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यूएन कांगो आपरेशन में कैप्‍टन गुरबचन ने उड़ाए विद्रोहियों के होश

कर्नल शिवदान सिंह
सोम, 27 दिसम्बर 2021   |   7 मिनट में पढ़ें

 भारतीय वीरों की शौर्य गाथा देश की सीमाओं के बाहर भी सम्‍मान से सुनी और सुनाई जाती हैं। आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत में भारतीय वीरों ने जिन-जिन देशों में अंग्रेजी सेना का हिस्‍सा बन कर लड़े वहां फतह हासिल कर लौटे। आजादी के बाद भी पाकिस्‍तान और चीन के साथ हुए युद्ध में ऐसी शौर्य गाथाओं की लंबी फेहरिस्‍त है। ऐसी ही शौर्य गाथा कैप्‍टन गुरबचन सिंह सलारिया की है जिन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र के अंतरराष्‍ट्रीय मिशन में कांगो में अपनी वीरता से विद्रोहियों को मार गिराया। दुनिया भर की सेनाओं के साथ हुए कई आपरेशनों में से एक आपरेशन ‘अनकोट’ था जिसमें विद्रोहियों के बिछाए जाल को तोड़ने के लिए कैप्‍टप सलारिया ने की योजना से बुने जाल में विद्रोही पस्‍त हो गए। इस आपरेशन में शहादत को गले लगाने वाले कैप्‍टन गुरबचन सिंह सलारिया ने विदेशी मातृभूमि की रक्षा भी अपनी मातृभूमि की ही तरह की जिससे भारतीय सेना और भारत की आन, बान और शान पर कोई आंच न आए पाए।

कांगो, पहले जयर औेर अब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ द कांगो के नाम से जाना जाता है। जिस तरह भारत का उप-निवेश था, उसी प्रकार मध्‍य अफ्रीका में स्थित बेल्यिन कांगो बेल्जियम का एक उप-निवेश था। 30 जून 1960 में कांगो बेल्जियम की दासता से मुक्त होकर एक गणतंत्र के रूप में स्थापित हुआ। परंतु जुलाई के प्रथम सप्ताह में ही कांगो की सेना में विद्रोह हो गया और गोरे और काले सैनिकों में हिंसा फैल गई। बेल्जियम ने अपनी सेना गोरों की मदद के लिए भेजी और इनकी मदद से गोरों ने कटंगा और दक्षिण कासई क्षेत्रों को कांगो से अलग कर एक नया देश बनाने की कोशिश की। इसमें भी बेल्जियम ने इनकी मदद की। इसके बाद आंतरिक विद्रोह चलता रहा और इस विद्रोह को शांत करने में असफल रहने के बाद कांगो सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ से इस विद्रोह को शांत करने के लिए मदद मांगी। इसको स्वीकार करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 14 जुलाई 1960 को कांगो को सहायता देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ शांति मिशन कांगो में स्थापित की। शुरू में इस मिशन ने कांगो में विद्रोहियों और सरकार के बीच में बातचीत से शांति स्थापित करने की कोशिश की। परंतु जब इसमें वह सफल नहीं हुए तब संयुक्त राष्ट्र संघ ने कांगो में सैनिक सहायता करने के लिए 169 प्रस्ताव पास किया। जिसके अंतर्गत कांगो में एक बहुराष्ट्रीय सेना भेजने का प्रावधान था और इस प्रस्ताव में कटंगा और कसाई के अलग होने की भी आलोचना की गई थी। इस प्रस्ताव के बाद 24 नवंबर 1960 को एक बहुराष्ट्रीय सेना भेजने का निर्णय संयुक्त राष्ट्र ने लिया। संयुक्‍त राष्‍ट्र का कांगो आपरेशन जुलाई 1960 से जून 1964 तक चला।

कांगो में संयुक्त राष्ट्र संघ का सैनिक अभियान

संयुक्त राष्ट्र ने इस मिशन के लिए कई देशों से एकत्र करके एक बड़ी सेना कांगो भेजी। संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन की निगरानी के लिए एक केंद्र भी स्थापित किया। भारत ने भी मार्च से जून 1961 के बीच 9 इन्‍फैंट्री ब्रिगेड को ब्रिगेडियर के एस राजा की कमांड में कांगो भेजा। इसमें 3000 सैनिक थे। कांगो सरकार और कटंगा विद्रोहियों में समझौता फेल होने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के सैनिक मिशन ने अपनी कार्रवाई शुरू की। इसके फौरन बाद इसके जवाब में कटंगा के जंदर्म जनजाति के विद्रोहियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के दो वरिष्ठ अफसरों को कब्जे में ले लिया। कुछ समय बाद इनको तो छोड़ दिया परंतु भारतीय सेना के 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को उनके ड्राइवर के साथ पकड़ लिया। जिनको बाद में तरह-तरह की यातनाएं देकर उनकी हत्या कर दी।

