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अमेरिका-पाकिस्तान संबंध का असली स्वरूप

सुशांत सरीन
बुध, 06 अक्टूबर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

जब पहली रिपोर्ट आई कि अमेरिकी सीनेट में 22 रिपब्लिकन सीनेटरों ने तालिबान और उनकी सहायता करने वाले देशों/संस्थाओं के बारे में सरकार से पूरी जानकारी देने के  संबंध में विधेयक पेश किया, तब से पाकिस्तान में खतरे की घंटी बज गयी है। प्रस्तावित कानून में अन्य बातों के अतिरिक्त, ‘अफगानिस्तान काउंटर टेररिज्म, ओवरसाइट, एंड एकाउंटेबिलिटी एक्ट ऑफ 2021’ शीर्षक से तालिबान को सहायता प्रदान करने वाली संस्थाओं पर एक नियमित रिपोर्ट की मांग की गयी है। इस प्रकार की पहली रिपोर्ट में “2001 से 2020 के बीच तालिबान के लिए पाकिस्तान सरकार सहित अन्य राज्य और गैर-राज्यकीय नेताओं द्वारा अफगान सरकार और पंजशीर में प्रतिरोधक बलों के विरुद्ध अभियान का आकलन” और तालिबान के हमले में समर्थन का समान मूल्यांकन शामिल है। लेकिन बिल का विस्तृत रूप से अध्ययन करने पर पता चलता है कि यह जीओपी सीनेटरों के सांकेतिक राजनीतिक चाल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, बल्कि यह उन लोगों  से प्रतिशोध लेने के स्थान पर डेमोक्रेटिक प्रशासन के गुब्बारे को पंचर करने के लिए था, जो अमेरिका को डबल-क्रॉस करते हैं और अफगानिस्तान में उसकी शर्मनाक हार के लिए जिम्मेदार  हैं।

प्रारंभ में, पाकिस्तान ने महसूस किया कि अफगानिस्तान में उनकी ‘जीत’ के विजयी गुब्बारे से हवा निकाली जा रही है। शेयर बाजार लुढ़क गए। पाकिस्तानी रुपये में लगातार गिरावट जारी है। टेलीविज़न टॉक शो में अमेरिका द्वारा पाकिस्तान पर शिकंजा कसने के गंभीर परिणामों की चेतावनी दी गई है। आईएमएफ के कर्ज रुकने, उनके सिर पर एफएटीएफ की तलवार लटकने और ऐसे ही अन्य गंभीर परिदृश्य सामने आने की अटकलें लगाई जा रही थीं। इसके अभ्यस्त पाकिस्तान ने उन्माद में प्रतिक्रिया दी (जो हिस्टीरिया में लिप्त शिरीन मजारी से बेहतर है) और विदेश कार्यालय से पाकिस्तान को “अनुचित” और “प्रस्तावित विधायी उपायों” के विरुद्ध चेतावनी दी, कि यह इस क्षेत्र में भविष्य के आतंकी खतरों से निपटने के लिए अनावश्यक और प्रतिकूल” हैं। कुछ दिनों के पश्चात पाकिस्तानी विदेश मंत्री एसएम कुरैशी ने बिल के लिए पाकिस्तान विरोधी लॉबी को दोष दिया और इस पर अधिक ध्यान न देने की सलाह दी। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि बिल पर कोई द्वि -पक्षीय सहमति नहीं बनेगी और शायद यह पारित नहीं होगा।

शुरुआती झटके को सहन करने के पश्चात, पाकिस्तान ने आकलन किया कि अमेरिकी कांग्रेस में जो कुछ हो रहा है वह भ्रमित अमेरिकी सांसदों का गुस्सा है और हो सकता है कि वे अपनी गणना में पूरी तरह से गलत न भी हों। लंबी विधायी प्रक्रिया के कारण यह बिल जल्द ही कानून बनने वाला नहीं है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह अपने मौजूदा स्वरूप में कांग्रेस के माध्यम से आगे बढ़ेगा या समाप्त हो जाएगा। चूंकि बिल जीओपी सीनेटरों द्वारा  प्रस्तुत किया गया है, अतः इसमें पक्षपात भी शामिल है। अर्थात  इसे डेमोक्रेट्स के प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है। उनमें से कई बिलों से वे सहमत हो सकते हैं, लेकिन अपने  निजी राजनीतिक कारणों से इसका विरोध करेंगे। किसी भी मामले में, बिल में मानक छूट  की धारा शामिल की गयी है जो राष्ट्रपति को यह प्रमाणित करके प्रतिबंधों को माफ करने का अधिकार देती है कि ऐसा करना अमेरिका के सुरक्षा हितों के लिए महत्वपूर्ण है, एक ऐसा प्रावधान जो प्रभावी रूप से इस प्रकार के कानून को प्रभावहीन बनाता  है।

