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Geopolitics & National Security
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दूसरा क्वाड सम्मेलन- कहाँ तक भारतीय हित में

कोमोडोर अभय कुमार सिंह (सेवानिवृत्त)
शनि, 25 सितम्बर 2021   |   8 मिनट में पढ़ें

वाशिंगटन में शुक्रवार को इंडो-पैसिफिक में  क्वाड के चार नेताओं का पहला  व्यक्तिगत  रूप से उपस्थिति का शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, क्योंकि यह 2007 में एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) मनीला के शिखर सम्मेलन  के पूरे एक दशक पश्चात पुनर्जीवित हुआ था। वर्ष 2019 में सभी चार देशों के विदेश मंत्रियों के साथ संयुक्त राष्ट्र के निर्धारण के लिए बैठक करने के साथ ही क्वाड वार्ता को मंत्रिस्तरीय स्तर तक बढ़ा दिया गया था। इस शिखर सम्मेलन मे सभी चारों राष्ट्राध्यक्षों की उपस्थिति महत्वपूर्ण है, परंतु जापान के प्रधान मंत्री सुगा की उपस्थिति पर संदेह है, क्योंकि उन्होंने  इस माह के आरंभ में ही पद छोड़ने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी।

इंडो-पैसिफिक के प्रति अमेरिकी दृष्टिकोण के सबंध में आशंकाओं को दूर करते हुए राष्ट्रपति  बाइडन ने न केवल “स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक” का उत्साहपूर्वक समर्थन किया है, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा में “इंडो-पैसिफिक की केंद्रीयता” की भी पुष्टि की है। इससे पूर्व मार्च में अमेरिकी राष्ट्रपति जो. बाइडन ने प्रधान मंत्री मोदी और उनके ऑस्ट्रेलियाई एवं जापानी समकक्षों, स्कॉट मॉरिसन और योशीहिदे सुगा के साथ  वर्चुअल क्वाड शिखर सम्मेलन आयोजित किया। इंडो-पैसिफिक के प्रति बाइडन का दृष्टिकोण पूर्व ट्रम्प प्रशासन से पूरी तरह से परिवर्तित था, वर्चुअल क्वाड समिट के संयुक्त बयान में उनके विशिष्ट व्यावहारिक दृष्टिकोण का संकेत मिला, जो क्वाड सदस्यों की “क्षमताओं के प्रति नरम रुख पर केंद्रित था, तथा इंडो-पैसिफिक की सार्वजनिक-आवश्यकताओं  के अनुरूप  था।  साथ ही  इसमें यह संकेत भी दिया गया कि  इस  समूह की स्थापना चीन के प्रति प्रतिरोध  बढ़ाने के लिए  नहीं हुई।

इस सहयोगात्मक कार्रवाई का उद्देश्य “एक ऐसे क्षेत्र की स्थापना करने का प्रयास  है जो स्वतंत्र, खुला, समावेशी, स्वस्थ, लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़ा हो, और  जिसमे  किसी प्रकार की जबरदस्ती प्रतिबंधित हो। प्रमुख चुनौतियों को “कोविड -19 के आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों, जलवायु परिवर्तन, “साइबर स्पेस, महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों, आतंकवाद विरोधी बुनियादी ढांचे की निवेश गुणवत्ता के साथ साथ मानवीय सहायता और आपदा राहत एवं समुद्री चुनौतियों सहित अन्य संयुक्त चुनौतियों” के रूप में नोट किया गया।

मार्च में पिछले वर्चुअल सम्मेलन के पश्चात से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनीतिक मंथन काफी तेज हो गया, साथ ही हिन्द-प्रशांत के संबंध में अमेरिकी रणनीति उत्तरोत्तर स्पष्ट हो रही है, अफगानिस्तान से इसकी अराजक वापसी से इस क्षेत्र के प्रति वाशिंगटन के दृष्टिकोण के संबंध में संदेह उत्पन्न हो गए थे। अन्य महत्वपूर्ण विकास, एयूकेयूएस (ऑस्ट्रेलिया-यूके-यूएस) सुरक्षा गठबंधन है, जिसका उद्देश्य चीन को एक मजबूत  प्रतिरोधी संकेत देना था, जिससे पेरिस और आसियान सदस्यों के बीच चिंताएं बढ़ गयी। इस लेख में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में हो रहे मंथन और क्वाड समिट चर्चाओं पर इसके प्रभाव की समीक्षा  की गयी है।

अपने अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतिक मार्गदर्शन में बाइडन प्रशासन ने परस्पर गठजोड़ और साझेदारी को मजबूती प्रदान करके ट्रम्प प्रशासन द्वारा चीन के साथ की गयी प्रतिस्पर्धा को बड़ा कर दोगुना कर दिया है। बाइडन ने पूर्व राष्ट्रपति की भाँति अलगाववादी नीतियों का अनुपालन करने के स्थान पर विश्व के साथ जुड़ने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और सहयोगियों और भागीदारों के साथ काम करके अमेरिकी हितों को सुरक्षित करने का वादा किया है।

