‘‘आज का भारत दुनिया की बड़ी ताकत बनना चाहता है न कि बैलेंसिंग पावर। इसलिए भारत आज बड़ी वैश्विक जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार है।’’ यह बात वर्ष 2015 में वर्तमान विदेश मंत्री और तत्कालीन विदेश सचिव एस. जयशंकर ने इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज में एक लेक्चर के दौरान कही थी। उनके इस वक्तव्य में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विज़न की झलक थी जिससे वे अपने वरिष्ठ राजनयिकों को पहले ही अवगत करा चुके थे। प्रधानमंत्री ने वरिष्ठ राजनयिकों से स्पष्ट कहा था कि वे भारत को दुनिया की बड़ी ताकत बनाने में योगदान देने के लिए उन्होंने बहुत से लोकाचारों और संकोचों की परंपरागत दीवारों को तोड़ा और भारत को ‘सॉफ्ट पावर ऑफ सिविलाइजेशन’ की दावेदारी के लिए तैयार किया।
वर्ष 2022 भारतीय विदेश नीति के लिए कैसा रहेगा, इस निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले हमें यह देखने की जरूरत है कि उथल-पुथल के दौर से गुजरती आज की दुनिया के बीच बनते-बिगड़ते भू-राजनीतिक समीकरण क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं। आज जब हम इस विषय पर बात कर हैं तब दुनिया कोविड-19 महामारी के नए चरण में प्रवेश कर रही है या फिर कर चुकी है। अभी दुनिया इकोनॉमिक रेस्सेशन (आर्थिक सुस्ती), अनिश्चितता और संक्रमण से बाहर नहीं निकल पायी थी कि फिर से अनिश्चित संभावनाओं का सामना करने के लिए विवश है। संभव है कि वैश्विक राजनीति इस दौर में पुनः शिथिल पड़े और यूरोप व अमेरिका कुछ कदम पीछे हटने की मुद्रा में दिखें। लेकिन चीन और रूस के संदर्भ में यह बात नहीं कही जा सकती। इसलिए चीन पर सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत होगी।
दरअसल चीन की कम्युनिष्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस अगले वर्ष के उत्तरार्द्ध में होने वाली है, जहां यह तय होगा कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग को पांच वर्ष का एक और कार्यकाल दिया जाए या नहीं। इससे पहले 14वीं पंचवर्षीय योजना की रिपोर्ट पेश होनी है जो यह संकेत दे रही है कि चीन पर इस समय घटती हुयी मांग, आपूर्ति के झटके और भविष्य की वृद्धि में कमजोरी सम्बंधी दबाव तथा जोखिम से गुजर रहा है। बाहरी और आंतरिक अनिश्चितताओं और जटिलताओं के कारण उसका आर्थिक परिदृश्य नकारात्मक है। यही नहीं चीनी परिसंपत्ति क्षेत्र, जो कि जीडीपी वृद्धि में 28 प्रतिशत का योगदान करता है, भी एवरग्रांड के डिफाल्ट के कारण इस कदर दबाव में है कि कभी भी प्रापर्टी का बुलबुला फूट सकता है। यदि ऐसा हुआ तो चीन को बड़े आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा। शी जिनपिंग इनका असर आंतरिक राजनीति पर नहीं दिखने देना चाहेंगे, इसलिए इस बात की संभावना अधिक है कि वे इसे भारत-चीन सीमाओं की ओर ले जाने की कोशिश करेंगे। उनका लैंड बॉर्डर लॉ कुछ ऐसे ही संकेत करता है।
अच्छी बात यह है कि कभी कभी चीन-रूस सम्बंधों के बीच हल्की सी विभाजक रेखा खिंचती हुयी दिखने लगती हैं जो यह बताती हैं कि मॉस्को-बीजिंग बॉण्डिंग स्थायी व मजबूत नहीं है। वजह यह है कि चीन इतिहास के पन्नों पर लिखे उस इतिहास को मिटाना चाहता है जिसमें यह दर्ज है कि चीन कभी सोवियत संघ की उंगली पकड़ कर आगे बढ़ा था। क्योंकि यह बात उसे रूस का भी नेता बनने से रोकती है। यही वजह है कि चीन रूस को नीचा दिखाने का मौका नहीं छोड़ता। अभी हाल ही में अमेरिका में नियुक्त चीनी राजदूत क़िन गांग ने कहा कि अमेरिका में कुछ लोग शीत युद्ध की मानसिकता से ग्रस्त हैं और चीन के साथ सोवियत यूनियन की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन चीन सोवियत