• 01 September, 2024
Foreign Affairs, Geopolitics & National Security
MENU

मातृ भूमि का शीश बचाने को मेजर सोमनाथ ने दी आहुति

कर्नल शिवदान सिंह
बुध, 03 नवम्बर 2021   |   7 मिनट में पढ़ें

अगस्त 1947 में भारत आज़ाद हुआ। उसी समय भारत का बंटवारा भी हुआ, जिसमें 14 अगस्त को भारत के एक हिस्से को पाकिस्तान के रूप में अंग्रेजी सरकार ने मान्यता दी और 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता की घोषणा की गई। सांप्रदायिक कारणों से दोनों देशों के बीच बड़ी संख्या में मुस्लिम और हिंदू आबादी का पलायन हुआ। इसके परिणाम स्वरूप भारतवर्ष में बड़ी संख्या में हिंदू आबादी पाकिस्तान से शरणार्थियों के रूप में आई। उनका पुनर्वास भारत सरकार ने लंबे समय तक किया। उसी दौरान 23 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर की सीमा पर पाकिस्तानी ने हमला कर दिया। उन हमलावरों को पाकिस्तान ने उत्तर पश्चिम क्षेत्र के पठान कव्वालियों का नाम दिया। परंतु इनमें ज्यादातर हमलावर पाकिस्तानी सेना के सैनिक ही थे। वह तेज गति से आज के पाक अधिकृत कश्मीर कहे जाने वाले क्षेत्र पर पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ने लगे और 26 अक्टूबर को यह हमलावर श्रीनगर से केवल 60 किलोमीटर दूर बारामुला तक पहुंच गए थे।

तब तक जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय नहीं हुआ था। जबकि स्वतंत्रता के समय पूरे भारतवर्ष के 544 रियासतों ने स्वयं को अपनी इच्छा अनुसार भारत या पाकिस्तान में विलय कर दिया था। उस समय केवल यही एक राज्य था जिसका किसी में विलय नहीं हुआ था क्योंकि यहां के राजा हरि सिंह इस राज्य को भारत और पाकिस्तान के बीच में स्वतंत्र रखकर इसको स्विट्जरलैंड की तरह बनाना चाहते थे। परंतु यह पाकिस्तानी सेना को रास नहीं आया। पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर को हथियाने के लिए हमला कर दिया। यह हमलावर 26 अक्टूबर को बारामुला पहुंच चुके थे। उस समय स्वयं डीकेएस एक खतरनाक स्थिति में पाकर जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को 26 अक्टूबर को शाम 6:00 बजे मदद के लिए टेलीफोन किया। भारत सरकार ने महाराजा को विलय के लिए कहा जिसके बाद सरकार मदद के लिए तैयार थी। महाराजा ने रात्रि में 8:00 बजे विलय पत्र पर अपनी सहमति दी।

वर्ष 1947-48 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारतीय सैनिक। स्रोत : एनसीईआरटी पुस्तक

उसके बाद बिना कोई देर किए भारतीय सेना की 1 सिख बटालियन को श्रीनगर जाने का आदेश दिया गया। इस समय यह बटालियन दिल्ली के पास गुड़गांव क्षेत्र में शरणार्थियों का पुनर्वास कर रही थी। इसलिए दिल्ली हवाई अड्डे के सबसे नजदीक होने के कारण इसको रात्रि 10:00 बजे श्रीनगर हवाई अड्डे पर जाने के लिए रवाना किया गया। उस समय कर्नल दीवान चंद राय इस बटालियन को कमान कर रहे थे। श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंचकर रात में ही कर्नल दीवान चंद अपने सैनिकों के साथ हमलावरों का मुकाबला करने के लिए बारामुला के लिए चल पड़े और उन्होंने रात में ही बारामुला में पाकिस्तानी हमलावरों के सामने मोर्चा संभाल लिया। इस बटालियन ने कर्नल दीवान चंद की कमान में पाकिस्तानियों को करारा जवाब दिया जिससे पाकिस्तानियों को यह निश्चित हो गया कि वह इस रास्ते से श्रीनगर के लिए नहीं बढ़ सकते हैं। इन हमलावरों का मुख्य उद्देश श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा करना था। इसलिए उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और वह बड़गांव के रास्ते से 28 अक्टूबर को श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे।

