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Geopolitics & National Security
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आर्थिक संकट छिपाने को सरहदों पर फुफकारता ड्रैगन

डॉ. रहीस सिंह
शनि, 30 अक्टूबर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

इन दिनों चीन एक बड़े आर्थिक संकट की तरफ जाता दिख रहा है। 2020 में कोविड 19 के वुहान कनेक्शन के बाद चीन कुछ समय के लिए विश्वसनीयता के संकट से गुजरा। हालांकि वह पूरी तरह से अभी भी इससे मुक्त नहीं हो पाया है लेकिन अब वह एक ऐसे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता नजर आ रहा है जिसके परिणाम भू-रणनीतिक क्षेत्र में भी दिख सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो संभव है कि चीन आर्थिक संकट से उपजने वाली आंतरिक चुनौतियों को अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की ओर धकेलने का काम करे अर्थात वह अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर अपनी आक्रामकता को बढ़ाए और युद्धोन्मादी वातावरण निर्मित करे?

बैक फ्लैश में जाएं तो विश्व इतिहास में आर्थिक संकट और युद्ध के बीच एक सम्बंध दिखाई देगा। दरअसल युद्ध और आर्थिक संकट के बीच एक सीधा कनेक्शन रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो आर्थिक संकट या तो युद्ध का कारण बना अथवा परिणाम या फिर दोनों ही। यह विषय यहां पर रखने का उद्देश्य यह है कि चीन इस समय एक बड़े आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है। चीनी रियल स्टेट कंपनी एवरग्रैंड इस समय कमोबेश उसी स्थिति में दिख रही है जिस स्थिति में वर्ष 2008 में अमेरिका की लीमैन ब्रदर्स थी। लीमैन ब्रदर्स का हस्र और उसका अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर असर तो सभी ने देखा है। इस झटके ने वर्ष 2008 को तकनीकी तौर पर ‘ईयर ऑफ डिवाइड’ के रूप में प्रस्तुत किया क्योंकि इसके बाद ही ग्लोबल इकोनॉमी को डि-कपल घोषित किया गया और एक ध्रुवीय विश्व में चीन को एक दूसरे ध्रुव के रूप में पेश किया गया। अब अगर चीन की एवरग्रैंड उसी दशा को प्राप्त करती है और चीनी अर्थव्यवस्था को ठीक उसी तरह का झटका लगता है जैसा अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लगा था। तब क्या इतिहास फिर से कोई नई करवट लेगा? दरअसल एवरग्रैंड की अर्थव्यवस्था 2 ट्रिलियन युयान है और 280 शहरों में इसके प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं। इस दृष्टि से यदि एवरग्रैंड दिवालिया होती है तो चीन फाइनेंसियल डिस्ट्रेस से गुजरेगा। चूंकि अन्य रियल स्टेट कंपनियां भी इसी राह पर हैं, इसलिए संभव है कि आने वाले समय में इसका व्यापक असर डिमांड-सप्लाई चेन पर दिखे। पिछले कुछ समय से सप्लाई चेन को बनाए रखने वाली कंपनियां चीन से दूर जा रही हैं और भारत, बांग्लादेश, सिंगापुर में अपना भविष्य तलाश रही हैं। यह दिखाता है कि एक तो अभी भी चीन विश्वास के संकट से आंशिक रूप से ही सही, पर गुजर रहा है।

दूसरे 2020 में कोविड महामारी के बाद चीनी अर्थव्यवस्था की तस्वीर को जिस तरह से वैश्विक मीडिया ने प्रस्तुत किया था वह वास्तविक नहीं थी बल्कि मार्फ्ड (यानि अवास्तविक) थी? अगर दूसरा पक्ष सही है तब तो क्या आगे यह भी संभव है कि वैश्विक मीडिया जिस तरह से पहले वाशिंगटन और न्यूयॉर्क द्वारा तैयार की गयी पटकथा को आगे बढ़ा रहा था, अब बीजिंग और शंघाई में लिखी जाने वाली पटकथा को बढ़ाए। हालांकि अभी हम किसी निष्कर्ष पर तो नहीं पहुंच सकते लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। इसकी संभावनाएं इसलिए बनती दिख रही हैं क्योंकि शी जिनपिंग स्वयं को चीनी जनता के बीच डिवाइन लीडर के रूप में न केवल पेश कर रहे हैं बल्कि इसकी स्वीकार्यता भी चाहते हैं। वह इसे बचाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं लेकिन यदि चीनी अर्थव्यवस्था संकट की ओर बढ़ी तो उनके दैवीय राजत्व की दीवार दरक जाएगी। संभव है कि चीन इसे देखते हुए युद्ध जैसे उपाय चुनें। सवाल यह उठता है कि यदि चीन ऐसा करता है तो उसके निशाने पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा कौन होगा? संभवतः भारत।

