वीर वह है जो हमलावर दुश्मन की आंखों में देखकर कह सकता है कि तू दुष्ट है और तेरा युद्ध का मकसद भी गलत है। भारतीय सेना के 4 जाट इन्फैंट्री बटालियन के मेजर नारायण सिंह ऐसे ही वीर थे जिन्होंने पाकिस्तान के मेजर शब्बीर शरीफ की आंखों में आंख डालकर उसे ललकार कर उससे मल्ल युद्ध किया। परंतु अपनी आदत के मुताबिक आखिर में पाकिस्तानी सैनिकों ने धोखा करके मेजर नारायण सिंह को वीरगति तक पहुंचाया।
भारत पाक का सीमा विवाद चलता रहा है और चलता रहेगा। ऐसे में कुछ ऐसे वीर हुए हैं जिनकी बहादुरी की कहानियां भारत और पाकिस्तान के इतिहास की किताबों में आदर के साथ वर्णित है। ऐसे ही वीर थे मेजर नारायण सिंह, लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, मेजर सोमनाथ शर्मा, नाईक जदुनाथ सिंह और पाकिस्तान के कर्नल राजा जिन्होंने अरुण खेत्रपाल के मैदान में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था और उनके इस प्रदर्शन से प्रभावित होकर भारतीय सेना के अफसरों ने पाकिस्तान से इनकी बहादुरी की प्रशंसा की थी। जिसके आधार पर उन्हें मरणो उपरांत पाकिस्तान सरकार ने वहां के उच्चतम वीरता पुरस्कार निशाने हैदर से सम्मानित किया था। इसी कड़ी में मेजर शब्बीर शरीफ, जो भूतपूर्व पाकिस्तानी सेना अध्यक्ष जनरल राहील शरीफ के बड़े भाई थे और उन्होंने मेजर नारायण सिंह से मल्ल युद्ध किया था। इन दोनों मेजर्स का नाम भी शामिल है। मेजर नारायण सिंह और मेजर शब्बीर शरीफ की वीरता की तरफ मीडिया का ध्यान उस समय गया जब पाकिस्तान के भूतपूर्व सेना प्रमुख जनरल शरीफ ने मेजर नारायण सिंह की वीरता की प्रशंसा की थी।
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध
लंबे समय से पाकिस्तानी सेना पूर्वी पाकिस्तान में तरह-तरह के जुल्मों सितम ढा रही थी। जिनके कारण पूर्वी पाकिस्तान के करीब एक करोड़ शरणार्थी भारत में शरण लेने के लिए प्रवेश कर गए थे। मानवता के आधार पर भारत की सरकार ने इनका लंबे समय तक भरण पोषण किया परंतु लंबे समय तक चलते रहे इस शोषण को खत्म करने के लिए और पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों की मदद के लिए भारत को पूर्वी पाकिस्तान में दखल देना पड़ा और पाकिस्तानी सेना से युद्ध किया। जिसके द्वारा भारतीय सेना ने बांग्लादेश का निर्माण किया। 3 दिसंबर 1971 को भारत-पाकिस्तान का युद्ध शुरू हो चुका था और भारत ने अपनी पूरी सैनिक शक्ति को पूर्वी पाकिस्तान की सीमाओं पर लगा दिया था। इसको देखते हुए पाकिस्तान ने भारत को उसकी पश्चिमी सीमाओं पर उलझाने के लिए जम्मू कश्मीर और पंजाब के सीमाओं पर युद्ध छेड़ दिया। इसी के अंतर्गत 3/4 दिसंबर की रात में पाकिस्तानी सेना ने चुपके से फाजिल्का के आगे साबुना नहर के एक प्रमुख पुल बेरीवाला पर कब्जा कर लिया था।
रणनीतिक महत्व रखता है फाजिल्का
फाजिल्का क्षेत्र में सुरक्षा की दृष्टि से एक आयत बनता है जिस का एक कोना पाकिस्तान में सुलेमानकी हेड वर्क्स है और दूसरा कोना भारत के फाजिल्का में है। भारत के पंजाब में बहने वाली सतलुज नदी पाकिस्तान में जाती है और इसी नदी पर सुलेमानकी हेड वर्क पाकिस्तान में स्थित है। इस हेडवर्क से पाकिस्तान के रेतीले क्षेत्र में सिंचाई के लिए कई नहरें जाती हैं। इसलिए पाकिस्तान इस हेडवर्क की सुरक्षा अपनी सेना की बड़ी टुकड़ी के द्वारा करता है। यहां पर मोंटगोमरी और ओकरा क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना की दो इन्फैंट्री डिविजन और एक आर्मर्ड डिविजन तैनात रहती है।