इसको देखते हुए पूरे कटंगा क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ की सैनिक टुकड़ियां जगह-जगह तैनात कर दी गई जिन्‍होंने पूरे कटंगा और कसाई क्षेत्रों पर नियंत्रण किया। इसके उत्तर में इन सैनिक टुकड़ियों के बीच संचार और यातायात का संबंध तोड़ने के लिए कटंगा के विद्रोहियों ने जगह जगह सड़कों पर अवरोध लगाने शुरू कर दिए। जिससे इन सैनिक टुकड़ियों में कोई मेल मिलाप न हो सके और न ही इनको रसद और गोला बारूद पहुंच सके। इस प्रकार इन सैनिक टुकड़ियों के अलग-अलग होने पर कटंगा विद्रोही इनको एक-एक कर समाप्त करना चाह रहे थे।

इसी क्रम में 4 दिसंबर 1961 को कटंगा क्षेत्र के प्रमुख शहर एलीवेटम को उसके हवाई अड्डे से काटने के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सड़क के मोड़ पर एक अवरोध विद्रोहियों द्वारा लगाया गया। संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं ने इस बड़े अवरोध को हटाने के लिए सैनिक ऑपरेशन ‘अनकोट’ की घोषणा की जिसके द्वारा इस क्षेत्र में अपनी सैनिक टुकड़ियों की सुरक्षा के साथ-साथ घूमने फिरने की सुरक्षा संयुक्त राष्ट्र के सैनिकों को मिल सके।

कैप्टन गुरचरण सिंह सलारिया हमले के पहले दिया जीत का संदेश

5 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना की 3/1 गोरखा बटालियन को कटंगा विद्रोहियों के द्वारा लगाया गए सड़क अवरोध को सैनिक ऑपरेशन ‘अनकोट’ के अंतर्गत भेजा गया। इस अवरोध में कटंगा के 150 विद्रोही थे और इनके साथ दो आर्मड प्रोटेक्टेड गाड़ियां जिन्हें सैनिक भाषा में एपीसी के नाम से बुलाया जाता है। 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कंपनी को मेजर गोविंद शर्मा की कमांड में इस अवरोध को हटाने का काम दिया गया। इसके साथ अल्फा कंपनी की एक प्लाटून जिसको कैप्टन सलारिया कमान कर रहे थे, उसको इस कंपनी के रिजर्व के रूप में भेजा गया। इस प्लाटून को इस प्रकार तैनात किया गया कि भागने वाले विद्रोहियों को यह प्लाटून घेरकर समाप्त कर सके जिसके द्वारा कोई विद्रोही बचकर न भाग सके। कैप्टन सलारिया अपने नियत स्थान पर एक एपीसी के साथ पहुंच गए जो सड़क के अवरोध से केवल 1500 गज की दूरी पर था। इस प्लाटून की रॉकेट लॉन्चर टीम इस स्‍थान के बहुत नजदीक पहुंच गई जहां से वह विद्रोहियों की एपीसी को बर्बाद कर सके। इस टीम ने वहां पहुंचते ही विद्रोहियों की एपीसी को बर्बाद करना शुरू कर दिया और बिजली की गति से दोनों एपीसी में आग लगा दी। जिसको देखकर अवरोध लगाने वाले विद्रोही हक्के बक्के रह गए। क्योंकि यह हमला उन पर उस दिशा से हुआ था जिसकी वह कल्पना नहीं कर रहे थे और सोच रहे थे कि इस युद्ध में यदि वह असफल होते हैं तो इस दिशा से भाग निकलेंगे। विद्रोहियों की इस दशा को देखते हुए कैप्टन सलारिया ने अपने सैनिकों के साथ इन पर धावा बोलने का निश्चय किया। कैप्टन सलारिया के पास केवल 40 सैनिक थे और विद्रोहीयों की संख्या उनसे कहीं अधिक थी। इतनी कम संख्या में होते हुए भी सलारिया ने अपना हमला करने से पहले अपने रेडियो सेट पर अपने साथी अफसर को रेडियो पर संदेश दिया कि मैं हमले में जा रहा हूं और मैं जरूर विजई बनूंगा। यह उनके दृढ़ निश्चय को दर्शाने वाला संदेश था।