उस समय 4 कुमाऊं बटालियन भी दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में पुनर्वास के कार्य में लगी हुई थी। इसलिए इस बटालियन को भी 27 अक्टूबर की सुबह ही श्रीनगर के लिए रवाना कर दिया गया। मेजर सोमनाथ शर्मा इसी बटालियन के अफसर थे। 20 अक्टूबर को मेजर सोमनाथ शर्मा को एक दुर्घटना में गंभीर चोट आई थी जिसमें उनकी बाएं हाथ की हड्डी टूट चुकी थी और उनके बाएं हाथ पर प्लास्टर लगा था। डॉक्टरों की राय के अनुसार मेजर शर्मा युद्ध में हिस्सा नहीं ले सकते थे। परंतु मेजर शर्मा ने अपने कमान अधिकारी से बड़े कड़े शब्दों में इस युद्ध में जाने की अनुमति देने का आग्रह किया और उन्होंने कहा कि वह अपनी कंपनी के साथ ही जियेंगे और मरेंगे। मेजर शर्मा की दृढ़ इच्छाशक्ति को देखते हुए 27 अक्टूबर को कुमाऊं बटालियन की चार्ली और डेल्टा कंपनी के साथ उन्हें श्रीनगर भेज दिया गया। इस बटालियन के साथ ही ब्रिगेडियर सेन को इस पूरे ऑपरेशन की कमान संभालने के लिए भेजा गया था। वहां पर पहुंचने पर ब्रिगेडियर सेन ने शुरू में कुमाऊं की दोनों कंपनियों को श्रीनगर हवाई अड्डे को सुरक्षा देने के लिए आदेश दिया। यह सुनकर मेजर सोमनाथ शर्मा को अच्छा नहीं लगा, क्योंकि वह तो दुश्मन का सीधा मुकाबला करने आए थे। 27 अक्टूबर की शाम तक ब्रिगेडियर सेन को सूचना मिल चुकी थी कि पाकिस्तानी हमलावर अपना रास्ता बदल कर बड़गांव के रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं। इसको देखते हुए उन्होंने 28 अक्टूबर की सुबह ही कुमाऊं बटालियन की डेल्टा कंपनी को बड़गांव के रास्ते में पाकिस्तानियों को रोकने के लिए भेजा। मेजर सोमनाथ शर्मा खुशी-खुशी अपनी कंपनी को लेकर बड़गांव पहुंचे। वहां पहुँचने पर पाकिस्तानी हमलावर कहीं पर भी नजर नहीं आ रहे थे। कुछ समय चारों तरफ तलाशने से उन्हें ज्ञात हुआ की हमलावर कश्मीरियों के घरों में छुपे हुए हैं। इसको देखते हुए उन्होंने बड़गांव में एक ऐसे ऊंचे टीले को खोजा जिससे श्रीनगर की तरफ बढ़ने वाले रास्ते पर इन हमलों को रोका जा सके और जहां पर प्राकृतिक सुरक्षा के उपाय जैसे छोटी-छोटी पहाड़ियां पेड़ पौधे इत्यादि हो। ऐसे एक टीले पर मेजर शर्मा ने अपनी कंपनी को चारों तरफ से सुरक्षात्मक विधि से मोर्चा संभालने के लिए आदेश दिए। पाकिस्तानी हमलावर गांव के घरों में छुप कर अपने और साथियों का इंतजार कर रहे थे।

27 अक्टूबर से ही भारतीय सेना की टुकड़िया श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुंच रही थी। इसको देखते हुए हमलावरों ने जल्दी से श्रीनगर पहुंचने के इरादे से मेजर शर्मा की कंपनी पर 28 अक्टूबर को ही दिन में 2:00 बजे हमला कर दिया। यह हमला मोर्टार और एलएमजी फायर के साथ किया गया था। हमलावर एक नाले के रास्ते भारतीय टुकड़ी के नजदीक पहुंचे और उन पर चारों तरफ से हमला करने लगे। मेजर शर्मा ने अपने सैनिकों का वीरता से नेतृत्व करते हुए एक मोर्चा से दूसरे मोर्चे में अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए इन हमलावरों का मुकाबला किया। कंपनी के सैनिकों ने जब देखा कि घायल अवस्था में भी उनके कंपनी कमांडर कितनी बहादुरी से उनके साथ डटे हुए हैं तो उनका उत्साह और भी बढ़ गया और डेल्टा कंपनी के 90 वीर सैनिकों ने पाकिस्तान के 500 हमलावरों को करारा जवाब देना शुरू कर दिया। दिन में 2:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक इन हमलावरों के लगातार हमलों को उन वीर जवानों ने नाकाम दिया। इन हमलावरों का मुकाबला करने में इस कंपनी को तोपखाने या हवाई मदद उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने यह कारनामा अकेले ही किया।