पिछले काफी दिनों से भारत-चीन सम्बंध अनिश्चितता और अविश्वास के एक ऐतिहासिक संकट से गुजरते हुए दिख रहे हैं। कुछ समय पूर्व ही विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने गलवान में भारत-चीन तनाव को देखते हुए कहा था कि 1962 के संघर्ष के बाद यह ‘सबसे गंभीर’ संकट है। यह सच भी है। दरअसल चीन ने डोकलाम से गलवान तक जिस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया हुआ है उससे लगता है कि चीन भारत के साथ ‘स्टेट ऑफ डॉयलॉग’ से बाहर निकलकर ‘स्टेट ऑफ वॉर’ में या तो पहुंच चुका है या फिर पहुंचने वाला है। ऐसा नहीं है कि भारत चीन की प्रकृति को नहीं समझ पा रहे हैं लेकिन ऐसा अवश्य लगता है कि अभी कूटनीति के वे खांचे स्पष्ट नहीं हुए हैं जिनमें चीन को आवरणविहीन कर स्थापित किया जा सके। लेकिन हमारा अपना अध्ययन हमें यह कहने का आधार अवश्य देता है कि 18वीं सदी में फ्रांसीसी सम्राट नेपोलियन बोनापोर्टा ने जो कहा था, चीनी शासक उसी के अनुसार पटकथा तैयार कर रहे हैं। उसने कहा था कि महादानव चीन अभी सो रहा है, उसे सोने दो क्योंकि जब वह उठेगा तो दुनिया हिलने लगेगी। इसकी वजह भी है। चीन आज सिर्फ एक आर्थिक ताकत ही नहीं है बल्कि सैन्य ताकत भी है। इन्हीं दोनों शक्तियों के जरिए वह सुनियोजित तरीके से एशिया और अफ्रीका के अल्पविकसित देशों को थोड़ा-थोड़ा धन देकर न केवल उनके प्राकृतिक संसाधनों को अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जोड़ने में सफल हो रहा है बल्कि वह उनके पॉलिटिकल स्टैब्लिशमेंट में हस्तक्षेप करने की ताकत हासिल कर ले गया है। यही नहीं यदि शी जिनपिंग का ‘बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिव’ प्रोजेक्ट वास्तविक आकार ग्रहण कर ले गया तो संभव है कि विश्वव्यवस्था का केन्द्र पश्चिम से पूरब शिफ्ट हो जाए। यह स्थिति (यदि बनी तो) दुनिया का चरित्र बदल देगी, उसकी प्रकृति चाहे जैसी हो।

चीन कम से कम पिछले एक दशक से मल्टीट्रैक स्ट्रैटेजी पर आगे बढ़ता हुआ दिख रहा है। इसी स्ट्रैटेजी का एक घटक है हाल ही में बनी उसकी सीमा नीति। ध्यान रहे कि पिछले दिनों उसने ‘द लैंड बॉर्डर्स लॉ’ को मंजूरी दी है जिसके तहत चीन सरकार द्वारा 14 देशों से जुड़ी अपनी सीमा को लेकर कुछ नियम निर्धारित किए गये हैं जो 1 जनवरी 2022 से लागू हो जाएंगे। चीन का दावा है कि ये कानून उसकी सीमा की रक्षा के लिए मिलिट्री और सिविलियन की भूमिका को मजबूत करेगा। बॉर्डर से जुड़े क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ ही मिलिट्री डिफेंस भी मजबूत होगा। इस कानून के सीमावती क्षेत्रों में रह रहे लोग ‘फर्स्ट लाइन ऑफ डिफेंस’ के रूप में कार्य करेंगे। ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट बताती है कि चीन तिब्बत में सीमा से जुड़े क्षेत्रों में गांवों/कस्बों का निर्माण कर रहा है जो चीन की डिफेंस स्ट्रैटेजी का महत्वपूर्ण घटक बनेंगे। चीन इनका इस्तेमाल ‘वॉच पोस्ट’ के रूप में करेगा। इसका मतलब यह हुआ कि चीन दोहरी रक्षा दीवार निर्मित कर रहा है जिसके दो अर्थ हैं। पहला-चीनी नागरिकों को सैन्य प्रशिक्षण के अधीन लाना और दूसरा-नागरिकों के रूप में सैनिकों को बड़े पैमाने पर सीमा क्षेत्रों में बसाना।