1965 के युद्ध के बाद भारतीय सैनिक विश्लेषकों ने पाया कि यह क्षेत्र आर्मर्ड युद्ध के लिए बहुत उपयुक्त है, क्योंकि यहां की भूमि समतल है। इसलिए इस क्षेत्र में टैकों के हमलों से सुरक्षा के लिए टैंकों को रोकने के लिए बाधाएं बनाई जानी चाहिए। इसी के अंतर्गत सतलुज नदी से साबुना नहर का निर्माण किया गया और नहर के पाकिस्तान की तरफ के ऊंचे-ऊंचे किनारों पर रक्षा के लिए बंकरो का निर्माण किया। साबुना नहर के दूसरी तरफ स्थित भारतीय गांवों का सड़क संचार वहां के बेरी वाला पुल से होता है। इसलिए यह पुल भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसकी महत्ता को देखते हुए इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भारतीय सेना ने यहां पर 67 स्वतंत्र इन्फैंट्री ब्रिगेड ग्रुप टैंकों के 1 स्क्वाड्रन, एक तोपखाने की फील्ड रेजीमेंट और एक मीडियम आर्टलरी की बैटरी के साथ तैनात की थी। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में बीएसएफ की दो बटालियन भी तैनात थी। बेरी वाला पुल के ठीक सामने सुलेमान की हेड वर्क के पास पाकिस्तान की 105 इन्फैंट्री ब्रिगेड तैनात थी। 67 ब्रिगेड को इस समय ब्रिगेडियर सुरजीत सिंह चौधरी कमांड कर रहे थे जो सीधे भारतीय सेना की 11 कोर का हिस्सा थी।
भारतीय वीरों ने किए लगातार हमले
ब्रिगेडियर चौधरी ने फाजिल्का की महत्वता को देखते हुए इसकी सुरक्षा के लिए किले जैसी व्यवस्था की। जिसमें अपनी ब्रिगेड की दो बटालियनों, 4 जाट और 15 राजपूत, को फाजिल्का शहर की चार तरफ से सुरक्षा के लिए तैनात किया और तीसरी 3 असम बटालियन को साबूना नहर के आस-पास तैनात किया। इस नहर के आगे अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास जगह-जगह सुरक्षा चौकियां स्थापित की जिन्हें सैनिक भाषा में स्ट्रांग पॉइंट कहते हैं। अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अर्धसैनिक ही तैनात किए जाते हैं इसलिए सीमा के पास चौकियों में बीएसएफ के सैनिक ही तैनात थे। पाकिस्तान का फाजिल्का की तरफ सबसे ज्यादा अनुमानित हमला वहां के मुज़्ज़ुयम की ओर से सोचा जा रहा था। इसलिए 3 असम बटालियन ने सुरक्षा की दृष्टि से इस क्षेत्र के छोरीवाला, पक्का इत्यादि क्षेत्रों में अपनी चौकिया तैनात कर दी। 3 दिसंबर को पूर्वी पाकिस्तान में भारत-पाक युद्ध शुरू होते ही पाकिस्तान ने शाम के 6:20 बजे बेरीवाला क्षेत्र में स्थित भारतीय चौकियों पर आर्टलरी फायर करना शुरू कर दिया। इसके आधे घंटे बाद ही शाम 7:00 बजे तक पाकिस्तानियों ने इस क्षेत्र में स्थित झांझर पर कब्जा कर लिया। इसको देखते हुए 7:00 बजे 67 ब्रिगेड के कमांडर ने सबुना नहर के 23 पुलों को उड़ाने का आदेश दिया और असम बटालियन से सबुना नहर के आगे से अपने सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दे दिया। इसके अनुसार 3 असम बटालियन के कमान अधिकारी ने अपने सैनिकों को उस क्षेत्र के पक्का छोरीवाला, चिश्ती और कादिर बक्स के मोर्चा से वापस आने का आदेश दिया। पाकिस्तानी सैनिकों ने जब भारतीय सैनिकों को बिना युद्ध के वापस लौटते हुए देखा तो उन पर जगह-जगह घात लगाकर हमले किए जिनमें बहुत से असमी सैनिक मारे गए और बहुत ने वहां से किसी तरह अपनी जान बचाई।
पाकिस्तानी सेना ने झोंकी थी पूरी ताकत
