अफगानिस्तान में उथल–पुथल और भारत के व्यवस्थित कदम
कमांडर संदीप धवन (सेवानिवृत्त)
जैसे ही गांधार का तत्कालीन साम्राज्य धूमिल हुआ, हमारा ध्यान वहां चल रहे निकासी कार्य और तथाकथित अमेरिकी भूल से हटकर ‘आगे क्या?’ की ओर चला गया। यूरोपीय संघ के दूरस्थ देश और मध्य-पूर्व सतर्क हैं, क्योंकि यह उनकी चिंता के दायरे में भी आता है। भारत, रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान भली भाँति जानते हैं कि यह उन्हे प्रभावित कर सकता है। अतीत में उतरना या वर्तमान के बारे में बात करना आसान है, लेकिन भविष्य को स्पष्ट रूप से देख पाना अत्यंत कठिन है, विशेष रूप से तब, जब यह तालिबान जैसी अस्थिर इकाई के साथ हो।
इस समय अन्य सभी देशों के रणनीतिकार अफगानिस्तान के संबंध में अपनी दिशा का निर्धारण कर रहे होंगे, ऐसे में भारत के पास क्या विकल्प हैं, और इस क्षेत्र में भारत के उद्देश्य क्या होने चाहिए?
भविष्य के उद्देश्यों के निर्धारण के लिए, हमे पहले अतीत और वर्तमान के उद्देश्यों का मूल्यांकन करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि आज के संदर्भ में वे कितने प्रासंगिक हैं। भारत की अफगानिस्तान के राष्ट्र-निर्माण में और मानवीय सहायतार्थ अत्यधिक भागीदारी रही है। भारत ने विगत 20 वर्षों के दौरान वहाँ 400 से अधिक बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं में 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश किया है। कुछ महत्वपूर्ण भारतीय उपक्रम हैं :
पूर्वगामी से, यह स्पष्ट है कि भारत अफगानिस्तान के साथ अपने प्राचीन संबंधों पर हमेशा खरा उतरा है और तबाह हुए बैक्ट्रियन प्रांत को यथासंभव श्रेष्ठ सहायता प्रदान की है। इसलिए, भारत को अफगानिस्तान में निम्नलिखित उद्देश्यों का अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए:
तालिबान शासन
अनेक विश्लेषकों को उम्मीद हैं कि भारत नई व्यवस्था को शीघ्र ही स्वीकार कर लेगा। उनका मानना है कि तालिबान बदल गया है और तालिबान 2.0 एक अलग तरह का शासन है।दिलचस्प बात यह है कि तालिबान ने अभी तक ऐसा कोई वचन या बयान नहीं दिया है।
भू-राजनीति एक दोधारी तलवार है जो सिद्धांतों और वास्तविकता के बीच एक उत्तम संतुलन की मांग करती है। तालिबान सरकार बनाएगा, यह एक हकीकत है। तालिबान अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करेगा, यह एक पूर्व निष्कर्ष है। भारत को तालिबान को मान्यता प्रदान किये बिना, प्रासंगिक बने रहकर, बीच के रास्ते को अपनाना होगा।
तालिबान शासन को जल्दबाजी में मान्यता प्रदान न करने के अपने ही लाभ हैं। मनोवैज्ञानिक इसे ‘परिहार व्यक्तित्व विकार’ या कभी-कभी ‘डिस्फोरिया’ कहते हैं। अब मैं यह नहीं कहूंगा कि तालिबान इससे पीड़ित है, लेकिन अस्वीकृति का डर प्रत्येक व्यक्ति अथवा संगठन में मौजूद रहता है, इसलिए अस्वीकार न करना उन्हे आशावान रखता है और मान्यता प्रदान ना करना उन्हें रोक देता है।
पंजशीर का शेर
भारत को अफगानिस्तान में अन्य हितधारकों का पता लगाना चाहिए। उन्हे इस क्षेत्र के अपने अनुभव का उपयोग करना चाहिए। सबसे पहला संगठन जो दिमाग में आता है वह है नॉर्दर्न एलायंस। उत्तरी गठबंधन के कमांडर अहमद शाह मसूद के साथ उनका पहला संपर्क वर्ष 1996 में ताजिकिस्तान में भारतीय राजदूत के माध्यम से स्थापित किया गया था। वह तालिबान से सीधे तौर पर और पाकिस्तान से परोक्ष रूप से लड़ रहा था। इसलिए उसकी मदद करना समझदारी होगी। भारत ने लंदन में उसके भाई के माध्यम से वर्दी, आयुध, मोर्टार, छोटे आयुध, नवीनीकृत कलाश्निकोव, लड़ाकू और सर्दियों के कपड़े, डिब्बाबंद भोजन, दवाएं, धन और दो एमआई -8 हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति की ।
