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दक्षिण एशिया में चीन और अमेरिका की टेढ़ी चालें

डॉ. रहीस सिंह
गुरु, 20 जनवरी 2022   |   6 मिनट में पढ़ें

महाशक्तियों की महत्वाकांक्षाएं असीमित होती हैं। स्वाभाविक है कि वे आपस में टकराएंगी। ऐसे टकराव कभी कम तीव्रता वाले होते हैं तो कभी बहुत अधिक। युद्ध, विश्व युद्ध अथवा शीतयुद्ध इन्हीं टकरावों के उदाहरण हैं। देखने वाली बात यह है कि महत्वाकांक्षाएं महाशक्तियों की होती हैं लेकिन इनके बीच चलने वाले टकरावों का शिकार छोटे एवं गरीब देश बनते हैं, बेवजह पिसते वही हैं। दरअसल इन छोटे देशों को पहले ये महाशक्तियां अपने-अपने खेमे में लाने का खेल खेलती हैं। असफल होने पर कभी नैतिक, कभी आर्थिक तो कभी सैनिक या सामरिक दबाव बनाती हैं। अब ये देश दबाव में आएं तब भी और न आएं तब भी इस खेल का मूल्य अवश्य चुकाते हैं। यह खेल अनवरत चलता रहता है। फिर चाहे वह विश्व युद्धों से पहले के कालखण्ड में देख लें अथवा बाद में या फिर हाल फिलहाल में। बोलिविया, अबीसीनिया, सूडेटनलैंड या वियतनाम और क्यूबा जैसे देश ऐसे ही उदाहरणों के रूप में देखे जा सकते हैं। वर्तमान समय में अमेरिका और चीन की महत्वाकांक्षाएं टकरा रही हैं, जिसे कुछ विश्लेषक तो शीतयुद्ध के रूप में भी देख रहे हैं। इस टकराव का असर विशेषकर दक्षिण एशिया के देशों विशेषकर बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल …आदि देशों पर तो देखा ही जा सकता है। साथ ही यदि यूरोप-अमेरिका और रूस के टकराव को देखेंगे तो यूरेशिया, मध्य-एशिया भी इसमें शामिल हो जाएगा। अभी हम बात दक्षिण एशिया की करें जहां न केवल अमेरिका और चीन के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षाओं के टकराव का प्रभाव बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल…..आदि देशों पर पड़ रहा है बल्कि भारत के साथ सीमा पर चीन द्वारा पैदा की जा रही तनातनी और हिन्द-प्रशांत में भारत की सक्रियता के कारण भी कई देश ड्रैगन के कोप का भाजन बनते दिखायी दे रहे हैं। एक और बात, अमेरिका भी अब दक्षिण एशियाई देशों को एक नए नजरिए से देखने की कोशिश कर रहा है, जो उसकी पेशबंदी का हिस्सा लगता है। प्रश्न यह उठता है कि दक्षिण एशिया पर इसका असर क्या होगा?

अभी हाल में दो प्रकार की खबरें सामने आयीं। एक खबर श्रीलंका की है जो चीनी ‘ऋण जाल’ (डेट ट्रैप) कूटनीति का शिकार हुआ है। श्रीलंका के विपक्षी नेता एवं अर्थशास्त्री हर्षा डि सिल्वा के शब्दों में कहें (जो उन्होंने संसद में व्यक्त किए) तो -‘‘हमारा देश पूरी तरह से दिवालिया हो जाएगा। मैं किसी को डराना नहीं चाहता, लेकिन अगर ऐसा ही चलता रहा तो आयात रुक जायेंगे, पूरा ‘आईटी सिस्टम’ बंद हो जायेगा। यहां तक कि हम ‘गूगल मैप’ का भी इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे क्योंकि हम इसके लिए पैसे देने की स्थिति में नहीं होंगे।’’ ये शब्द बता रहे हैं कि श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था या तो दिवालिया हो चुकी है अथवा होने की कगार पर है। यह चीन के उस उदार (सॉफ्ट) हथियार की मार का परिणाम है जिसकी चपेट में दुनिया भर के करीब 40-42 देश आ चुके हैं और अब चीनी चंगुल से बाहर निकलने की स्थिति में नहीं हैं। वे या तो चीनी उपनिवेश बनें या फिर गृहयुद्ध से गुजरें। दूसरी खबर बांग्लादेश की है जिसे पहले अमेरिका ने 2021 के ’लोकतंत्र सम्मेलन’ से दूर रखा फिर बांगलादेश रैपिड एक्शन बटालियन तथा सैन्य व पुलिस अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिया। यही नहीं लगभग छः वर्ष पूर्व बांग्लादेश के लेखक अभिजीत रॉय के हत्यारे को पकड़ने हेतु सूचना देने वाले को भी 50 लाख डॉलर का इनाम देने की घोषणा की। पहले की तरह ही अमेरिका इसे लोकतंत्र और मानवाधिकारवादी मूल्यों के प्रति अपनी चिंता बताएगा। इस तरह से दुनिया के दो ताकतवर देश अपने-अपने हथियारों का प्रयोग कर दक्षिण एशियाई देशों को अदब में लेकर अपनी ताकत का प्रसार करना चाह रहे हैं। इन दोनों देशों की गतिविधियों का बाहरी चेहरा कुछ भी दिखे, लेकिन सच तो यह है कि इनके भू-राजनीतिक निहितार्थ हैं। अगर ऐसा है तो इनके प्रभाव का विस्तार भारत तक अवश्य होगा। यहां पर अहम प्रश्न यह है कि क्या चीन और अमेरिका दक्षिण एशिया को अपने ‘खेल का मैदान’ बनाना चाहते हैं?