प्रेस्लर संशोधन के साथ ठीक ऐसा ही हुआ। वर्षों तक, अमेरिकी राष्ट्रपति यह प्रमाणित करते हुए पाकिस्तान को छूट देते रहे कि वह परमाणु बम बनाने के करीब नहीं है। 1990 में  अमेरिकी राष्ट्रपति ने छूट नहीं दी, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था। प्रेस्लर संशोधन लागू होने के बाद जो प्रतिबंध लगे वह पाकिस्तान के लिए गंभीर क्षति नहीं थी। इसी प्रकार, नए प्रस्तावित कानून के अधीन परिकल्पित प्रतिबंध ईरान या रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के करीब भी नहीं हैं। तालिबान के समर्थकों के लिए यह बिल केवल अमेरिका में संपत्ति के लेनदेन को प्रतिबंधित करने और अमेरिका की यात्रा करने पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास  है। इसमे शायद ही ऐसा कुछ है जो पाकिस्तानियों को प्रभावित करेगा। अधिक से अधिक  यह होगा कि पाकिस्तानी जनरल अमेरिका में पापा जॉन की पिज्जा फ्रेंचाइजी नहीं खरीद पाएंगे और न ही वे अपने बच्चों से मिलने जा पाएंगे जो अमेरिका में पढ़ रहे हैं या वहाँ बस गए हैं।

वैसे भी अमेरिका द्वारा अधिकृत मार्ग से हट कर इन अर्थहीन उपायों को लागू करने पर संदेह है। तथापि यह बिल अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर अमेरिका के खराब मूड का संकेत है। अमेरिकी सरकार, शिक्षाविदों, सेना, मीडिया या राजनीति में शायद ही कोई होगा  जो पाकिस्तान के बारे में अच्छा बोले। परंतु क्रोध और विश्वासघात की इस भावना से  वास्तव में बहुत अधिक की संभावना नहीं  है, जब सबसे शक्तिशाली देश निराशा में अपने हाथों को मल रहा हैं। वास्तव में, ऐसा नहीं है कि अमेरिका पाकिस्तान के विश्वासघात अथवा तालिबान के अनियंत्रित स्वभाव के प्रति अचानक जागरूक हो गया है। पिछले दो दशकों से उन्हें इस बात की जानकारी है कि पाकिस्तान दोहरा खेल खेल रहा है और फिर भी, उन्होंने इसे सहन किया। अमेरिकी नीति निर्माताओं को विश्वास था कि अगर वे पाकिस्तान को कुछ उपहार देते हैं और वह उन्हें गुमराह करता हैं, तो अंत में पाकिस्तान  सही काम करेगा स्पष्ट रूप से, यह दृष्टिकोण काम नहीं आया। अमेरिका को इस वास्तविकता के प्रति सचेत होना चाहिए था कि पाकिस्तान लंबे समय से तालिबान से जुड़ा हुआ था। परंतु जागने के बाद भी, अमेरिका द्वारा इन प्रभावहीन प्रतिबंधों को लागू करना पुण्य के संकेत के अलावा और कुछ नहीं है, तो निश्चिंत रहें, पाकिस्तानियों की नींद ज्यादा नहीं उड़ने वाली।

