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दुश्मन के गोले-शोले डिगा न सके मेजर राम के हौसले

कर्नल शिवदान सिंह
मंगल, 16 नवम्बर 2021   |   7 मिनट में पढ़ें

दादा-दादी और माता-पिता की जुबानी बचपन से वीरों की कहानियाँ सुनने वाले देश के सपूतों ने हर दौर में वीरता की नयी गाथाएँ लिखी हैं। जब-जब बात देश की आन, बान और शान की आई है तो भारत की माटी के किसी भी लाल के कदम जान हथेली पर लेकर आगे बढ़ाने से ठिठके नहीं। हजारों सालों से वीरता की उस परंपरा को आज भी देश के वीर सैनिक कायम रखे हुए हैं। ऐसी ही रोंगटे खड़े करने वाले वीरों की कुछ कहानियाँ हमें देश की आज़ादी के बाद पाकिस्तान से हुये युद्ध मे ही देखने को मिलती हैं जो आज भी भारतीय सेना और देशवाशियों के लिए मिशाल हैं। 1947-48 के भारतपाकिस्तान के प्रथम युद्ध में नौशेरा से राजौरी तक के मार्ग में पाकिस्तानी सेना द्वारा भारतीय सेना के रास्ते में बिछाए गए तरहतरह के अवरोधों को हटाने वाले वीर मेजर राम राघोबा राणे की शौर्य गाथा भी कुछ ऐसी ही है।

मार्च 1948 तक भारतीय सेना ने जम्मू से नौशेरा तक के क्षेत्र पर दोबारा कब्जा करके पाकिस्तानी हमलावरों को इस क्षेत्र से बाहर कर दिया था। इसके बाद सेना ने टैंकों की मदद से नौशेरा से आगे बढ़ने का निश्चय किया। इसके लिए सेना ने 4 डोगरा बटालियन को टैंकों की सहायता से आगे बढ़ने के लिए नियुक्त किया। इस बटालियन को रास्ते में आने वाले अवरोधों जैसे माइन और अन्य प्रकार के विस्फोटक को हटाने के लिए सेना की इंजीनियर सहायता के लिए लेफ्टिनेंट राणे, जो युद्ध के समय लेफ्टिनेंट के पद पर थे, को 37 इंजीनियर असोल्ट कंपनी की तरफ से एक सेक्शन, जिसमें 10 सैनिक होते हैं, के साथ भेजा। सेना में विशेष प्रकार के कार्यों, जैसे रास्ते से तरहतरह के अवरोधों को दूर करना तथा सेना के लिए पहाड़ी क्षेत्रों और रेगिस्तानी क्षेत्रों में मार्ग तैयार करने के लिए और दुश्मन को आगे बढ़ने से रोकने के लिए इसी प्रकार के अवरोधों को लगाने के लिए सेना में इंजीनियर शाखा होती है। उसी प्रकार संचार व्यवस्था के लिए सिग्नल कोर तथा अलगअलग तरह के विशेष कार्यों के लिए शाखाएं होती हैं। सेना के हर ब्रांच के सैनिक जहां अपना विशेष कार्य करते हैं, उसी के साथ यह सैनिक हर समय युद्ध के लिए भी तैयार रहते हैं।

