पंजशीर घाटी का पतन उन लाखों अफ़गानों के लिए निराशा का कारण बन गया, जिनकी आशाएँ राष्ट्रीय प्रतिरोधक बल (एनआरएफ ) की सफलता पर टिकी थीं। अफगानिस्तान पर “रुको और देखो” की नीति को अपनाने वाली वैश्विक शक्तियों की, “प्रतीक्षा ” समाप्त हो गई है, और अब वे “देखने” के लिए तैयार रहें कि तालिबान और उसके स्वामी अफगान, दुनिया और विशेष रूप से इस क्षेत्र में क्या करेंगे।
वर्ष 1996 में, तालिबान इस क्षेत्र में प्रवेश करने में असमर्थ था। परंतु इस बार “ड्रोन और “सैटेलाइट इमेजरी” जैसे आधुनिक हथियारों और “हवाई समर्थन” और पाकिस्तान के “विशेष बलों” की प्रत्यक्ष भागीदारी से, तालिबानी आतंकवादियों ने कभी तजाकियो के एक सुरक्षित गढ़ रहे पंजशीर के रक्षा घेरे को तोड़ दिया है। इस विदेशी आक्रमण ने उत्तरी गठबंधन को पंजशीर घाटी के कुछ क्षेत्रों से पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया, जहाँ उत्तरी गठबंधन के दिवंगत कमांडर अहमद शाह मसूद का घर था।
मैं संयुक्त राष्ट्र द्वारा नामित किये गए आतंकवादी समूह को “सरकार” के रूप में संबोधित नहीं करना चाहता, क्योंकि यह शब्द अफगानिस्तान पर तालिबान के शासन को मान्य ठहरा देगा। इसलिए उनके शासन को परिभाषित करने के लिए एक नवीन शब्द की खोज की – तालिबानी; तालिबानी की परिभाषा – लोगों पर थोपे गये, तालिबान मानसिकता वाले अत्याचारी, अलोकतांत्रिक रूप से सत्ता के उपयोग और/या किसी विदेशी शक्ति द्वारा समर्थित व्यक्तियों के रूप में की गयी है।
पंजशीर में पाकिस्तान की अहं भरी संलिप्तता है तथा बह ,अफगानिस्तान के शहरों और प्रांतों में, जहां ताजिक, उज्बेक्स और हजारा समुदाय के बहुसंख्यक हैं, वहाँ तालिबान को थोपने के लिए उत्तेजित हो रहा हैं। यद्यपि, अफगान महिलाओं के नेतृत्व में हुए राष्ट्रीय विद्रोह को किसी भी समुदाय (समुदायों) तक सीमित नहीं किया जा सकता है। महिलाएं, विशेष रूप से, अफगान में रैली कर रही हैं, जिसने आंदोलन को मजबूती प्रदान की है। तो अब मैं अत्यधिक विश्वास के साथ यह कहना चाहता हूं कि, जब पाकिस्तानी प्रॉक्सी काबुल से भाग जायेंगे तब अफगान महिलाओं को सत्ता में अपने अधिकार का दावा करना चाहिए, जिसमें पहली अफगान महिला राष्ट्रपति भी होना शामिल हो।
जब पाकिस्तान की सरकार अमेरिका, भारत और वैश्विक लोकतंत्रों को निशाना बनाकर अफगानिस्तान के पतन का मज़ाक उड़ा रही थी, उस समय पाकिस्तान आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद ने काबुल में उतरने के पश्चात् विश्व को यह आश्वासन दिया, कि “चिंता मत करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा।” सवाल किसने किया था?
सरकार -नियंत्रित पाकिस्तानी मीडिया तथा समालोचक “अफगानिस्तान में भारत के हितों के प्रतिकूल होने” के लिए अपने प्रतिष्ठान को बधाई देना बंद नहीं कर सकते।
तो, क्या यह अफगानिस्तान में भारत के लिए खेल की समाप्ति है?