भारतीय सैनिकों के पीछे हटने के बाद बेरीवाला पुल की सुरक्षा के लिए 300 मीटर पश्चिम में 3 असम के सैनिक तैनात थे। इस पुल के पश्चिम में स्थित बीएसएफ और असम की सारी पोस्ट खाली थी। भारतीय सैनिकों के इस प्रकार हटने के बाद बेरीवाला पुल की रक्षा के लिए केवल दो प्लाटून इन्फैंट्री के सैनिक और 3 सरमन टैंकर्स की एक टोली यहां पर तैनात थी। इस स्थिति में 3 दिसंबर की शाम को ही 7:30 बजे बेरी वाला पुल पर पाकिस्तान का हमला हो गया और थोड़ी देर में ही बिना किसी प्रतिरोध के पाकिस्तान ने पुल पर कब्जा कर लिया। इसके बाद रात 8:30 बजे तक पुल के चारों तरफ पाकिस्तान का कब्जा हो गया। 4 दिसंबर की रात में 4 जाट बटालियन की डेल्टा कंपनी को टी-54 टैंकों के साथ हमला करके बेरीवाला पर दोबारा कब्जा करने का आदेश दिया गया। परंतु पाकिस्तान के बहुत ज्यादा आर्टलरी और मीडियम मशीनगन फायर के कारण यह कंपनी अपने मिशन में सफल नहीं हो पाई और इसके इस हमले में इस कंपनी के 14 सैनिक मारे गए, 21 घायल हुए तथा 8 सैनिक लापता हो गए।
बेरीवाला पुल पर कब्जे को लेकर हुआ संग्राम
4 दिसंबर की रात को बेरीवाला पुल पर दोबारा कब्जा करने में नाकाम होने के बाद 4 जाट की चार्ली कंपनी को 5 दिसंबर की रात में दोबारा पुल को वापस लेने के लिए आदेश मिले। इस कंपनी को मेजर नारायण सिंह कमान कर रहे थे जो बहादुर और किसी भी प्रकार के खतरे से न डरने वाले वीर सैनिक थे। इस कंपनी के साथ टी-54 टैंक की एक टोली भी थी। मेजर नारायण सिंह ने रात में 8:00 बजे हमले के लिए निर्णय लिया। इससे पहले उन्होंने अपनी कंपनी के सैनिकों को उत्साहित करते हुए कहां की भारतीय सेना की गरिमा के अनुसार हमें इस पुल पर आज ही कब्जा करना है। चाहे इसके लिए हमें अपना सर्वस्व न्यौछावर करना पड़े। जिससे पाकिस्तानियों को उनकी जगह दिखाई जा सके। कंपनी के सैनिक पूरी तरह से हर हाल में पुल पर कब्जा करने के लिए तैयार हो गए। नियत समय के अनुसार शाम को 7:30 बजे भारतीय सैनिकों ने आर्टलरी फायर शुरू कर दिया जिससे पाकिस्तानी और भी चौकन्ने हो गए। हमले की आशा में पाकिस्तानियों ने चारों तरफ अपनी व्यवस्था को मजबूत बना लिया। मेजर नारायण सिंह ने 8:00 बजे अपना हमला शुरू कर दिया और पाकिस्तानी सैनिकों से आमने-सामने की लड़ाई करते हुए वह बेरीवाला पुल पर पहुंच गए। दूसरी तरफ से पुल पर कब्जा पाकिस्तान की 6 फ्रंटियर फोर्स की बटालियन का था जिसकी कमान मेजर शब्बीर शरीफ कर रहे थे जो अभी कुछ समय पहले पाकिस्तान के भूतपूर्व सेना प्रमुख राहिल शरीफ के बड़े भाई थे। पाकिस्तान की फ्रंटियर फोर्स उसकी सेना की एक सर्वश्रेष्ठ और जुझारू बटालियन में शुमार है। पुल पर पहुंचते ही दोनों तरफ के सैनिक एक दूसरे पर वार करने लगे जिसमें बहुत से भारतीय सैनिक शहीद हो गए क्योंकि भारतीय सैनिक खुले में थे और पाकिस्तानी सैनिक अपने मोर्चों में सुरक्षित थे। इसी समय मेजर नारायण सिंह ने पाकिस्तानी सैनिकों के कमांडर मेजर शब्बीर शरीफ को देखा। उसी समय एक भारतीय सैनिक मेजर शरीफ पर वार करने ही वाला था, तब उसको रोकते हुए मेजर नारायण ने मेजर शरीफ से ललकार कर वापस जाने के लिए बोला और कहां कि तुम हमारे भारतीय क्षेत्र पर इस प्रकार क्यों कब्जा कर रहे हो। मेजर नारायण सिंह का उद्देश्य व्यर्थ के खून खराबे को रोकना था। परंतु पाकिस्तानी मेजर कड़क कर बोला कि हम पूरे भारत पर कब्जा करेंगे।
मल्ल युद्ध के लिए मेजर नारायण सिंह न ठोंकी ताल
इतना सुनने के बाद नारायण सिंह ने पाकिस्तानी मेजर को आमने-सामने आकर मल्ल युद्ध के लिए ललकारा और कहां यदि तुम मुझे इस मल्ल युद्ध में हरा दोगे तो मैं यहां से वापस चला जाऊंगा। मेजर नारायण सिंह और पाकिस्तानी मेजर शरीफ दोनों ही जोश और दोनों की नसों में जज्बातों का खून उबल रहा था। इतना सुनने के बाद मेजर शरीफ पुल पर मेजर नारायण सिंह के सामने खड़ा हो गया। दोनों ने अपने सैनिकों को मल्ल युद्ध के समाप्त होने तक कोई भी फायर करने के लिए मना कर दिया। इसके बाद दोनों में मल्ल युद्ध शुरू हो गया जो करीब 20 मिनट तक चला। जिसमें दोनों ने एक दूसरे पर लात घुसों