वर्तमान वैश्विक परिदृश्य बहुत से निश्चित-अनिश्चित भू-रणनीतिक तनावों से गुजरता हुआ दिख रहा है। कार्नवाल (जी7) से रोम (जी20) और ग्लासगो (कॉप26) तक के पिछले कुछ दिनों के वैश्विक कूटनीतिक सफर में बहुत सी ऐसी विभाजक रेखाएं खिंची या गहरी हुयीं, इन तनावों की पुष्टि भी कर रही हैं। इन तनावों के बीच जब रोम और ग्लासगो में चीन तथा रूस की अनुपस्थिति और भारत की उपस्थिति तथा मंचों से इतर कूटनीतिक सक्रियता क्या दुनिया को एक नया संदेश देती हुयी दिख रही है?
दरअसल इस समय दुनिया एक नई विश्वव्यवस्था की ओर बढ़ रही है और तमाम अध्ययन यह बताते रहे हैं कि नई विश्वव्यस्था का नेतृत्व एशिया के हाथों में होगा। लेकिन एशिया इसका नेतृत्व किस प्रकार करेगी, यह अभी तय नहीं है। कई पूर्वानुमान चीन की तरफ इशारा करते रहे हैं तो कई संयुक्त नेतृत्व की तरफ जिसमें भारत निर्णायक भूमिका में रहेगा। लेकिन इस समय जो एक विभाजन दिख रहा है, वह कुछ भिन्न संकेत दे रहा है। हालांकि इन संकेतों का अभी डिकोड होना बाकी है। इस दिशा में आगे बढते हुए सबसे पहले रोम और ग्लासगो के मंचों पर शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन अनुपस्थिति के आयाम तलाशने की जरूरत होगी। क्या इन दोनों नेताओं की अनुपस्थिति को एक सामान्य बात कहकर पटाक्षेप किया जा सकता है। या फिर यह माना जाए कि मॉस्को और बीजिंग किसी नई धुरी (मॉस्को-बीजिंग एक्सिस) का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यदि ऐसा है तो इसके लिए उचित क्या कारण माना जाए? यह कि चीन और रूस संयुक्त रूप से नई विश्वव्यवस्था में एक भिन्न भूमिका में दिखना चाहते हैं। या पश्चिमी दुनिया इन्हें अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहती इसलिए ये अलग-थलग पड़ रहे हैं। फिलहाल इन दोनों ही स्थितियों में दुनिया एक नए विभाजन की ओर बढ़ेगी, ठीक उसी तरह से जैसी कि पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के समय दिखी थी या फिर शीतयुद्ध काल में बढ़ी थी। इसकी एक झलक तो काबुल पर तालिबान विजय और उस पर मॉस्को-बीजिंग या मॉस्को-बीजिंग-इस्लामाबाद के प्रभाव के रूप में देखी भी जा चुकी है। यदि ऐसा है तो इन विभाजनों को पाटने या बीजिंग-मॉस्को एक्सिस (संभावित) को काउंटर करने के लिए रणनीति क्या होगी और उसका नेतृत्व कौन करेगा, यह अहम प्रश्न है। यह प्रश्न भी इसलिए क्योंकि भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रंास, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे वाइब्रेंट डेमोक्रेसी वाले देश भी समान रणनीतिक उद्देश्यों के बावजूद कई जगहों पर एकजुटता प्रदर्शित करते हुए नहीं दिख पा रहे हैं। क्वाड के बावजूद ऑकस का निर्माण और इसके बाद फ्रांस-ऑस्ट्रेलिया के रिश्तों में पड़ी दरार, इसका प्रमाण है।
कोविड 19 के बीते लम्बे दौर में वैश्विक कूटनीति कुछ संयोजनों लेकिन तमाम आंतरिक विभाजनों और असहयोगों से गुजरी। हालांकि अभी भी यह प्रक्रिया थोड़े से ठहरावों के साथ-साथ जारी है। इस कालखण्ड में विशेष बात यह दिखी कि अमेरिका और यूरोप के अधिकांश देश वैश्विक सहयोग की बजाय आंतरिक संघर्ष से गुजरे। जिसने यह बता दिया कि फिलहाल नई विश्वव्यवस्था इनके नेतृत्व में रहने वाली नहीं है। शेष कमियां उनकी अर्थव्यवस्थाओं आ रही मंदी और बाजार की अनिश्चिताएं पूरी कर दे रही हैं। लेकिन कोविड 19 की वुहान वायरस थ्योरी के बाद चीन कुछ समय के लिए विश्वसनीयता के बढ़ते संकट से गुजरने के बावजूद यूरोप की अर्थव्यवस्था और कूटनीति की तंग होती गलियों में भी अपने लिए एक व्यापक स्पेस निर्मित करने में सफल हो गया। जबकि अमेरिका को स्वर्णिम युग की ओर ले जाने और ‘अमेरिका अमेरिकियों के लिए’ सपना लेकर आगे चलने वाले तथा चीन का डंके की चोब पर चीन का विरोध करने वाले डोनल्ड ट्रंप लोकतंत्र की सिकुड़ती हुयी अमेरिकी गलियों में अपना वजूद गवां बैठे। यह किसी सामान्य अंकगणित या बीजगणित के कारण नहीं हुआ बल्कि इसके कुछ धुंधले पक्ष हैं जिनके सिरे बीजिंग तक जाते हैं। वास्तव में इस गणित को समझे बिना नई विश्वव्यवस्था की प्रकृति और ग्लोबल लीडरशिप सम्बंधी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता।