साथी शहीद हुये, खुद जख्मी हुये, पर नहीं रुके हाथ

8 अप्रैल 1948 को 4 डोगरा बटालियन ने शीघ्रता से आगे बढ़ते हुए बरबाली नाम की पहाड़ी पर कब्जा कर लिया, जिस पर नौशेराराजौरी के मार्ग पर अवरोध पैदा करने के लिए पाकिस्तानियों ने कब्जा कर लिया था। उसके बाद इस बटालियन ने आगे बढ़ना शुरू किया। कुछ दूर आगे देखा कि हमलावरों ने सड़क पर 5 बड़ेबड़े चीड़ के पेड़ डाले हुए हैं, जिनके चारों तरफ माइन और अन्य विस्फोटक लगाए हुए हैं। इसको और भी दुर्गम बनाने के लिए इस अवरोध के चारों तरफ पहाड़ियों पर पाकिस्तानी हमलावर एमएमजी और मोर्टर फायर से इस अवरोध को साफ करने में मुश्किलें पैदा कर रहे थे। इस खतरे से निपटने के लिए लेफ्टिनेंट राणे ने एक टैंक में बैठकर आगे बढ़ने का निश्चय किया और वह इस अवरोध के पास पहुंचे। उन्होंने टैंक की आड़ में इन अवरोधों को साफ करना शुरू किया जिसमें इनके दो सैनिक, अंबाजी मोरे और रघुनाथ मोरे वीरगति को प्राप्त हो गए। अन्य दो साथी सीताराम सुतार और किशन आम्ब्रे बुरी तरह जख्मी हो गए और बाद में उन्हें भी शहादत मिली। लांस नायक एमके जाघव की रीढ़ मे गोली लगी जिससे वह हमेशा के लिए अपाहिज हो गए। मेजर राणे की भी जांघ में छर्रे लगे थे, जिसमें वो घायल हो गए। परंतु इसकी परवाह न करते हुए राणे अपने कार्य में लगे रहे और उन्होंने इस अवरोध को शीघ्र अति शीघ्र साफ किया। जिसके बाद यह बटालियन टैंकों के साथ आगे बढ़ने लगी। इसी तरह डोगरा बटालियन ने आसपास की पहाड़ियों में छुपे हमलावरों का भी सफाया किया।

गोलियों की बौछार में 17 घंटे हटाते रहे विस्फोटक

इस अवरोध के बाद भी टैंकों के आगे बढ़ने के लिए मुख्य मार्ग पर बहुत से पाकिस्तानी अवरोधों को साफ करने का कार्य शेष था। सबसे मुश्किल यह था कि इन अवरोधों को और भी जटिल बनाने के लिए पाकिस्तानी हमलावर  आसपास की पहाड़ियों से इनको हटाने वाले दलों पर फायर कर रहे थे। इन्फैन्ट्री के सैनिक तो पहाड़ी क्षेत्रों की पगडंडियों पर भी आगे बढ़ सकते हैं परंतु टैंकों को खुले रास्ते की आवश्यकता होती है। 8 अप्रैल को पूरे दिन और रात कार्य करके राणे ने आगे के क्षेत्र में पाकिस्तानियों के द्वारा बिछाए गए अवरोधों को दूर किया। इस प्रकार सेना 13 किलोमीटर तक और आगे बढ़ी। इसके बाद दोबारा एक पहाड़ी के मोड़ पर एक पुलिया को ब्लास्ट करके पाकिस्तानियों ने एक मुश्किल अवरोध पैदा कर रखा था। घायल अवस्था में भी राणे ने इस अवरोध को 17 घंटों तक हमलावरों की गोलीबारी की परवाह न करते हुए लगातार कार्य करके रींगस तक के मार्ग को सेना के लिए सुरक्षित बनाया। इस प्रकार भारतीय सेना पाकिस्तानी अवरोधों और पहाड़ियों पर छिपे हमलावरों को साफ करते हुए सुरक्षित नौशेरा पहुंच चुकी थी।

पहाड़ी क्षेत्रों के दुर्गम और मुश्किल रास्तों पर आगे बढ़ने में सेना की इस सफलता में लेफ्टिनेंट राणे ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। जिन्होंने हमलावरों के लगातार फायरिंग के बावजूद अपनी जान की परवाह न करते हुए मार्ग पर बिछाए हुए अवरोधों को दूर करके बढ़ते हुए सैनिकों और टैंकों के लिए रास्ता तैयार किया। जिससे सेना ने शीघ्र अति शीघ्र आगे बढ़कर पाकिस्तानी हमलावरों को इस क्षेत्र से बाहर किया। यदि इन हमलावरों को इन अवरोधों के कारण और समय मिल जाता तो हो सकता है दोबारा क्षेत्र पर कब्जा करना भारतीय सेना के लिए और भी मुश्किल बन सकता था। सेना के ऑपरेशन में समय और मौके का बहुत महत्व होता है। इससे प्रतीत होता है की देश की सुरक्षा में जितनी महत्वपूर्ण सेवा एक इन्फेंट्री का जवान दुश्मन से आमनेसामने के युद्ध में करता है, उतना ही महत्वपूर्ण कार्य सहायक विभागों के सैनिक जैसे इंजीनियर और सिग्नल के जवान भी समय पर अपने कार्य को पूरा करके करते हैं। इसको देखते हुए लेफ्टिनेंट राणे ने अपने महत्वपूर्ण योगदान के द्वारा इस पूरे क्षेत्र में सेना के आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त  करके किया।

