अफगानिस्तान में एक विरोधाभास है, यह एक राष्ट्र है, लेकिन साथ ही यह एक राष्ट्र नहीं भी है। इसमें अलग-अलग जाति के कई आदिवासी समूह रहते हैं, जो अलग-अलग भाषाएँ और बोलियाँ बोलते हैं। इनकी आदिवासी वफादारी, रीति-रिवाज और अपनी परंपराएँ हैं। यहाँ सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली भाषाएँ पश्तो और दारी हैं। यह ‘साम्राज्यों के कब्रिस्तान’ के रूप में जाना जाता है, जो महाराजा रणजीत सिंह के शासन में जनरल हरि सिंह नलवा के नेतृत्व वाली सिख सेना की जीत के एकमात्र अपवाद के अलावा कभी भी किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं रहा है। वास्तव में, सिकंदर ने कहा था कि ‘अफगानिस्तान में घुसना आसान है, लेकिन बाहर निकलना मुश्किल’ है। इसके भू-राजनीतिक आयाम को देखते हुए, अफगानिस्तान के पास अपनी सीमाओं को आधार बनाने वाली कोई प्रमुख प्राकृतिक विशेषता नहीं है।
19वीं शताब्दी के दौरान मध्य एशिया में खेले गए ‘ग्रेट गेम’ के परिणामस्वरूप, पहाड़ी जंगल और रेगिस्तान के एक क्षेत्र में इसे एक ‘राष्ट्र राज्य’ के रूप में उकेरा गया था, जहाँ हिंदू कुश रेंज के पूर्व और दक्षिण में छोटी-छोटी जागीरें थीं। पामीर के पहाड़, इसकी पूर्वी सीमा डूरंड रेखा बनाते है। इसे ब्रिटिश और रूसी साम्राज्यों के बीच आधार बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया था। अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा का निर्धारण दो विरोधी शक्तियों द्वारा बनाये गए पामीर सीमा आयोग (1884-86) द्वारा तय किया गया था। वे वखान गलियारे को तैयार करने की हास्यास्पद हद तक चले गए, एक संकीर्ण पच्चर (15-25 किलोमीटर चौड़ा) जो पूर्व में चीनी सीमा पर लगभग 350 किलोमीटर तक फैला हुआ था, जिसके कारण यह दोनों साम्राज्य निकटवर्ती नहीं है।
अफगानिस्तान हिंसक योद्धाओं का देश है, पूरी तरह से घिरा हुआ है, मध्य-दक्षिण एशिया के चौराहे पर स्थित है और भारत का प्रवेश द्वार है। प्रमुख जनजातियां पश्तून (अधिकांश तालिबान पश्तून हैं), हजारा, ताजिक, उज़्बेक, ऐमक, तुर्कमेन, नूरिस्तानी, बलूच हैं। 2000 साल पहले अफगानिस्तान में हुई लड़ाई के बारे में अपनी मां को लिखे एक पत्र में सिकंदर ने कहा था कि, ‘मैं एक “लियोनिन” (शेर की तरह) और बहादुर लोगों की भूमि पर हूं, जहां जमीन पर रखा हर कदम स्टील की दीवार की तरह है। जिनका सामना मेरे सैनिक कर रहे हैं। आप दुनिया में सिर्फ एक सिकंदर को लाई हैं, लेकिन इस धरती की हर मां एक सिकंदर को दुनिया में ले आई है’ (फ्रैंक एल होल्ट)।