अफ़ग़ानिस्तान में शर्मनाक हार के कारण अमरीका का रुख़ सख्त हो गया हैं, परंतु अमरीका के लिए दुविधा यह है कि अगर वह इन प्रतिबंधों को लागू करता है, तो ये पाकिस्तान पर शायद ही अधिक असरदार हों। इतना ही नहीं, अमेरिका को अब भी ऐसा लगता है कि उन्हें अफपाक क्षेत्र में अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए पाकिस्तान में पैर जमाने की आवश्यकता होगी और जब वे उस धरती पर थे तब उन्हे पता ही नहीं लग पाया  कि उनके पैरों के नीचे की जमीन कब खिसक गई। प्रश्न यह है कि अमेरिका उस पाकिस्तान के लोगों से कौन सी महान खुफिया जानकारी प्राप्त करने की उम्मीद रखता है जिन्होंने पिछले 20 वर्षों से उन्हें अंधेरे में रखा? फिर भी, अगर अमेरिका को अपने अति-सम्मोहित ‘ओवर द होराइजन’ ऑपरेशन को अंजाम देना है, तो उन्हें पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र का उपयोग करने की आवश्यकता होगी। दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान पर उनकी निर्भरता भले ही कम हुई हो, समाप्त नहीं हुई है। पाकिस्तान अभी भी लाभ की स्थिति में हैं, और अपनी भूमिका को बढ़ाने में इसका पूरा उपयोग करेगा, बल्कि अमेरिका को   प्रभावहीन  प्रतिबंध लगाने से भी रोकेगा। कड़े प्रतिबंधों को भूल जाइए, पाकिस्तान न केवल  अपने लिए बल्कि अफगानिस्तान को भी फंडिंग जारी करवाने के लिए अमेरिका के सामने  झुक जाएगा। हालांकि यह संभावना अधिक नहीं है क्योंकि अमेरिका इतना सरल नहीं है कि  वह पाकिस्तानी पिच पर गिर जाए, परंतु जिस तरह से अमेरिकी नीति इस क्षेत्र में खेली गई है, इसे पूरी तरह से खारिज  भी नहीं किया जा सकता।

पाकिस्तान को अपने देश पर लगे प्रतिबंधों की उतनी चिंता नहीं है, जितनी अफगानिस्तान पर प्रतिबंध से है। अफगान अर्थव्यवस्था मंदी की स्थिति में है। अब इसका खामियाजा पाकिस्तान को भुगतना पड़ रहा है। पश्चिम से भारी मात्रा में मौद्रिक सहायता के बिना अफगान राज्य के चलने का कोई रास्ता नहीं है। पाकिस्तान जिस बहुप्रतीक्षित क्षेत्रीय गठबंधन को बनाने की कोशिश कर रहा है, उसके पास तालिबान सरकार चलाने के लिए पैसे नहीं हैं। आर्थिक मंदी से जल्द ही बड़े पैमाने पर असंतोष उत्पन्न होगा और तालिबान रैंकों के भीतर विभाजन तेज गति से सामने आयेगा। ऐसी स्थिति आने से न केवल अर्थव्यवस्था बल्कि पूरा अफगानिस्तान मंदी की चपेट में आ जाएगा। यह भयानक संभावना है, जिससे पाकिस्तान हर कीमत पर बचना चाहेगा।

यदि अमेरिकी कांग्रेस और प्रशासन आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए वास्तव मे गंभीर है, तो उन्हें अपनी नीति पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। अप्रभावी प्रतिबंध लगाना प्रतिकूल होगा। यदि वे पाकिस्तान को वाकई नियंत्रित करना चाहते है तो प्रतिबंध ईरान के स्तर के होने चाहिए। अन्यथा, इन प्रतिबंधों की संभावित विफलता अफगानिस्तान में युद्ध में मिली विफलता से अधिक नहीं होगी।

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लेखक
सुशांत सरीन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं और चाणक्य फोरम में सलाहकार संपादक हैं। वह पाकिस्तान और आतंकवाद विषयों के विशेषज्ञ हैं। उनके प्रकाशित कार्यों में बलूचिस्तान : फारगॉटेन वॉर, फॉरसेकेन पीपल (2017), कॉरिडोर कैलकुलस : चाइना-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर और चीन का पाकिस्तान में निवेश कंप्रेडर मॉडल (2016) शामिल है।

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POST COMMENTS (1)

अरविंद

अक्टूबर 07, 2021
आपका विशलेषण एकदम सटीक है

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