अपेक्षा के विपरीत हमला कर मारे विद्रोही

कम संख्या में होते हुए भी सलारिया और उनके साथियों ने ‘जय महाकाली आयो गोरखाली’ युद्ध घोष के साथ धावा बोल दिया। इस धावे में गोरखा सैनिकों ने अपनी राइफल की संगीनों और गोरखा खुखरी का प्रयोग किया जिससे उन्होंने इन विद्रोहियों के साथ आमने-सामने का युद्ध करते हुए इनको संगीनों और खुखरी से मौत के घाट उतारा। जिसमें 40 विद्रोही वहीं पर मारे गए। इस हमले में सिलारिया को 2 गोलियां लगी जिनके घावों से बहुत खून बह गया जिसके कारण कैप्टन सलारिया को बेहोशी आ गई और वह वहीं पर गिर गए। उनके साथी अफसर ने उन्हें मेडिकल सहायता के लिए अस्पताल पहुंचाने की कोशिश की परंतु इस प्रयास से कैप्टन सलारिया को नहीं बचाया जा सका और वह वीरगति को प्राप्त हो गए।

इस प्रकार अचानक कैप्टन सलारिया के धावे के द्वारा असंभव दिखने वाले इस सड़क अवरोध को सफलतापूर्वक हटा दिया गया और इसके बाद उस क्षेत्र में आवागमन सुचारू रूप से दोबारा चालू हुआ। इस प्रकार कैप्टन सलारिया ने पूरे विश्व को यह दिखा दिया कि भारतीय सेना को जहां भी कोई जिम्मेदारी वह इसको पूरी लगन और जिम्मेदारी से उसी प्रकार से निभाती है जैसे वह अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए करती है।

विदेशी धरती पर पूरे विश्व को अपने शौर्य का लोहा मनवाने वाले कैप्टन सलारिया को भारत सरकार ने मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया। संयुक्त राष्ट्र संघ शांति मिशन के अंतर्गत अभी तक परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले कैप्टन सलारिया एक मात्र सैनिक है।

सैनिक बननने की लगन ने बनाया भारतीय सैनिक

कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का जन्म 29 नवंबर 1935 को शकरगढ़ पंजाब के जामवाल गांव में एक सैनिक परिवार में हुआ था। अब यह गांव पाकिस्तान के पंजाब का हिस्सा है। बंटवारे के समय इनका परिवार भारत आया और पंजाब में गुरदासपुर जिले के झंगलगांव में बस गया। शुरू में उन्हें शिक्षा के लिए गांव के स्कूल में दाखिल कराया गया। शिक्षा में उनका कोई रुझान नहीं था और वह सारे दिन गांव के बच्चों के साथ कबड्डी खेलते रहते थे। वह शुरू से ही एक सैनिक बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने 1940 किंग जॉर्ज रॉयल मिलिट्री स्कूल में दाखिले के लिए परीक्षा दी। लिखित परीक्षा में वह उत्तीर्ण हो गए, परंतु मेडिकल परीक्षा में उन्हें छाती कम चौड़ी होने के कारण दाखिले के लिए मना कर दिया गया। परंतु अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने कुछ ही हफ्तों में कसरत करके अपनी छाती को बढ़ाया। इसके बाद अगस्त 1940 में ही उनका दाखिला मिलिट्री स्कूल में हो गया। जहां से वह एनडीए में भर्ती हुए और उसके बाद आईएमए से 1957 में कमीशन प्राप्त कर सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर सेना की एक गोरखा राइफल्स बटालियन में तैनात किए गया। यहां से बाद में वह 3/1 गोरखा राइफल्स बटालियन में भेजे गए। कैप्टन सलारिया बचपन से ही जोशीले और राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत थे और अपनी लगन के पक्के थे। जिसके कारण वह मिलिट्री स्कूल में शिक्षा ले सके और बाद में सेना में सेवा का उनका सपना पूरा हो सका। अपने दृढ़ निश्चय और लगन के कारण ही उन्होंने कांगो में विद्रोहियों से लोहा लिया और उन्हें परास्त किया।

वर्ष 2019 में कैैप्‍टन गुरबचन सिंह सलारिया के भाई का स्‍स्‍वास्‍थ्‍य हाल जानने घर पहुंचे थे जनरल बिपिन रावत।

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नोट : मुख्‍य तस्‍वीर में कांगों से 3/1 गोरखा राइफल्‍स की वापसी के दौरान कैप्‍टन गुरबचन सिंह सलारिया के चित्र पर श्रद्धांजलि अर्पित करते यूएसएस जनरल आरएम ब्‍लाचफोर्ड व अन्‍य। सौ एनसीईआरटी वीर गाथा, अन्‍य तस्‍वीरें एडीजीपीआई सोशल मीडिया।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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POST COMMENTS (1)

Poonam Dave

दिसम्बर 28, 2021
Thank you Lt Col Shivdan Singh Sir and CF team. Please do keep sharing more of such inspiring articles on our Real Heroes 🇮🇳.

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