दुर्रानी शासक अहमद शाह ने 1747 में अफगानिस्तान को एकजुट किया और 1760 तक उसने अपने साम्राज्य का विस्तार दिल्ली तक कर लिया था। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में अफगानिस्तान अमीरात एक राज्य बन गया और 1926 में अमानुल्लाह खान का शासन शुरू हुआ जो लगभग आधी सदी तक चला। उनके उत्तराधिकारी ज़हीर खान को अंततः 1973 में उखाड़ फेंका गया और अफगानिस्तान एक गणतंत्र बन गया। उसके तुरंत बाद, यह एक समाजवादी राज्य बना। इसने मुजाहिदीन के विद्रोह को उकसाया और 1979 में सोवियत संघ के सशस्त्र हस्तक्षेप हुआ। सोवियत-अफगानिस्तान मैत्री संधि का सम्मान करने के लिए सोवियत संघ ने मध्यस्थता की। हालांकि 1978 में, सोवियत संघ को वापसी के लिए मजबूर किया गया था। प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार एलन टेलर के अनुसार, एक दशक के हिंसक युद्ध में लगभग एक लाख नागरिक मारे गए, जिसमें 90,000 मुजाहिदीन, 18,000 अफगान सैनिक और 14,500 सोवियत सैनिक थे। मुजाहिद्दीन को यह सफलता काफी हद तक पाकिस्तान के आईएसआई के माध्यम से अमेरिका से प्राप्त होने वाली सैन्य और वित्तीय मदद के कारण मिली। वे आधुनिक हथियारों से लैस थे, हाथ में विमान-रोधी स्टिंगर मिसाइलें थीं और उन्हें अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में स्थित शिविरों में प्रशिक्षित किया गया था। अफगानिस्तान की सोवियत नेतृत्व वाली सेनाओं की हार का 1991 में सोवियत साम्राज्य के पतन और शीत युद्ध की समाप्ति में महत्वपूर्ण योगदान था।
सोवियत सेना की वापसी के बाद 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत में अराजक गृहयुद्ध की स्थिति से तालिबान का उदय हुआ। इसका नेतृत्व मुजाहिदीन के पूर्व नेता मुल्ला मोहम्मद उमर ने किया। वह पश्चिमी पाकिस्तान के मदरसों से ज्यादातर पश्तून मूल के छात्रों (तालिबों) को इकट्ठा करने में सक्षम था, यह इस्लाम के देवबंदी का पालन करते थे, और सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध लड़ने को वरीयता देते थे। तालिबान की वर्तमान ताकत लगभग 70,000 स्थानीय आतंकवादियों से है। यह विभिन्न जातीय समूहों के उग्रवादियों का समूह है, हालांकि इनमें अधिकांश पश्तून ही है।
अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद करने की भारत की नीति और किसी सैन्य भागीदारी के बिना, विकास के उद्देश्य से की गयी साझेदारी के लिए हाल में हुई घटनाओं के समय तक उस देश के लोग भारत की बहुत सराहना करते थे। भारत ने विभिन्न बुनियादी परियोजनाओं पर 22,000 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया है। मेरे विचार में, इनमें सबसे महत्वपूर्ण अफगानिस्तान के संसद भवन का निर्माण है। हालांकि पाकिस्तान उन तालिबान, हक्कानी समूह और अन्य आतंकवादी समूहों का समर्थन करता रहा है, जिन्होंने अफगानिस्तान पर अधिकार किया है, परंतु तालिबान पाकिस्तान पर भरोसा नहीं करता और कहता हैं कि ‘एक तरफ वे हमें खिलाते हैं और दूसरी तरफ उन्होंने हमें मार डाला है’। अफगानिस्तान के लोग भी वास्तव में पाकिस्तान के बजाय भारत का साथ पसंद करते हैं।
यह 2008 की बात है, जब नई दिल्ली में एक निजी रात्रिभोज में डॉ हेनरी किसिंजर और मेरे बीच दिलचस्प बातचीत हुई। डॉ किसिंजर ने इस सवाल के साथ शुरुआत की कि, “‘जनरल, अफगान स्थिति पर आपके क्या विचार हैं और हमें क्या करना चाहिए?”