03 नवम्बर तक लगातार दुश्मन का मुक़ाबला करते हुये डेल्टा कंपनी का गोली-बारूद समाप्त होने लगा था। इसकी सूचना मेजर शर्मा ने ब्रिगेडियर सेन को दी। इसको सुनते ही ब्रिगेडियर सेन ने मेजर शर्मा को पीछे हटने का आदेश दिया। इस समय उनकी कंपनी दुश्मनों का मुकाबला कर रही थी। मेजर शर्मा ने जवाब दिया कि, ‘इस समय हम दुश्मन को अपनी पीठ नहीं दिखाएंगे और आखरी गोली तक दुश्मन का मुकाबला करेंगे’। शर्मा दौड़-दौड़ कर अपने सैनिकों की मदद करते हुये हौसला बढ़ा रहे थे। इसी दौरान उन्होंने देखा कि उनकी एलएमजी चला रहे 2 सैनिकों में से एक सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुका है, इसलिए एलएमजी की मैगजीन को दोबारा भरने में कठिनाई उत्पन्न हो रही थी। इसको देखते हुए मेजर शर्मा ने स्वयं मैगजीन भरने का काम संभाल लिया। इसी दौरान हमलावरों का एक गोला मेजर शर्मा के मोर्चे में आ गिरा जिसके कारण मोर्चे में मौजूद तीन सैनिक और मेजर शर्मा वीरगति को प्राप्त हो गए।

मेजर शर्मा युद्ध में जाते समय अपनी माता जी के द्वारा दी हुई एक छोटी सी श्रीमद्भगवदगीता अपने छाती के जेब में रखते थे। वीरगति को प्राप्त होते समय गोले का एक स्प्लेंडर उनकी जेब में लगा जिससे श्रीमद्भगवदगीता के पेज अलग-अलग हो गए और इन्होंने मेजर शर्मा के पार्थिव शरीर को ढक लिया। ऐसा लग रहा था मानो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इनको आशीर्वाद दे रहे हों और उनकी देश भक्ति और वीरता की सराहना भी कर रहे हैं। मेजर शर्मा की भारत माता के प्रति श्रद्धा जिसके द्वारा उन्होंने घायल अवस्था में भी युद्ध में हिस्सा लिया और अभूतपूर्व वीरता और नेतृत्व के लिए भारत सरकार ने उन्हें भारत का प्रथम परमवीर चक्र प्रदान किया था।

मेजर शर्मा के बलिदान और वीरता से प्रेरणा लेते हुए उनकी कंपनी के उप कमान अधिकारी  जो एक वायसराय कमीशन ऑफिसर थे, ने कंपनी की कमान संभाली। कंपनी में एम्युनिशन की कमी को देखते हुए उन्होंने कंपनी में बची हुई गोलियों को एकत्रित किया और उन्हें एक एलएमजी मैगजीन में भरकर स्वयं एलएमजी हाथ में लेकर फायर करते हुए मोर्चे से बाहर आकर हमलावरों पर धावा बोल दिया। जिससे अचानक पाकिस्तानी हमलावर हक्के बक्के हो गए। इस हमले में उन्होंने बहुत से हमलावरों को धराशाई किया और उनके हौसले को देखते हुए बाकी हमलावर भाग खड़े हुए। इस तरह केवल 90 वीर कुमाऊनी सैनिकों ने मेजर शर्मा की कमान में धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले श्रीनगर को पाकिस्तान में जाने से बचाया, अन्यथा आज यह भी पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा होता।

जीवन परिचय

मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को हिमाचल के कांगड़ा में एक सैनिक परिवार में हुआ था। इनके पिता भारतीय सेना की मेडिकल कोर में सेवारत थे। जहां से वह मेजर जनरल  के पद से सेवानिवृत्त हुए। मेजर  शर्मा की प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल के शेरगढ़ स्कूल और उसके बाद सेना में जाने की इच्छा से उन्होंने इंडियन मिलिट्री कॉलेज (RIMC ) में प्रवेश किया।  स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने  सेना में अफसर बनने के लिए इंडियन मिलिट्री एकेडमी देहरादून में 1941 में प्रवेश किया जिसके बाद उन्हें 1943 में सेना में  सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति प्राप्त हुई ।

**************************


लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

अस्वीकरण

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और चाणक्य फोरम के विचारों को नहीं दर्शाते हैं। इस लेख में दी गई सभी जानकारी के लिए केवल लेखक जिम्मेदार हैं, जिसमें समयबद्धता, पूर्णता, सटीकता, उपयुक्तता या उसमें संदर्भित जानकारी की वैधता शामिल है। www.chanakyaforum.com इसके लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है।


चाणक्य फोरम आपके लिए प्रस्तुत है। हमारे चैनल से जुड़ने के लिए यहां क्लिक करें (@ChanakyaForum) और नई सूचनाओं और लेखों से अपडेट रहें।

जरूरी

हम आपको दुनिया भर से बेहतरीन लेख और अपडेट मुहैया कराने के लिए चौबीस घंटे काम करते हैं। आप निर्बाध पढ़ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी टीम अथक प्रयास करती है। लेकिन इन सब पर पैसा खर्च होता है। कृपया हमारा समर्थन करें ताकि हम वही करते रहें जो हम सबसे अच्छा करते हैं। पढ़ने का आनंद लें

सहयोग करें
Or
9289230333
Or

POST COMMENTS (0)

Leave a Comment