यहां पर दो चीजें काफी हद तक स्पष्ट हैं। पहली- बाइडेन प्रशासन, ट्रंप प्रशासन की नीतियों के विपरीत दिशा में चलने की कोशिश कर रहा है। जग जाहिर है कि ट्रंप और मोदी की केमिस्ट्री बहुत अच्छी थी। हाउडी मोदी से लेकर नमस्ते ट्रंप तक के एक सम्पूर्ण परिदृश्य को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत-अमेरिका किस तरह से निकट आ चुके थे। इसके परिणामों को यदि भू और रक्षा रणनीति की दृष्टि से देखें तो भारत इसी दौर में अमेरिका के साथ मिलकर क्वाड इनीशिएटिव का अगुआकार बना और फाउंडेशनल समझौतों को अंतिम परिणाम तक पहुंचाकर अमेरिका का मेजर स्ट्रैटेजिक पार्टनर भी बना। भारत-अमेरिका ‘2 प्लस 2 डायलॉग डिप्लोमैसी’ शुरू हुयी और अमेरिका ने भारत को डिफेंस तकनीक के 99 प्रतिशत तक को इस्तेमाल का अधिकार भी दिया। अमेरिका ने इसी दौर में भारत को एसटीए-1 (कण्ट्रीज एनटाइटिल्ड टू स्‍ट्रेटेजिक ट्रेड अथॉराइजेशन) का दर्जा भी दिया जो केवल नाटो देशों को ही प्राप्त था। भारत और अमेरिका की इस दोस्ती का अक्स तो भारत के अन्य देशों के साथ सम्बंधों पर भी दिखना स्वाभाविक था। चूंकि वह केमिस्ट्री अब नहीं है, इसलिए यह भी संभव है कि अमेरिका की बांग्लादेश के प्रति नाराजगी में भारत-बांग्लादेश मैत्री भी एक एंगल के रूप में हो।

दरअसल भू-राजनीतिक दृष्टि से बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक इकाई (देश) है। चूंकि बांग्लादेश की काफी हद तक निर्भरता भारत पर है और भारत की पड़ोसी प्रथम (नेबरहुड फर्स्ट) नीति में बांग्लादेश प्रमुख देशों में है। इसलिए दक्षिण एशिया और हिन्द-महासागर में बांग्लादेश की जियो-स्ट्रैटेजी भारत के अनुकूल है। कुछ विश्लेषक इसे बांग्लादेश का ’भारत केन्द्रित’ (इण्डिया सेंटर्ड) होने के रूप में देखते हैं। हालांकि कुछ कम या ज्यादा के साथ यही स्थिति श्रीलंका, मालदीव और नेपाल की भी है। इसलिए यह भी संभावना है कि अमेरिका बांग्लादेश तक ही सीमित न रहे, बल्कि इन देशों पर भी नए सिरे से विचार करे। हालांकि यदि अमेरिका ऐसा सोच कर चल रहा है तो वह पूरी तरह से गलत है क्योंकि भारत दक्षिण एशिया में प्रभुत्व की कूटनीति नहीं करता। वह शुरू से ही पड़ोसियों के साथ सहोदर सम्बंधों के आधार पर बढ़ने का हिमायती रहा है। फिर चाहे वह पंचशील सिद्धांत रहा हो या गुजराल डॉक्ट्रिन अथवा नेबरहुड फर्स्ट नीति। पड़ोसी देशों में आयी किसी भी विपत्ति, आपदा अथवा संकट में भारत ने उन्हें इस तरह से सहयोग दिया जैसे कि कोई देश अपने अभिन्न हिस्से (इंटिग्रल पार्ट) के लिए करता है। हालांकि बाहरी ताकतों को यह पसंद नहीं आता। यही वजह है कि वे कभी पाकिस्तान के जरिए इसमें अवरोध पैदा करती रहीं तो कभी नेपाल, मालदीव अथवा श्रीलंका के जरिए। वर्तमान समय में चीन अपनी छद्म नीति चेकबुक डिप्लोमैसी के जरिए नेपाल, श्रीलंका और मालदीव में ही नहीं बल्कि बांग्लादेश में भी सेंध लगाने का रणनीति पर काम कर रहा है। इसके पीछे उसका उद्देश्‍य उदार सहयोग नहीं बल्कि छुपा हुआ उपनिवेशवाद है। सही अर्थों में इससे वह दो निशाने लगा रहा है। एक-दक्षिण एशियाई देशों के संसाधनों पर नियंत्रण, द्वितीय-भारतीय हितों को काउंटर करना और तृतीय-भारत को घेरने की रणनीति को व्यवहारिक रूप देना।