भले ही तर्क दिया जा रहा हो कि ट्रंप रेजीम की अनिश्चित और दिशाहीन विदेश नीति इसके लिए जिम्मेदार रही। लेकिन सच तो यह है कि राष्ट्रपति जो बाइडेन भी उस अनिश्चितता से अमेरिका को बाहर लाने में असमर्थ दिख रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो फिर हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में मजबूत होते क्वाड से अधिक ताकतवर ऑकस को लाने (वह भी क्वाड की सहमति के बिना) की पहल न करते। यानि अभी तक तो बाइडेन रेजीम भी विश्वसनीय अविश्सनीयता अथवा अविश्वसनीय विश्वसनीयता के साथ ही आगे बढ़ती दिख रही है। ऐसे में भारत अगर रोम और ग्लासगो से यूरोप के कूटनीति राजमार्गों पर एक नयी ऊर्जा के साथ वैश्विक शांति और भारत को रणनीतिक मजबूती प्रदान करने वाली सक्रियता के साथ दिख रहा है तो यह भारत की विदेश नीति के लिए एक मूल्यवान उपलब्धि भी है और दुनिया को एक सकारात्मक संदेश देने की युक्ति भी।
ध्यान रहे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल ही में जी20 और कॉप26 शिखर सम्मेलनों की दृष्टि से सम्पन्न हुयी रोम और ग्लासगो की यात्रा कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण लगी। हम इन मंचों के सैद्धांतिक विमर्शों को यदि थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपने समकक्षी नेताओं से हुयी मुलाकातें द्विपक्षीय व बहुपक्षीय सम्बंधों की लिहाज से अहम मानी जा सकती हैं। यह भी देखना होगा कि भारत की यह सक्रियता विशेषकर चीन और रूस की अनुपस्थिति को देखते हुए कूटनीतिक लाभांश (डिप्लोमैटिक डिवीडेंड) सुनिश्चित करने वाली है अथवा नहीं। वैसे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी ने जिन नेताओं से मुलाकात की उनमें पोप से लेकर नेपाल के प्रधानमंत्री तक शामिल हैं जिनके निहितार्थ तो हैं, संभाव्यता (पोटैंशियल) कितनी है यह भविष्य पर निर्भर करेगा जब इन नेताओं की भारत यात्रा सम्पन्न होगी और उन यात्राओं के साथ कुछ द्विपक्षीय समझौते या संधियां हस्ताक्षरित होंगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया के कुछ नेताओं के साथ अपने ट्विटर हैंडल पर कुछ तस्वीरें साझा की थीं। ये तस्वीरें कुछ तो बयां करती हैं, फिर वे चाहे ये तस्वीरें जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के साथ हों या ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन अथवा इजरायल के नए प्रधानमंत्री नफ्थाली बेनेट के साथ…। स्कॉट मॉरिसन के साथ प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर जहां खुशनुमा कूटनीति (चार्मिंग डिप्लोमैसी) की ओर इशारा करती है वहीं बोरिस जॉनसन के साथ एक अलग केमिस्ट्री का संदेश देते हुए। स्पेनिश प्रधानमंत्री के साथ प्रधानमंत्री ‘विकास के लिए कूटनीति’ (डिप्लोमैसी फॉर डिवेलपमेंट) की मुद्रा में दिखे तो इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो के साथ रणनीतिक अथवा सामरिक कूटनीति (स्ट्रैटेजिक डिप्लोमैसी) की मुद्रा में ……। इन सबसे अलग प्रधानमंत्री मोदी की फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ मुलाकात लगी क्योंकि फ्रांस के साथ भारत के कम्पैटिबिलिटी वाले सम्बंध हैं और दोनो देश समग्रता की कूटनीति (कॉम्प्रीहेंसिव डिप्लोमैसी) के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। ध्यान रहे कि ऑकस के गठन और फ्रांस-ऑस्ट्रेलिया परमाणु पनडुब्बी डील निरस्त होने पर फ्रांसीसी विदेश मंत्री लॉ ड्रियां ने एक बयान में कहा था कि -‘‘यह क्रूर है, एक तरफा है और अप्रत्याशित है। यह फैसला मुझे उसी सब की याद दिलाता है जो ट्रंप किया करते थे।’’ यह बयान सामान्य नहीं था बल्कि बता रहा था कि इंडो-पैसिफिक में बन रहे गठबंधन की बुनियाद शांति की बजाय प्रतिस्पर्धा पर रखी गयी है। कारण यह कि इस गठबंधन की वजह से फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के मध्य परमाणु पनडुबी निर्मित करने के उद्देश्य से 2016 में हुआ समझौता रद्द हो गया था। यह तब हुआ जब पिछले कुछ समय से फ्रांस का हिन्द-प्रशांत में एक्सेस बढ़ रहा था और यह भी संभावना जतायी जा रही थी कि जल्द ही क्वाड एक नए आकार यानि ‘न्यू क्वॉड’ या ‘क्वाड प्लस वन’ के रूप में सामने आएगा। लेकिन बाइडेन रेजीम का यह फैसला फ्रांस से टकराव के एक ऐसे अध्याय की शुरूआत करता हुआ दिखा जिसमें बहुत सी छुपी और मुक्त रणनीतियां हो सकती हैं और मोटे तौर पर चीन-रूस के गठबंधन में तीसरी शक्ति फ्रांस के लिए एक अवसर प्रदान करती हैं।
इजरायल के प्रधानमंत्री और इंडोनेशिया के जोको विडोडो से प्रधानमंत्री की मुलाकात भारत की मध्य-पूर्व और हिन्द-प्रशांत रणनीति की महत्वपूर्ण कड़ी मानी जा सकती है। लेकिन इन कूटनीतिक गतिविधियों के बीच प्रधानमंत्री की वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस से मुलाकात और 20 मिनट के पूर्वनिर्धारित समय होने के बावजूद एक घंटे की गहन चर्चा के वैश्विक कूटिनीति में कुछ गहरे मायने हैं। ध्यान रहे कि पोप फ्रांसिस और उनसे पहले पोप रहे बेनेडिक्ट 16 यूरोप के देशों और ईसाई दुनिया को निरंतर सचेत करते रहे हैं कि वे जिस यूरोप का निर्माण रहे हैं या उसे जिस दिशा में ले जा रहे हैं वह सही नहीं है। दोनों ने ही कई बार चेतावनी दी है कि यदि ये देश नहीं चेते तो उसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे। इन चेतावनियों के बीच शार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हमला, डेनमार्क की घटना अथवा पेरिस पर लोन वुल्फ अटैक …..आदि के रूप में कुछ उसी तरह के परिणाम भी दिखे हैं। भारत भी इन खतरों को लेकर सचेत है और दुनिया को लगातार इनसे सचेत भी कर रहा है। शायद वेटिकन सिटी इसी वजह से भारत के करीब आता भी दिख रहा है। अब देखने वाली बात यह है कि नई दिल्ली-वेटिकन सिटी के बीच निर्मित हो रही इस निकटता को किस सीमा तक सभ्यताओं के संघर्ष (क्लैसेज ऑफ सिविलाइजेशन) का अनुपालन कर पाएगी? हालांकि ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिनकी पोप से मुलाकात हुयी है। वे इस क्रम में पांचवें हैं लेकिन दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद के बढ़ते खतरे को लेकर पोप ने जितनी तरजीह प्रधानमंत्री मोदी को दी है, उतनी संभवतः पहले किसी को नहीं दी। इसका कारण संभवतः यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए एक बड़ी रेखा खींचने की शुरूआत कर चुके हैं और यह पोप के मनोविज्ञान के अनुकूल है। पोप ऐसी ही अपेक्षा यूरोपीय देशों से भी रखते हैं। चूंकि भारत इस लड़ाई को अकेले नहीं लड़ सकता इसलिए भारत को भी अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस सहित अन्य यूरोपीय देशों का सहयोग चाहिए। यह सहयोग तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब काबुल पर तालिबान के रूप में आतंकवाद की विजय के साथ मध्यकालीन व्यवस्था की शुरूआत होती हे और मॉस्को, बीजिंग व इस्लामाबाद उसका समर्थन करते हुए और उस शासन को विधिसम्मत (लेजिटीमाइज्ड) करार देते हुए नजर आते हैं।
बहरहाल संक्रमण से गुजरती विश्वव्यवस्था और वैश्विक शक्तियों की विदेश नीति में दिख रही अनिश्चिता के बीच भारत की वैश्विक मंचों पर भारत की सक्रियता भारत की महत्ता को दर्शाती है। लेकिन अभी चुनौतियां काफी हैं। भारत को यह कोशिश करनी होगी कि भारत अमेरिका और यूरोप के ही नहीं बल्कि रूस के साथ अपने परम्परागत सम्बंधों को मजबूत करे और मॉस्को-बीजिंग-इस्लामाबाद ट्रैंगल को रणनीतिक रूप लेने से हर हाल में रोके।
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