यूनियन नहीं है और अमेरिका 30 साल पहले जैसा था, वो नहीं है। यह कथन या तो रूस को मुंह चिढ़ाने वाला है। यह भी हो सकता है कि वह उसकी बौखलाहट का नतीजा भी हो जो यूरेशियाई हिस्से पर रूस के जबरन बढ़ते दबदबे से पैदा हुआ। वैसे चीन का रूस के प्रति यह नजरिया भारत के लिए लाभदायक है। चूंकि भारत की रूस से पुरानी दोस्ती है और प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच एक खास केमिस्ट्री है, इसलिए ऐसा भरोसा किया जा सकता है कि वर्ष 2022 में मोदी-पुतिन केमिस्ट्री हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में कूटनीतिक लाभांश की हैसियत में होगी।
एक बात और पुतिन लम्बे समय से एक भावनात्मक दर्द से गुजर रहे हैं। वे रूस को इतिहास में स्वर्णकाल तक ले जाना चाहते हैं। उन्होंने वैश्विक स्तर पर अपने रणनीतिक चातुर्य को प्रमाणित भी किया है। जार्जिया, क्रीमिया और यूक्रेन ही नहीं बल्कि सीरिया और ईरान को इसके उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। आज रूस यूरेशियाई क्षेत्र में चुनौती विहीन दिख रहा है, लैटिन अमेरिका के साथ सम्बंध अच्छे हा रहे हैं और मध्य-पूर्व व अन्य एशियाई क्षेत्रों में उसकी अच्छी रणनीतिक साझेदारी बन रही है। ऐसे में पुतिन को भारत की जरूरत है। 12 जनवरी 2022 को बाइडेन-पुतिन मुलाकात संभावित है। इससे भारत को कूटनीतिक दुविधा से निकलकर फ्रंट फुट पर खेलने का अवसर मिल जाएगा जिसमें मॉस्को-वाशिंगटन टकराव बाधक बना हुआ है। यानि मोदी-पुतिन केमिस्ट्री 2022 में भू-रणनीतिक दृष्टि से लाभांश देने वाली सिद्ध हो सकती है। हालांकि पश्चिमी यूरोप रूस को लेकर असहज है, लेकिन भू-राजनीतिक दृष्टि से इस पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि अभी यूरोप को स्वयं पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजरना है।
भारत का अगला कदम सन्निकट पड़ोस पर ध्यान देने का होगा, जिसके साथ वह पहले से ही एक्ट ईस्ट के जरिए तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है। दरअसल दक्षिण पूर्व एशिया में 25 वर्षों से मजबूत विकास और लगातार बढ़ते क्षेत्रीय एकीकरण का दौर चल रहा है। लेकिन अमेरिका-चीन टकराव और कोविड 19 महामारी के कारण यह क्षेत्र अनिश्चितता और परिवर्तनशील व बाधित हो रही सप्लाई चेन सहित कुछ अन्य संकटों से गुजर रहा है जिसमें अनिश्चित व अस्थिर भू-राजनीति को भी शामिल किया जा सकता है। चीन इस क्षेत्र में व्यापक घुसपैठ कर चुका है। उसकी चेकबुक कूटनीति ने इस क्षेत्र को अनिश्चिता व अस्थिरता की ओर धकेलने में में निर्णायक भूमिका निभायी है। दक्षिण पूर्व एशिया के देश अब इससे उबरना चाहते हैं। भारत के लिए यह अवसर की तरह है लेकिन चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था चीन के मुकाबले काफी छोटी है इसलिए भारत चाहकर भी इस क्षेत्र में आर्थिक दृष्टि से चीन का विकल्प नहीं बन सकता। लेकिन भारत की एक्ट ईस्ट नीति के तहत ‘3सी’ (कामर्स, कल्चर एवं कनेक्टिविटी) पर व्यापक प्रगति हुयी है। संभावना यह है कि आने वाले समय में इसके और अच्छे परिणाम दिखेंगे।
प्रधानमंत्री ने एक अवसर पर कहा था कि आज सिर्फ़ पड़ोसी वही नहीं हैं जिनसे हमारी भौगोलिक सीमाएं मिलती हैं बल्कि वो भी हैं जिनसे दिल मिलता है। इसमें हम दक्षिण एशिया से आगे बढ़कर पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ एक संवेदनशील कनेक्ट स्थापित होते देख रहे हैं। मध्य-पूर्व फिलहाल इस समय उस प्रकार की भू-राजनीतिक सक्रियता का केन्द्र नहीं है जैसा कि पिछले दो दशकों में देखा गया है। इसकी दो वजहे हैं। पहली यह कि कोविड 19 महामारी ने उन शक्तियों को फिलहाल कई कदम पीछे धकेल दिया है जो इस क्षेत्र में अपनी महान