी जिसके बावजूद वह हमलावरों से आखरी सांस तक लड़ते रहे। इस वीर सैनिक ने अपने अभूतपूर्व साहस और वीरता से तंगधार पहाड़ी की रक्षा करते हुए नौशेरा की रक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इसी समय बटालियन के और सैनिकों ने आकर जदुनाथ सिंह के मोर्चों को संभाल लिया जिसको देखते हुए पाकिस्तानी हमलावर उस क्षेत्र से भाग खड़े हुए। इस प्रकार नायक जदुनाथ सिंह ने उस समय में वीरता दिखाकर नौशेरा की सुरक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। यदि जदुनाथ एक चट्टान की तरह बीच में न आते तो हो सकता है पाकिस्तानी हमलावर नौशेरा में घुसने में सफल हो जाते और इस प्रकार यह क्षेत्र भी आज पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा होता।

जीवन परिचय

नायक जदुनाथ सिंह का जन्म 21 नवंबर 1916 को शाहजहांपुर के खजूरी गांव में हुआ था। उनके पिता एक किशन थे। जदुनाथ सिंह की शिक्षा स्थानीय स्कूल में केवल कक्षा चार तक ही हुई थी। इसके बाद इन्होंने अपने पिता का साथ कृषि कार्य में देना शुरू कर दिया। नायक जदुनाथ सिंह के विचार बचपन से ही सात्विक और उच्च कोटि के थे जिसके कारण उन्हें लोग हनुमान जी के नाम से पुकारते थे। जदुनाथ सिंह ने जीवन भर शादी नहीं की और सेना में जब भी उन्होंने दुश्मन का मुकाबला किया तब उन्होंने उच्च कोटि की देश प्रेम की भावना का प्रदर्शन किया और इसी भावना के अनुरूप उन्होंने अपने जीवन का बलिदान 6 फरवरी 1948 को पाकिस्तानी हमलावरों का मुकाबला करते हुए दिया था, जिसके लिए उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरांत देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्रदान किया था।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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