इस समय बीजिंग और वाशिंगटन के बीच टकराव धीरे-धीरे शीतयुद्ध जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है। इसका प्रभाव वहां-वहां दिख सकता है जहां चीन की सक्रियता अथवा घुसपैठ है। इसी कड़ी में बांग्लादेश आता है जो इस समय दोनों के निशाने पर है। दरअसल चीन न केवल बांग्लादेश के साथ बल्कि अन्य दक्षिण एशियाई व पूर्व एशियाई देशों के साथ भी ‘वोल्फ वॉरियर डिप्लोमैसी’ का प्रयोग कर रहा है। अमेरिका भी कुछ इसी माइंडसेट से काम करता हुआ दिख रहा है। खास बात यह है कि ये दोनों ही देश यह नहीं चाहते कि भारत बांग्लादेश सम्बंधों में जिस तरह का संवेदनशील रिश्ता बना हुआ है, वह जारी रहे। चीन ऐसा क्यों नहीं चाहता, यह तो जगजाहिर है। लेकिन अमेरिका क्यों नहीं चाहता यह अवश्य अखरने वाली बात है, क्योंकि भारत अमेरिका स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं। इसमें कोई संशय नहीं कि अमेरिका चीन को प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने और उसके बढ़ रहे प्रभाव क्षेत्र को रोकने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अमेरिका को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह शीतयुद्ध अथवा ग्लोबलाइजेशन के पहले दो दशकों वाला समय अब नहीं है। 2008 के बाद विश्व व्यवस्था में जो बदलाव आने शुरू हुए थे, वे अब काफी हद तक स्पष्ट हो चुके हैं। ये बदलाव इस बात की पुष्टि नहीं करते कि अमेरिका अब एक मात्र विश्व शक्ति है और व्यवस्था एकध्रुवीय। इसलिए दबाव से नहीं, सहकार से शक्ति संतुलन साधने का उपाय खोजना होगा अन्यथा चीन की चेकबुक डिप्लोमैसी को काउंटर कर पाना मुश्किल होगा। फिर तो अमेरिका बांग्लादेश को अलग-थलग करके यह कार्य नहीं कर सकता। एक और बात, उसे एक तरफ भारत के साथ खड़ा दिखना होगा और दूसरी तरफ चीन के स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स एवं बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के विकल्प खोजने होंगे। तीसरी-चीन को सॉफ्ट पॉवर बनने से रोकना होगा, जो कि वह कमोबेश बन चुका है। चार-चीन की ग्वादर और हम्बनटोटा रणनीति को चटगांव, पायरा डी, सित्तवै…..आदि नाकाम करना होगा। इसके लिए बांग्लादेश पर दबाव बनाने की नहीं, चीन की चेकबुक डिप्लोमैसी को कमजोर करने की आवश्यकता है। फिर भी यदि बाइडेन प्रशासन इसी ढर्रे पर चला तो वह चीनी एजेंडे को और मजबूत करने का ही काम करेगा।

बहरहाल अमेरिका को उस रवैये को बदलना होगा जिसका प्रयोग वह एकध्रुवीय विश्व होने तक करता रहा है। अर्थात-यदि आप या तो मेरे साथ हैं या मेरे खि़लाफ़। और ड्रैगन की चालों पर गंभीरता से नजर रखनी होगी। इसके लिए उसे भारत पर और भारत को अमेरिका पर भरोसा करना होगा तथा अन्योन्याश्रिता पर आधारित रणनीतिक सम्बंधों को और अधिक मजबूती देने की जरूरत होगी।

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लेखक

डॉ. रहीस सिंह, एक्सपर्ट विदेश नीति एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध के लेखक हैं। लगभग 25 वर्षों से नियमित कॉलम लेखन एवं पत्रकारिता के साथ-साथ दिल्ली में सिविल सेवाओं से जुड़े प्रतिभागियों के बीच अध्यापन। इसके समानांतर इतिहास, वैश्विक सम्बंध, विदेश नीति आदि विषयों पर करीब दो दर्जन पुस्तकों का लेखन (जिन्हें पियर्सन, मैक ग्रॉ हिल, लेक्सिस नेक्सिस, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली आदि द्वारा प्रकाशित किया गया है।


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