चालों (ग्रेट गेम्स) में उलझाए रखती थीं। अब वे स्वयं रणनीति के बजाय अर्थनीति पर काम करने के लिए विवश हैं। दूसरी – इस क्षेत्र के कुछ देश आर्थिक पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। ऐसे में उन्हें उन देशों के सहयोग की जरूरत है जो वैज्ञानिक, अन्वेषी और नवोन्मेषी हैं। भारत इस मामले में काफी आगे है। इसलिए भारत के साथ इस क्षेत्र के सम्बंध काफी बेहतर हुए हैं। पिछले सात वर्षों में इस क्षेत्र के साथ भारत ने व्यापक भागीदारी वाले रिश्ते कायम किए हैं। उल्लेखनीय है कि भारत की व्यापार और ऊर्जा सुरक्षा होरमुज जलसंधि और बाव-एल-मंडेब खाड़ी की सुरक्षा से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुयी है। भारतीय नौसेना ने कई खाड़ी देशों के साथ नौसैनिक अभ्यासों में हिस्सा लिया है, जिनमें कुवैत, यमन, बहरीन, सऊदी अरब, कतर, यूएई तथा जिबूती प्रमुख हैं। इस दौर में भारत-सऊदी अरब रिश्ते काफी ऊंचाई पर पहुंचे जिसमें प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत कूटनीति की अहम भूमिका रही। 2022 में भी भारत का प्रभाव बढ़ेगा, कम नहीं होगा। हां, कट्टरपंथ और आतंकवाद का केन्द्र इस समय अफगानिस्तान बन चुका है, उसे देखना होगा और पाकिस्तान को अलग-थलग रखने की रणनीति को और पैना बनाने की जरूरत होगी।
रही बात यूरोप की, तो वह इस समय ऐतिहासिक संक्रमण और आंतरिक विसंगतियों से गुजरता हुआ दिख रहा है। न केवल ब्रेक्जिट के चलते बल्कि रिफ्यूजी समस्या, आर्थिक असंतुलन, अनिश्चिता और आदर्शवाद बनाम राष्ट्रवाद के विरोधाभासी टकरावों के साथ-साथ इस्लामी आतंकवाद की बढ़ती चुनौतियों से गुजर रहा है। एक तरफ यूरो क्षेत्र ‘मरकोजीवाद’ (एंजेला मर्केल एवं सरकोजी की इकोनॉमिक थ्योरी) के मायाजाल से बाहर निकलकर हांफ रहा है तो दूसरी तरफ कई तरह की लीकेज का शिकार दिख रहा है। यही नहीं ब्रेक्जिट ने यह बता दिया कि अब यूरोपीय संघ की एकता जिसे आप्टिमम यूनिटी कहा गया था, कृत्रिम थी और थोपी हुयी थी। ऐसे में यूरोप 2022 में वैश्विक कूटनीति में कोई खास भूमिका नहीं निभा पाएगा। इसलिए भारत को भी उसके साथ औपचारिक रहकर आगे बढ़ने की जरूरत होगी। हां यह संभावना है कि ब्रिटेन के साथ ‘अपराजेय संयोजन’ (अनबीटेबल कॉम्बीनेशन, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत-ब्रिटेन सम्बंधों को लेकर कहा था) को मजबूत करने के साथ-साथ फ्रांस के साथ अन्योन्याश्रिता (रेसीप्रोसिटी) आधारित सम्बंधों को और ताकत मिले, विशेषकर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में।
यह संभावना अवश्य है कि अमेरिका के वार इन्ड्यूरिंग फ्रीडम के उपउत्पाद के रूप में जो अफगानिस्तान हम देख रहे हैं, वह भारत को सीधी न सही पर किसी न किसी प्रकार की बड़ी समस्या पैदा कर सकता है। अफगानिस्तान के लोग पराश्रित जीवन जी रहे हैं जिन्हें अनगिनत संकटों का सामना करना पड़ रहा है लेकिन फिर भी तालिबान शक्ति और लेजिटीमेसी प्राप्त करता जा रहा है। यह चिंता का विषय है। दूसरी तरह पाकिस्तान कट्टरता के जिस दौर से गुजर रहा है उसकी दुर्गंध पूरे दक्षिण एशिया को प्रभावित कर सकती है।
कुल मिलाकर, दुनिया जिस तेजी से अनिश्चिता के साथ बदलाव से गुजर रही है। संभव है कि ऐसे में भारत के समक्ष तमाम दृश्य अथवा अदृश्य चुनौतियां आएं। लेकिन उन सबका मुकाबला करते हुए भारत दुनिया को यह बताने में समर्थ साबित होगा कि वह एक बड़ी ताकत है और महाशक्ति बनने की प्रक्रिया में है। वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की प्राथमिकताओं को परिभाषित करने की योग्यता व क्षमता रखता ही नहीं रखता बल्कि उन्हें नेतृत्व देने का कौशल भी रखता है।
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