2001 में अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी गई ।वर्तमान में उनका बेटा अहमद मसूद तालिबान शासन के गठन का विरोध कर रहा है।
एक अन्य प्रभावशाली व्यक्ति अफगानिस्तान के पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह हैं, जो भारत के पक्षधर हैं। वर्तमान में वे पंजशीर घाटी से तालिबान के विरुद्ध युद्ध कर रहे है। वे जाने-माने योद्धा हैं और भारत को उनके साथ नियमित रूप से जुड़ना चाहिए।
भारत को अपदस्थ राष्ट्रपति अशरफ गनी और पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। उन्होंने अफगानिस्तान के पतन में एक बड़ी भूमिका निभाई और अफगान नागरिकों के बीच वे अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं । भारत अफगानिस्तान के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ बातचीत जारी रख सकता है।
रूस और ईरान
रूस और ईरान इस क्षेत्र के दो बहुत महत्वपूर्ण खिलाड़ी देश हैं। इस तथ्य के बावजूद कि रूस की अफगानिस्तान के साथ कोई सांझी सीमा नहीं है, फिर भी वह दो मुद्दों पर अत्यधिक संवेदनशील है। सबसे पहले, उन्हे यह डर है कि तालिबान रूस में चेचन विद्रोहियों की सहायता करेगा, और दूसरी बात यह , कि वह किसी तीसरे पक्ष द्वारा मध्य एशियाई क्षेत्र (सीएआर) पर अपनी पकड़ को अस्थिर करने के विचार से घृणा करता है। तजिकिस्तांन् में बाजाई गोनबाद की सीमा से लगे अफगान वखान कॉरिडोर के उत्तर में चीनी अर्धसैनिक बलों की मौजूदगी से रूस पहले से ही परेशान है।
दूसरा बिंदु भारत के पक्ष में है। भारत को रूस पर अपना प्रभाव डालना होगा और उन्हें समझाना होगा कि चीन और पाकिस्तान किस प्रकार से सीएआर में रूसी भूमिका को कम कर सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में कुछ काम पहले से ही हो रहा है। तालिबान के समर्थन की तलाश में ताजिकिस्तान गए पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी को झिड़क दिया गया और वे खाली हाथ लौट आए।
ईरान की आशंकाए भी रूस के समान ही हैं। उनका डर अफगानिस्तान में शिया अल्पसंख्यकों के लिए हैं। भले ही तालिबान ने उन्हें सहयोग का आश्वासन दिया हो, परंतु उन्हें डर है कि तालिबान शासन का रुख आईएसआईएस और अफगान धरती से ईरान विरोधी गतिविधियों के उदय पर नरम हो जाएगा। भारत द्वारा ईरान को हर संभव सहायता प्रदान किये जाने के प्रति आश्वस्त करना होगा और इसके बदले क्षेत्र में सहयोग की मांग करनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर द्वारा हाल ही में ईरान के दौरे की हड़बड़ी इस बात की संकेतक हैं कि भारत सही दिशा में बढ़ रहा है।
चीन और पाकिस्तान
यह सर्वविदित तथ्य है कि तालिबान के उदय के पीछे पाकिस्तान की इंटर-सर्विस इंटेलिजेंस (आई एस आई) पूरी निष्ठा से शामिल है। यह चीन के साथ पूरा सहयोग और समन्वय कर रहे है,जबकि अमेरिका की पीठ में छुरा घोंप रहे हैं। तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच जुलाई में हुई बैठक में तालिबान के अभूतपूर्व उदय की साजिश की पुष्टि हुई।
26 अगस्त 2021 को काबुल हवाईअड्डे पर हुई दुर्भाग्यपूर्ण बमबारी से इस तेज घटनाक्रम में एक बदलाव आया । घटना के पूर्ण मूल्यांकन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या पाकिस्तान और चीन मौजूदा निकासी प्रयासों के विरोध में इन बलों की सहायता कर रहे थे? यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि यह बमबारी ,निकासी के प्रयासों को कमजोर करने और संयुक्त राज्य अमेरिका और इस प्रयास में शामिल अन्य पश्चिमी देशों को अपमानित करने के लिए थी।
