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सेला का नाम बदलने के पीछे क्या है चीन की रणनीति

भाषा एवं चाणक्य फोरम
सोम, 03 जनवरी 2022   |   3 मिनट में पढ़ें

सेला (अरुणाचल प्रदेश), तीन जनवरी (भाषा): चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश स्थित सेला पास का नाम बदलकर पिछले शुक्रवार ‘से ला’ किए जाने पर रक्षा विशेषज्ञों ने कहा है कि चीनी नाम में बदलाव से यह तथ्य नहीं बदल जाता कि यह स्थान भारत का हिस्सा है, लेकिन इससे चीन द्वारा ‘‘मनोवैज्ञानिक युद्ध’’ पर जोर देने की बात रेखांकित होती है।

अरुणाचल प्रदेश में 13,700 फुट ऊंचे सेला पास (दर्रा) के शीर्ष पर भारत के सीमा सड़क संगठन द्वारा लगाए गए बर्फ से ढके स्मृति लेख पर लिखा है, ‘‘हे मेरे प्रिय मित्र, जब आप सड़क के आखिर में पहुंचते हैं, तो उसके ठीक आगे हमेशा एक पहाड़ी होती है, जिस पर चढ़ना होता है।’’

यह लेख 14 दिसंबर, 1972 को यानी 1962 के युद्ध से करीब 10 साल बाद ‘फिक्र नॉट’ 14 सीमा सड़क कार्य बल के उन लोगों की याद में लिखा गया था, जिनकी सेला से तवांग तक सड़क निर्माण करते समय मौत हो गई थी।

चीन के असैन्य मामलों के मंत्रालय ने इस दर्रे का नाम शुक्रवार को ‘‘बदलकर’’ से ला (जो भारतीय नक्शे में इस्तेमाल की गई वर्तनी से बहुत अलग नहीं है) रख दिया। उसने एक जनवरी, 2022 से लागू ‘‘भूमि सीमा क्षेत्रों के संरक्षण और शोषण संबंधी’’ एक नए कानून के तहत यह कदम उठाया।

नाम बदलने की इस कवायद में ‘जगनान’ या दक्षिण तिब्बत में आठ गांवों एवं कस्बों, चार पहाड़ियों और दो नदियों को भी शामिल किया गया हैं। चीन अरुणाचल प्रदेश के लिए दक्षिण तिब्बत नाम का इस्तेमाल करता है। चीन हिमाचली भारत के कुछ हिस्सों पर अपना दावा करने के लिए नक्शों में नामों में बदलाव की यह कवायद कर रहा है।

पूर्वी कमान में लंबा अनुभव रखने वाले एक सैन्य विश्लेषक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) बिस्वजीत चक्रवर्ती ने ‘पीटीआई भाषा’ से कहा, ‘‘चीनी नाम में बदलाव से यह तथ्य नहीं बदल जाता कि ये स्थान भारत का हिस्सा है, लेकिन इससे मनोवैज्ञानिक युद्ध पर उनके जोर देने की बात और ब्रह्मपुत्र घाटी के प्रवेश द्वार के रूप में सेला पास की रणनीतिक महत्ता रेखांकित होती है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘एक तरह से बिसात पर किसी मोहरे को हिलाए बिना शतरंज खेलना है… उन्होंने 1962 के सीमा युद्ध में भी सेला पास को निशाना बनाया था।’

भारतीय सेना की 62 ब्रिगेड के जवानों को नवंबर 1962 में चीनी आक्रमणकारियों के खिलाफ पास पर कब्जा जमाए रखने का काम सौंपा गया था, जिसे चीनी सेना ने घेर लिया था, लेकिन दुर्भाग्य से 18 नवंबर, 1962 को चाइनीज पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बलों ने स्थानीय चरवाहों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पगडंडी का पता लगा लिया और सेला से बचकर निकलते हुए अगले दो महत्वपूर्ण कस्बों दिरांग और बोम्डिला पर कब्जा कर लिया। तेजपुर और मुख्यभूमि भाग की सड़क खुली थी। दो दिन बाद जब बर्फबारी के कारण तिब्बत को भारत से जोड़ने वाले हिमालयी दर्रे अवरुध होने का खतरा बढ़ने लगा, तो चीन ने नाटकीय रूप से वापसी की घोषणा की। सेला आने-जाने वाले मार्ग पर अब बड़ी संख्या में सेना को तैनात किया गया है।

भारत-चीन संघर्ष के मामलों में विशेषज्ञता रखने वाले रक्षा विश्लेषक लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) उत्पल भट्टाचार्य ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘हम तब से एक लंबा सफर तय कर चुके हैं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था पहले से बहुत मजबूत है। बुमला-थगला पर्वतश्रेणी पर सुरक्षा की पहली पंक्ति को भेदना या सेला में दूसरी रणनीतिक रेखा से पार पाना बहुत, बहुत मुश्किल है।’’

सड़क जैसे बुनियादी ढांचों में निवेश करने और सुरक्षा बढ़ाए जाने के बावजूद सेना ने एक ‘माउंटेन स्ट्राइक कोर’- ‘17 कोर’ का गठन किया है, जिसका मुख्यालय पश्चिम बंगाल के पानागढ़ में है। कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि जिन क्षेत्रों पर चीन का नियंत्रण नहीं है, उनका ‘‘नाम बदलने’’ का फैसला चीन ने स्ट्राइक कोर से पैदा हुए अप्रत्यक्ष खतरे के जवाब में दिया है।

थिंक टैंक ‘रिसर्च सेंटर फॉर ईस्टर्न एंड नॉर्थ ईस्टर्न रीजनल स्टडीज’ के उपाध्यक्ष मेजर जनरल अरुण रॉय ने कहा, ‘‘चीन ने 2017 में स्थानों के नाम बदलने अपनी कवायद को दोहराया है। (उसने अरुणाचल में छह स्थानों का नाम बदल दिया था)।’’

उन्होंने कहा, ‘‘यह कदम दिखाता है कि चीन स्थापित कानूनों और नियम आधारित कदमों का अपमान करता है।’’

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