मैंने कहा “‘संक्षेप में, महामहिम, जैसा कि आप जानते हैं कि अफगानिस्तान ऐतिहासिक रूप से कभी भी किसी बाहरी शक्ति के अधीन नहीं रहा है। आदिवासियों के सरदार और उनके लड़ाकू बहुत शक्तिशाली होते हैं और बिना किसी चुनौती के उनका अधिकार कायम रहता है। उनके समर्थन के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। आपको उन्हें अपने पक्ष में रखना होगा। रूसियों को हराने के बाद, तालिबान और अल कायदा ने अपनी मूंछ ऊपर कर ली है, लेकिन अब जब आप इन पर भारी हैं- तो छोड़ो मत। नहीं तो इस स्थिति में वे यह मानने लगेंगे कि उन्होंने अमेरिकियों को भी हरा दिया है, और दुनिया उनके कदमों पर है’। मैं यह कहने की हिम्मत करता हूं कि राष्ट्रपति बाइडेन ने अमेरिकी सेना को अपमानजनक और असंबद्ध तरीके से हटाकर, उनके अधिकांश स्थानीय सहयोगियों और समर्थकों को उनके हालात पर छोड़ कर ठीक नही किया है। उनमें से कई भाग गए हैं या दयनीय स्थिति में हैं। कुछ को मार डाला गया या वे काल कोठरी में डाल दिये गये। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और उनके पूर्ववर्ती हामिद करजई ने अपने परिवारों और करीबी सहयोगियों और कुछ महत्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों के साथ काबुल में तालिबान के पतन से ठीक पहले अमेरिका या अन्य देश में पलायन कर लिया।
तालिबान 2.0 को अभी पहले के संस्करण से बहुत अलग नहीं कहा जा सकता, हालांकि उन्होंने घोषणा की है कि वे दुनिया के लिए स्वीकार्य होने की लिए एक उदारवादी और कम कठोर इस्लामी शासन होने की कोशिश करेंगे। परंतु, उनकी विचारधारा का आधार नहीं बदला है और इसलिए विवेक की मांग है कि हम प्रतीक्षा करें और देखें कि क्या उनके कार्य उनके शब्दों से मेल खाते हैं? वर्तमान में वे मिश्रित संकेत दे रहे हैं। उन्होंने महिलाओं की बाहर जाकर काम करने की स्वतंत्रता, शिक्षा संस्थाओं में उन पर रोक लगाने के साथ साथ लड़कियों को खेलों से ‘बाहर’ रखने के नियम बनाये हैं। उनके नेताओं ने वचन दिया कि अफगानिस्तान किसी भी अंतरराष्ट्रीय या अन्य आतंकवादी समूहों/व्यक्तियों को अपनी धरती से संचालन की अनुमति नहीं देगा, और न ही अफगानिस्तान खुद को किसी पड़ोसी राज्य के प्रॉक्सी के रूप में इस्तेमाल किये जाने की अनुमति देगा। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा है कि वे अल्पसंख्यक अधिकारों का सम्मान करेंगे (महत्वपूर्ण रूप से अफगान सिख और हिंदू, भले ही वर्तमान में बहुत कम बचे हों)। भारत की अधिक रुचि तालिबान द्वारा यह कहे जाने में है कि वे कश्मीर पर भारत-पाक ‘द्विपक्षीय विवाद’ में शामिल नहीं होंगे।
आज अफगानिस्तान को निशाना कौन बना रहा है, इस सवाल का जवाब वहां के जटिल, अस्पष्ट और धूमिल वातावरण की वजह से अभी स्पष्ट नहीं है। साथ ही, अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि काबुल में नया शासन पूरे अफगानिस्तान को नियंत्रित कर पाता है या नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि तालिबान 2.0 एक ‘समरूपी’ समूह नहीं है । नई सरकार के गठन के दौरान दो प्रमुख और शक्तिशाली समूहों और बाहरी ताकतों के प्रभाव और दबाव के पर्याप्त सबूत हैं। ये तालिबानी (पश्तून) समूह हैं, जिसका नेतृत्व उनके सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा कर रहे हैं, तथा अब्दुल गनी बरादर और हक्कानी समूह के सिराजुद्दीन हक्कानी (पाकिस्तान के आईएसआई द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित और अल कायदा के साथ संबंध रखने वाले हक्कानी समूह का नेतृत्व करने वाले) डिप्टी पीएम हैं। तालिबान के संस्थापक मोहम्मद उमर के बेटे मुल्ला मोहम्मद याकूब सैन्य कमांडर हैं और अब्दुल हकीम इशाकजई दोहा में राजनीतिक कार्यालय और वार्ताकारों की टीम के प्रमुख हैं। हसन यासर मलिक ने अपने शोध किए गए लेख ‘अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता’ में संक्षेप में कहा है कि ‘अफगानिस्तान का जातिगत विभाजन किसी भी सरकार को अपनी नीतियों को लागू करने की अनुमति नहीं देता।’
तालिबान 2.0 को अपनी सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता और अनुमोदन की तलाश है। उनके पहले शासन को केवल पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई द्वारा औपचारिक रूप से मान्यता दी गई थी। आईएमएफ के प्रवक्ता के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि ‘अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अफगानिस्तान सरकार को मान्यता देने के संबंध में स्पष्टता की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप देश एसडीआर या अन्य आईएमएफ संसाधनों तक अपनी पहुंच नहीं बना पा रहा’। तालिबान शासन के लिए बाहरी वित्तीय सहयोग के बिना सरकार चलाना बेहद मुश्किल होगा। लगभग 70 बिलियन डॉलर की जीडीपी और 5 बिलियन डॉलर के नकारात्मक व्यापार संतुलन के साथ, अवैध ड्रग व्यापार और खनन का सहारा लेना एक वास्तविकता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने चेतावनी दी है कि अगर दुनिया की मदद नहीं मिलती, तो अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था का पतन निश्चित है। अमेरिका और अन्य देशों में उनकी संपत्तियों पर रोक लगा दी गई है और अंतरराष्ट्रीय निकायों से मिलने वाली सहायता भी रोक दी है, अफगानिस्तान आज एक बड़े नकदी संकट का सामना कर रहा है।
तालिबान द्वारा तेजी से कब्जा करने और अशरफ गनी सरकार के रातोंरात गायब हो जाने से अधिकांश देश आश्चर्यचकित रह गये। इस समय पाकिस्तान को छोड़कर कोई भी देश अफगानिस्तान में नए शासन को औपचारिक रूप से मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। अनौपचारिक स्तर पर बातचीत हो रही है जिसमें अमेरिका, रूस, चीन, ईरान और भारत सहित कई देश तालिबान 2.0 की नीतियों को समझना चाहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र उभरती हुई स्थिति का विश्लेषण कर रहा है और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की गारंटी मांग रहा है। दुनिया के कई देशों ने मांग की है कि तालिबान को अल कायदा और अन्य प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों के साथ अपने संबंधों के प्रति सख्ती बरतनी होगी और ऐसे संगठनों या व्यक्तियों के एक सुरक्षित आश्रय के रूप में अफ़गानिस्तान का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए, ऐसे किसी भी समूह को पड़ोसी देश पर आतंकवादी हमलों की अनुमति नहीं देनी चाहिए। वे अन्य किसी भी देश या अमेरिका पर 9/11 की तरह के हमले न होने दें। तालिबान शासन को मान्यता प्राप्त करने के लिए व्यवहार के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मानदंडों का प्रदर्शन करना होगा, विशेष रूप से महिलाओं और बालिकाओं के संबंध में यह बहुत जरूरी है। चीन और पाकिस्तान, जो तालिबान के सबसे निकट हैं उनको छोड़ के अधिकांश देश अभी इंतजार करेंगे और स्थिति को देखेंगे।
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