पाकिस्तान और चीन के संरक्षण में तालिबान भारत को कमजोर करने का कितना भी प्रयास करे , परंतु वास्तविकता यह है कि अफगान नागरिकों के बीच भारत की छवि बहुत अच्छी है। हाल की धमकियों और घटनाओं के बावजूद, भारत को अपने बुनियादी ढांचे और स्वास्थ्य देखभाल परियोजनाओं को जारी रखना चाहिए। भारत के बीस वर्षों के प्रयासों को केवल इसलिए हटाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि आज स्थिति अनुकूल नहीं है। भारत अपनी गति कुछ समय के लिए धीमी कर सकता है लेकिन पूरी तरह से पीछे नहीं हटना चाहिए।
आने वाला प्रचार युद्ध
अफगानिस्तान में निवेश करने वाले सभी देशों को न केवल तालिबान से, बल्कि चीन और पाकिस्तान से भी एक प्रचार युद्ध का सामना करना पड़ सकता है। तालिबान एक दशक से अधिक समय से अपनी सोशल मीडिया छवि में सुधार करने के साथ-साथ दुष्प्रचार की रणनीति पर भी काम कर रहा है। तालिबान 2.0 निश्चित रूप से एक बदली हुई इकाई है,केवल दुनिया से जुड़ने के प्रयास में उन्होंने अपनी मध्यकालीन छवि को छोड़ कर आधुनिक तकनीक का उपयोग करने की इच्छा प्रकट की है। पूरी संभावना है कि पाकिस्तान की आईएसआई और चीनी एजेंसियां इसकी मॉनिटरिंग कर रही थी।
तालिबान ने सीरिया में अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी इस्लामिक स्टेट की अत्यधिक प्रभावी प्रचार तकनीकों से कई सबक सीखे। उन्होंने टेलीग्राम और व्हाट्सएप चैनल लॉन्च किए। उन्होंने आईएसआईएस लड़ाकों को ट्रैक करने और उन्हे मारने के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन बलों की प्रणालियों का अध्ययन किया, जिसमे सोशल मीडिया का अत्यधिक प्रयोग उनके स्थान का पता लगा लेगा ।
उन्होंने सोशल मीडिया की ताकत को तब समझा जब उन्हें पता चला कि लगभग ४० प्रतिशत अफगानों के पास इंटरनेट है और लगभग ९० प्रतिशत से अधिक के पास मोबाइल डिवाइस है। तालिबान ने महसूस किया कि अगर उन्हें आने वाले वर्षों में अफगानिस्तान पर शासन करना है, तो उन्हें अपनी छवि पर काम करना होगा और एक दुष्प्रचार अभियान की तैयारी करनी होगी। 2019 में न्यूजीलैंड में मुस्लिम विरोधी आतंकवादी हमले के तुरंत बाद, जब सभी आतंकवादी समूह बदला लेने की मांग कर रहे थे, तालिबान ने अपनी छवि को मजबूत करते हुए जिहाद की बजाय जांच की मांग की।
हाल ही में काबुल में बिना खून बहाये हुए अधिग्रहण के दौरान, उन्होंने एक बार फिर सोशल मीडिया पर प्रचार वीडियो से जोरदार प्रहार किया। वे उन स्थानों पर अपनी जीत प्रदर्शित कर रहे थे जहां अभी युद्ध जारी था। सोशल मीडिया भी खूंखार बद्री 313 विशेष बलों की इकाइयों द्वारा तेजी से अभियान चलाने से प्रवाह में आ गया । स्मार्टफोन चलाने वाले तालिबान लड़ाकों ने एक राष्ट्रीय सेना को हरा दिया, जो पिछले 20 वर्षो से इस दिन के लिए तैयारी कर रही थी।
तमाम जश्नों के बावजूद चीन की राह आसान नहीं होगी। वे अनजान हैं और नहीं जानते कि आने वाले दिनों में देश पर कौन राज करेगा? हालांकि, चीन पश्चिमी दुनिया विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका को नीचा दिखाने के हर अवसर का उपयोग करेगा। वे पहले ही एक बड़े प्रचार युद्ध में उतर चुके हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका की गिरती हुई साख को प्रदर्शित करने तथा यह दिखाने के लिए कि वे देश कितने असुरक्षित हैं जो अमेरिकी मदद पर निर्भर हैं, वीडियो तथा पैसे दे कर लिखवाये गए लेखों का सहारा ले रहे हैं।