से वार किया ! कुछ समय पश्चात पाकिस्तानी मेजर कमजोर पड़ता नजर आया। इसको देख कर पाकिस्तानी सैनिकों को लगा कि हमारे मेजर साहब इस युद्ध में हार जाएंगे। इसको देखते हुए अचानक एक पाकिस्तानी सैनिक ने मेजर नारायण सिंह पर फायर कर दिया जिसमें मेजर नारायण सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए। इसको देख कर भारतीय सैनिकों ने भी पाकिस्तानी सैनिकों पर फायर करना शुरू कर दिया। इस समय भारतीय सैनिक खुले में थे और पाकिस्तानी सैनिक बंकरो में छुपे हुए थे। जहां से वह आराम से मीडियम मशीनगन का फायर भारतीय सैनिकों पर कर रहे थे। इस प्रकार चार्ली कंपनी के बहुत से सैनिक वहां पर वीरगति को प्राप्त हो गए। इसके बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने मेजर नारायण सिंह को बंदी बनाते हुए अपने कब्जे में ले लिया। इस मल्ल युद्ध में दोनों मेजर बुरी तरह से घायल हो चुके थे। इस प्रकार भारतीय सेना का बेरीवाला पुल पर कब्जा करने का यह प्रयास भी असफल हो गया।
दुश्मन सेना भी हुई वीरता की कायल
मेजर नारायण सिंह की वीरता को देखते हुए पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें आदर पूर्वक अपने कब्जे में लिया और दूसरे दिन सुबह उन्हें डॉक्टरी सहायता के लिए सेना के अस्पताल में ले जाया गया जहां पर रास्ते में ही वह वीरगति को प्राप्त हो गए। पाकिस्तानी सेना ने नारायण सिंह की वीरता और भावना को देखते हुए उन्हे उसी प्रकार सम्मान किया जैसे वे अपने सैनिकों का करते थे। इसके बाद 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ने ढाका में समर्पण किया जिसके बाद 18 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ने आदर पूर्वक मेजर नारायण सिंह का पार्थिव शरीर भारतीय सेना को सौंप दिया। इसके बाद युद्ध स्थल के पास ही मेजर नारायण सिंह का अंतिम संस्कार सैनिक सम्मान के साथ आसफवाला गांव में किया गया। मेजर नारायण सिंह और अन्य भारतीय सैनिकों को सम्मान देने के लिए इसी आसफ़वाला गांव में एक शहीद स्मारक बना दिया गया है जिसका नाम शहीदों के शहीद रखा गया है। इस प्रकार मेजर नारायण सिंह और उनके साथियों ने पाकिस्तान को अपने साहस वीरता और खुलेपन का एहसास करा दिया था। भारत सरकार ने मेजर नारायण सिंह को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया।
वर्ष 1971 युद्ध के पहले ही हुई थी बटालियन में वापसी
मेजर नारायण सिंह का जन्म 19 अगस्त 1936 को उधमपुर के किरमाची–मानसर गांव में एक सैनिक परिवार में हुआ था। वह प्रसिद्ध भटियाल राजपूत थे। परिवार का बड़ा पुत्र होने कारण इन्हें प्यार से बचपन में काकू बुलाया जाता था। शुरू से ही नारायण सिंह एक होनहार बालक थे और गांव में मिडिल स्कूल की शिक्षा प्राप्त करके वह सेना में भर्ती हो गए। सेना में नारायण सिंह हर क्षेत्र में आगे रहने वाले सैनिक थे। इसे देखकर 30 जून 1963 को उन्हें सेना की 4 जाट बटालियन में कमीशन प्राप्त हो गया। जिसके बाद उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने के लिए असम राइफल्स में उन्हें पोस्ट कर दिया गया था। जहां से 1971 के युद्ध से कुछ समय पहले ही वे अपनी बटालियन में वापस आए थे। अब उनके परिवार में उनकी वीरनारी पत्नी और एक बेटा है। दोनों हर साल उनके शहीदी दिवस पर उनकी समाधि पर जाकर पुष्प अर्पित करते हैं। मेजर नारायण सिंह की समाधि को फाजिल्का के आस-पास के क्षेत्रों में पूरी श्रद्धा और सम्मान से देखा जाता है और हर साल उनके शहीदी दिवस पर यहां उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
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