जीत का मार्ग बनाया, बने देश के पहले जीवित पीवीसी

लेफ्टिनेंट राणे ने अपने साहस और शौर्य से जम्मू क्षेत्र के अखनूर नौशेरा तथा राजौरी के क्षेत्रों को पाकिस्तानी हमलावरों के द्वारा बिछाए गए तरहतरह के अवरोधों को हटाकर इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए मार्ग तैयार करके इस क्षेत्र को सुरक्षित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। मार्ग उपलब्ध होने के कारण भारतीय सेना ने इस क्षेत्र की विभिन्न पहाड़ियों पर छिपे पाकिस्तान के 500 हमलावर मार गिराए थे और बहुत से घायल हुए थे। इसके साथसाथ इस क्षेत्र में रहने वाले भारतीयों के जीवन की भी सुरक्षा हुई थी, क्योंकि यहां पर रहने वालों को आतंकित करने के लिए यह हमलावर इन पर फायरिंग करते रहते थे। इस प्रकार इस क्षेत्र के निवासियों को भी इन मार्गों के साफ होने से सुरक्षा मिली।

  भारत सरकार ने राणे की वीरता, साहस और घायल अवस्था में भी हमलावरों से सीमाओं की सुरक्षा के लिए योगदान देने के लिए उन्हें 1948 में भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया। उस समय राणे पहले भारतीय थे जिन्होंने जीवित रहते हुए इस सम्मान को प्राप्त किया।

12 में असहयोग आंदोलन, 22 में सैनिक

 मेजर राम राघोबा राणे का जन्म 26 जून 1918 में कर्नाटका के चेंदिया गांव में एक कोंकणी भाषा बोलने वाले मराठी परिवार में हुआ था। इनके पिता राज्य पुलिस में कॉन्स्टेबल के पद पर सेवारत थे। पिता की पुलिस की नौकरी के कारण इनकी शिक्षा राज्य के विभिन्न स्कूलों में अलगअलग जगह पर हुई। 1930 में महात्मा गांधी ने देश में असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया था। जिसमें केवल 12 साल की उम्र में ही उन्होंने भाग लेना शुरू कर दिया था। 22 साल की उम्र में राणे भारतीय सेना की मुंबई इंजीनियर ग्रुप नाम की शाखा में एक सैनिक के रूप में भर्ती हो गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध से 1971 तक रहा सेना से जुड़ाव

राणे ने द्वितीय विश्व युद्ध में जगहजगह भाग लिया जिसमें उनका प्रमुख योगदान बर्मा की लड़ाई में देखा गया था। जापानी सेना के सामने किन्हीं कारणों से 26 इन्फेंट्री डिविजन को वापस आना पड़ा जिसका हिस्सा राणे की इंजीनियर कंपनी भी थी। इस कंपनी को इस डिवीजन के प्रमुख संसाधनों को नष्ट करने के लिए डिवीजन के वापस जाने के बाद  दिया गया था। जिससे दुश्मन इन संसाधनों का इस्तेमाल न कर सके। प्लान के अनुसार पीछे छोड़े हुए सैनिकों को अपने काम को समाप्त करने के बाद नौसेना के द्वारा वापस लाया जाना था। लेकिन किसी कारण से नौसेना इनको वहां से नहीं निकल पाई। इस समय राणे ने अपने साथियों को कुशलतापूर्वक एक नदी को पार करके सुरक्षा के साथ यूनिट में पहुंचाया। इसी तरह के अन्य महत्वपूर्ण कार्य करने के  लिए उन्हें सेना में वायसराय कमीशन प्रदान किया गया। देश की आजादी के बाद दिसंबर 1947 में उन्हें भारतीय सेना में कमीशन मिला और वह सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति हुए। इसके बाद इन्होंने 1947-48 के भारतपाकिस्तान के प्रथम युद्ध में हिस्सा लिया जिसमें वीरता के लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 25 जून 1968 को वह मेजर पद से सेवानिवृत्त हुये लेकिन 1971 तक सेना से जुड़े रहे और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भारत को विजय तिलक लगते देखा और बांग्लादेश डीएस उदय डीएस साक्षी भी बने।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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