मैं तर्क दूंगा, नहीं।
अफगानिस्तान में अपने एक दशक के लंबे प्रवास के दौरान मुझे पूरे देश की यात्रा करने और भारत के योगदान को देखने का अवसर मिला, जिसे आम अफगान नागरिकों का प्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त है।
इसका श्रेय भारतीय राजनयिकों और योजनाकारों को जाना चाहिए, जिन्होंने पिछले दो दशकों के दौरान हमारे पुनर्निर्माण के प्रयासों को सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले आम अफगानों की आवश्यक ताओ को पूरा करने के लिए संरचित किया जाना सुनिश्चित किया था।
इसके अतिरिक्त, भारत और अफगानिस्तान के संबंध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं । ये परस्पर संबंधों पर आधारित है, जो अफगान के सूखे मेवों की तरह मीठे और अफगान के कालीन की भाँति रंगीन हैं।
यद्यपि, अफगानिस्तान के पतन ने भारतीय विचारकों तथा राजनयिकों के समक्ष एक नई पहेली खड़ी कर दी है। भारतीय पहेली यह है कि तालिबान के साथ खड़े हुए बिना आम अफगानों का समर्थन कैसे किया जाए। यह कठिन कार्य होगा परंतु एक प्रयास तो करना ही होगा। इस समय, आम अफगानों को दो चीजों की आवश्यकता है, एक व्यापार और दूसरा मानवीय समर्थन ।।
1.1 व्यापार के माध्यम से सहायता:
भारत अफगानों के समस्त सूखे मेवों का उपयोग कर सकता है। हमें सूखे मेवों और कालीनो के लिए विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और अफगान व्यापार संगठनों के साथ सीधा व्यापार संपर्क स्थापित करना चाहिए। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के व्यापार संबंधी आंकड़ों के अनुसार,वर्ष “2020-21 में अफगानिस्तान से भारत का आयात 3,700 करोड़ रुपये से अधिक का है। कुछ अनुमान बताते हैं कि भारत में 85 प्रतिशत सूखे मेवे अफगानिस्तान से आते हैं। अगर भारत अफगान उत्पादों के आयात के लिए एक प्रणाली बनाता है तो इससे हजारों अफगान परिवार विशेष रूप से महिलाएं और बच्चे लाभांवित होंगे।
1.2 स्वास्थ्य देखभाल सहायता:
काबुल के पतन के बाद से, निजी रूप से कार्य करने वाले अफगान स्वास्थ्य कर्मी भाग गए और सैकड़ों अन्य स्वास्थ्य कर्मी अस्पतालों को बलपूर्वक बंद करवाने के कारण छुप गये हैं। भारत अन्य अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों के साथ मिल कर काबुल, मजार, हेरात और कंधार के प्रमुख शहरों में आवश्यक चिकित्सा सहायता प्रदान कर सकता है। इसके अतिरिक्त, भारत संयुक्त राष्ट्र और गैर सरकारी संगठनों अर्थात डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एवम अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से टेलीमेडिसिन सेवाएं भी प्रदान कर सकता है।
1.3 शीतकालीन वस्तुओ की आपूर्ति
अफगानिस्तान की सर्दी बड़ी कठोर है। इस बार ईंधन का भंडारण, ध्वस्त अर्थव्यवस्था, दिलों मे निराशा के कारण अफ़गानों की स्थिति दर्दनाक है। अफ़ग़ानिस्तान की सर्दी शुरू होने में अभी लगभग 80 दिन का समय है – अब ऊनी सामग्री तथा गेहूँ की आपूर्ति का समय है। स्थानीय अफगानियों का मुख्य आहार रोटी है, और अब उन्हें गेहूं की आवश्यकता है।
1.4 परस्पर संपर्क :
भारतीय एनजीओ अफगान एनजीओ के साथ सहयोग कर सकते हैं, और यह परस्पर संपर्क जारी रखने का सबसे अच्छा तरीका होगा। अफगानिस्तान में महिलाओं के नेतृत्व तथा उनके स्वामित्व वाली अनेक परियोजनाएं चल रही हैं,परंतु अभी और अधिक की आवश्यकता है।
1.5 आम जनता के साथ संबंध स्थापित करना:
अफगानिस्तान के सिख तथा हिंदू भारत और अफगानों के मध्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत सरकार को मानवीय सहायता तथा व्यापार के लिए इन दोनों समुदायों के माध्यम से कार्य करने की संभावनाओ का पता लगाना चाहिए। अफगानिस्तान के सिख और हिंदू दोनों पक्षों का परस्पर विश्वास है। अत ये अफगानिस्तान और भारत के बीच सेतु हो सकते हैं।
तालिबआन उपरोक्त पहलों को अस्वीकार नहीं कर सकता; अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे अफ़गानों को अपने से और दूर कर देंगे।
2.1 परियोजनाओं को फिर से आरंभ करना:
भारत को लंबित परियोजनाओं को फिर से आरंभ करना चाहिए और नई परियोजनाएं शुरू करनी चाहिए जो आम लोगों की प्रत्यक्ष रूप से मदद करती हैं।
पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान के हेरात प्रांत के गांवों के एक समूह, अद्रशकन की मेरी परियोजनाओं में, मेरी कंपनी द्वारा 200 से अधिक स्थानीय लोगों को काम पर रखा तथा स्थानीय संसाधनों का क्रय किया गया। परिणामस्वरूप, हमने स्थानीय अर्थव्यवस्था में प्रति माह $200K (1.7 करोड़ आईएनआर) का योगदान दिया। जिसके परिणामस्वरूप सात वर्षों में, अद्रशकन एक सुस्त गाँव से संपन्न अर्थव्यवस्था वाले छोटे शहर में परिवर्तित हो गया। इस तरह की लक्षित जमीनी परियोजनाओं को खरबों डॉलर की आवश्यकता के बिना लागू किया जा सकता है। तालिबान नेतृत्व ने कहा है – उन्हें भारतीय निवेश और जन-केंद्रित कार्यक्रमों की आवश्यकता है। इसलिए हमें इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
2.2 चाबहार परियोजना:
भारत यदि अफगानिस्तान के साथ अपने संबंधों के बारे में गंभीर है तो उसे चाबहार परियोजना के चरण -2 में तेजी लाकर इसे पूरा करना चाहिए। आइए हम इसे गति प्रदान करें तथा अपनी पूरी क्षमता से इसे पूरा करें। यह न केवल अंतरराष्ट्रीय समुदाय बल्कि तालिबान के अफगानिस्तान को भी एक वैकल्पिक मार्ग प्रदान करेगा।
उपरोक्त सुझावों में एकमात्र चेतावनी यह है कि पाकिस्तान तालिबान को प्रभावित करेगा और भारत की भूमिका को सीमित करेगा। चीन उपरोक्त पहलों को आरंभ कर सकता है। परंतु क्या शी के भेड़िया योद्धा इसके मूल्य के निर्धारण के बिना ऐसा करेंगे? नहीं
मैं उन अफगान माताओं को जानता हूं जो असहाय हैं ,क्योंकि उन्हें अपने बच्चों के लिए भोजन और दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। तालिबान द्वारा दुल्हनों को उठाए जाने के डर से कई किशोर लड़कियां नर्वस ब्रेकडाउन के कगार पर हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने वाले युवा छिपे हुए हैं। अब थोड़ा भी विलंब स्थानीय अशांति और जानमाल के नुकसान की स्थिति को और अधिक बढ़ा देगा। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण अफगान, जो तालिबान की मूल शक्ति हैं,उन्हें अगर भोजन, पैसा एवम् जीवन-रक्षक आवश्यक वस्तुए नहीं मिलती, तो वे भी विद्रोह कर देंगे।
प्रश्न यह है कि क्या भारत सरकार आम अफ़गानों के लिए कदम उठायेगी, उनके लिए कुछ करेगी। इसके लिए भारत के भीतर की कुछ विभाजनकारी शक्तियां इनपर तालिबान के साथ काम करने का आरोप लगा सकती हैं।
एक बार फिर, मैं पूरे विश्वास के साथ यह तर्क दूंगा कि यदि भारत मानवीय आधार पर अफगानों की सहायता करने का निर्णय लेता है, तो अधिकांश भारतीय केंद्र सरकार का समर्थन करेंगे, क्योंकि भारत-अफगान संबंध भू-रणनीतिक मजबूरियों द्वारा परिभाषित आधुनिक समय की भागीदारी से इतर हैं। हमारे परस्पर संबंध संस्कृति, इतिहास और भौगोलिक रूप से बहुत गहरे हैं।
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vikas mishra
Dinesh singh Kushwaha