सबसे बड़ा दुष्प्रचार युद्ध आईएसआई द्वारा किया गया। बाहरी लोगों से ज्यादा यह दुष्प्रचार पाकिस्तानी नागरिकों के लिए होगा। एक छोटे से देश के लिए इतने बड़े सैन्य बजट को न्यायसंगत ठहराने के लिए, वे भ्रम पैदा करेंगे कि कैसे उन्होंने दो महाशक्तियों को हराया। आतंकवादी आश्रय दाताओं के लिए राह आसान नहीं होगी। सैमुअल जॉनसन ने एक बार कहा था, कि”आदत की जंजीरें तब तक कमजोर लगती हैं जब तक वे तोड़ने के लिए मजबूत न हों “। पाकिस्तान के चारों ओर फंदा कसता जा रहा है। देर सवेर देश की हकीकत का पर्दाफाश हो जाएगा, विशेषरूपसे अफगानिस्तान में उनकी भूमिका के बाद, उन्हें एफएटीएफ की ब्लैकलिस्ट के करीब धकेल दिया जाएगा।
दुख का कोई अंत नहीं है
“हमें याद रखना चाहिए, शक्तिशाली राष्ट्र इतिहास पर जो निशान छोड़ते हैं, वे अक्सर निशान होते हैं”
अफगानिस्तान की अनिश्चित स्थिति भारत सरकार और सुरक्षा बलों को आने वाले लंबे समय तक हाई अलर्ट पर रहने के लिए विवश करेगी। तालिबान के मजबूत होने से आईएसआई दुनिया में ड्रग्स का बादशाह बन जाएगा। सालाना 30 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की हेरोइन पाकिस्तान से होकर गुजरती है। व्यापार में आईएसआई का लाभांश 90 प्रतिशत से अधिक है। नशीली दवाओं के अवैध धन से, जो पाकिस्तान के रक्षा बजट का तीन गुना है, आईएसआई इस क्षेत्र में तबाही मचा सकता है।
पाकिस्तान और चीन की सीमा से लगे भारतीय राज्यों को आतंकी गतिविधियों और दुष्प्रचार के हमलों का सामना करना पड़ेगा। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में शांति के बाद एक बार फिर से आतंकवाद ने जोर पकड़ लिया है. उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी चीन के दुष्प्रचार अभियानों के साथ-साथ आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि देखी गई है।
ताजिकिस्तान मे गिसार एयरबेस, फार्कखोर बेस और चीनी तैनाती
देश को आंतरिक रूप से सुरक्षित करने के अतिरिक्त, भारत को अन्य क्षेत्रों में भी इसका विस्तार करने की आवश्यकता होगी। ताजिकिस्तान आईएसआई और तालिबान की गतिविधियों से सतर्क है। उन पर रूस का भी दबाव है। वे भारत को अस्पताल सुविधाओं के साथ-साथ गिसार मिलिट्री एयरोड्रोम (जीएमए) और फरखोर बेस को सक्रिय करने की अनुमति देने के इच्छुक होंगे। इन दोनों ठिकाने से भारत सीएआर में बहुत मजबूत स्थिति में आ जायेगा। यह स्थान भारत को वखान कॉरिडोर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) की गतिविधियों पर नजर रखने का अवसर भी प्रदान करेगा । आवश्यकता पड़ने पर ये स्थान नॉर्दंनआलाइंस को किसी प्रकार की सहायता प्रदान करने के लिए भी सबसे उपयुक्त होंगे।
इस क्षेत्र की वर्तमान नाजुक स्थिति को देखते हुए, पिछली भारतीय सरकारों द्वारा अफगानिस्तान की सैन्य व्यवस्था में शामिल नहीं होने के लिए किया गया निर्णय उचित था। भारत सरकार का स्टैंड ऐसा ही रहेगा। भारत को उस दिन का शांति पूर्वक इंतजार करना चाहिए जब परिस्तिथियां चीन को पाकिस्तान के कदम जमीन पर रखने के लिए मजबूर कर देंगी। उस दिन भारत नेपोलियन बोनापार्ट के उन शब्दों को याद रखेगा, “जब वह गलती कर रहा हो तो अपने दुश्मन को कभी बाधित न करें।”
अफगानिस्तान में निकासी की पराजय के बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका न तो झुका है और न ही बाहर हुआ है है।संयुक्त राज्य अमेरिका के कुप्रबंधन के मद्देनजर भारत के भीतर और बाहर से अनेक कहानियाँ भारत की ओर अपना रुख करेंगी । भारत को मूल योजना पर ही कायम रहना चाहिए। क्यूकि यह क्षेत्र अनिश्चितता के एक और दुखद दौर तथा बहुध्रुवीय दुनिया की ओर अग्रसर हो रहा है, अत भारत को पहले से अधिक सहयोगियों की आवश्यकता होगी।
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References
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Vishva Deepak Tripathi