वैसे तो यह चीनी कानून भारत, रूस, मंगोलिया, उत्तर कोरिया, वियतनाम, लाओस, म्यांमार, भूटान, नेपाल…..सहित 14 देशों को प्रभावित करेगा लेकिन चीन इसके जरिए असल में भारत पर निशाना साधना चाहता है, विशेषकर अरुणाचल प्रदेश को जिसे उसने इस कानून के तहत चीन का हिस्सा बताया है। इसके बाद उसका इरादा दक्षिण चीन सागर, विशेषकर ‘नाइन डैश लाइन’ पर अपने नियंत्रण को मजबूत करना होगा। इस कानून में नदियों और झीलों की स्थिरता को बनाए रखने के लिए भी प्रावधान किए गए हैं। माना जा रहा है कि ये प्रावधान भारत को देखते हुए कानून में शामिल किए गए हैं। ध्यान रहे कि ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल चीन के नियंत्रण में आने वाले ‘तिब्बत ऑटोनोमस रीजन’ में है। इस कानून के माध्यम से चीन नदी के पानी पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है या उसका प्रयोग अपनी सैन्य गतिविधियों के लिए कर सकता है।

ऐसा लगता है कि चीन अपनी महत्वाकांक्षाओं के मद्देनजर धीरे-धीरे लघु स्तरीय युद्ध की रणनीति (स्मॉल स्केल वॉर स्ट्रैटेजी) की तरफ बढ़ेगा। यह भी संभव है कि हांगकांग, मकाऊ, ताइवान को इसकी प्रयोगशाला के रूप में निर्मित करे। इसके कई कारण हो सकते हैं। एक यह कि भारत इस समय उभरती हुयी अर्थव्यवस्था तो है ही साथ ही भारत एक कांटीनेंटल पॉवर के रूप में अपनी पहचान बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। दूसरा- भारत ही ऐसा देश है जिसने उसके बीआरआई प्रोजेक्ट को औपनिवेशिक प्रकृति का करार देते हुए दूरी बनाये रखी। चीन को यह टीसता है। तीसरा- कोविड 19 के कारण पिछले दो वर्षों में उसके प्रति जो ग्लोबल ट्रस्ट डेफिसिट बढ़ा लेकिन भारत ने वैक्सीन मैत्री के जरिए कुछ हद तक अपने लिए स्पेस को बढ़ाने में सफलता अर्जित की। चौथा- पश्चिमी दुनिया विशेषकर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस …आदि वाइब्रैंट डेमोक्रेसी के आधार नए स्ट्रैटेजिक गठबंधनों की ओर बढ़ सकते हैं, बल्कि बढ़ रहे हैं। इस पर भारत खरा उतरता है ना की चीन। इसलिए भारत के साथ मिनिलैटरल या मल्टीलैटरल गठबंधनों की जितनी संभावनाएं बनेंगी उसी के संगत अनुपात में चीन के लिए चुनौतियां बढ़ेंगी। जाहिर सी बात है कि चीन भारत को ही अपने लिए सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण मानेगा। ऐसे में यदि चीन में आर्थिक संकट बढ़ा और शी जिनपिंग को डिवाइन लीडरशिप सम्बंधी सपने के दरकने का आभास हुआ तो संभव है कि वह इसे नेपथ्य की ओर धकेलने के लिए ‘लघु स्तर के युद्ध’ को विकल्प के रूप में चुन लें। पीएलए के थिंक टैंक, चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्ट्रेटिजिक स्टडीज द्वारा भारत को यह संदेश दिया जाना कि भारत स्थिति को समझने में वैसी गलती ना करे जो उसने 1962 में की थी, को भी इसी दृष्टि से देखना चाहिए। फिलहाल भारत को इस ‘चाइनीज कैरैक्टरिस्टिक्स एंड पैटर्न’ को समझना होगा।

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लेखक

डॉ. रहीस सिंह, एक्सपर्ट विदेश नीति एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध के लेखक हैं। लगभग 25 वर्षों से नियमित कॉलम लेखन एवं पत्रकारिता के साथ-साथ दिल्ली में सिविल सेवाओं से जुड़े प्रतिभागियों के बीच अध्यापन। इसके समानांतर इतिहास, वैश्विक सम्बंध, विदेश नीति आदि विषयों पर करीब दो दर्जन पुस्तकों का लेखन (जिन्हें पियर्सन, मैक ग्रॉ हिल, लेक्सिस नेक्सिस, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली आदि द्वारा प्रकाशित किया गया है।


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