इस सख्त रुख में चीन को एक ‘मुखर’ शक्ति और रूस को ‘अस्थिर करने वाली’ शक्ति  वाला देश होने  का स्पष्ट संकेत था। इसके अतिरिक्त, अमेरिका के सहयोगी देशों और भागीदारों को शामिल करके एक संयुक्त  मोर्चा स्थापित किया जायेगा जिसके  माध्यम से  ‘चीन जैसे देशों पर दबाव बनाये रखने’ का वादा किया जायेगा। बाइडन टीम द्वारा चीन के साथ प्रतिस्पर्धा को एक दीर्घकालिक वैश्विक चुनौती के रूप में  देखा जाता है –  निकटवर्ती क्षेत्रीय अनिवार्यता के रूप में  नहीं। इस एजेंडे ने बीजिंग के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, साइबर कदाचार, मानवाधिकारों के हनन और तकनीकी जैसे मुद्दों पर  एक साथ पीछे हटने  को प्राथमिकता दी।

इस क्षेत्र में चीनी मुखरता के विरुद्ध स्पष्ट संकेत के बावजूद, तालिबान के तेजी से कब्जे के कारण अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की अराजक वापसी ने अमेरिकी विश्वसनीयता को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया है। अनेक लोगों ने तर्क दिया कि अफ़ग़ानिस्तान से इस वापसी के परिणाम गंभीर होंगे। अमेरिका की इच्छा और विरोधियों का सामना करने, सहयोगियों के साथ खड़े होने और चुनौती दिए जाने पर दृढ़ रहने की  उनकी क्षमता पर  संदेह होगा।

साथ ही यह भी तर्क दिया गया है कि अफगानिस्तान पर किये  गए व्यय के बोझ और रणनीतिगत बंधनों से मुक्त, वाशिंगटन अब चीन और रूस से मिलने वाली गंभीर चुनौतियों के लिए अधिक ध्यान और अतिरिक्त संसाधन प्रदान कर सकता है। यद्यपि अफगानिस्तान में रणनीतिक बंधन से मुक्ति अमेरिका के लिए उनका दीर्घकालिक रणनीतिक हित हो सकता है, परंतु इस गतिरोध ने भारत की रणनीतिक गणना को जटिल बना दिया है।

भारत के पश्चिम में तनाव बढ़ने की संभावना है क्योंकि पाकिस्तान और चीन परस्पर सहयोग बढ़ाएंगे और अफगानिस्तान को अपने नए त्रिपक्ष में शामिल करना चाहेंगे। अफगानिस्तान में स्थिति स्थिर बनी हुई है और अभी स्पष्ट विजेता अथवा पराजय का निर्णय करना जल्दबाजी होगी। लंबी अवधि में यह मिश्रित संकेतों और छूटे हुए अवसरों के मामले के रूप में सामने आ  सकता है। यद्यपि, भारत में पर्यवेक्षक इस तथ्य का बारीकी से अध्ययन कर रहे होंगे कि क्वाड भारत की रणनीतिक जटिलता को कम करने में सक्षम होगा या नहीं।

इंडो-पैसिफिक अर्थात ऑस्ट्रेलिया-यूके-यूएस (एयूकेयूएस) रक्षा समझौते में नए सुरक्षा गठबंधनों की अचानक घोषणा का मंथन किया जा रहा है। जहां एक ओर यूएस-ऑस्ट्रेलिया और दूसरी ओर यूके-ऑस्ट्रेलिया के  मध्य विशेष संबंध थे, वहीं तीनों का एक साथ आना वास्तव में एक आश्चर्य है। इसके  अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया को परमाणु ऊर्जा से  परिचालित पनडुब्बियों की आपूर्ति करने का अमेरिका का निर्णय, एक महत्वपूर्ण निर्णय है। शीत युद्ध के सामरिक संदर्भ ने अमेरिका को ब्रिटेन के साथ परमाणु पनडुब्बी प्रौद्योगिकी साँझा करने के लिए प्रेरित किया। ऑस्ट्रेलिया को परमाणु प्रौद्योगिकी के मौजूदा हस्तांतरण की गोपनीयता को अमेरिका और चीन के बीच  उभरते हुए “शीत युद्ध” के रूप में  देखा जा रहा है, भले ही यूएस-चीन संबंधों की स्थिति का वर्णन करने के लिए यह  आधिकारिक  नहीं है।

एयूकेयूएस, परमाणु प्रणोदन तकनीक से कहीं अधिक है और इसमें रणनीतिक सहयोग के अन्य क्षेत्र, जैसे पानी के नीचे की तकनीकें, जिसके अंतर्गत पानी के नीचे की समुद्री केबलों की सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), क्वांटम कंप्यूटिंग, समुद्र और हवा से लॉन्च की जाने वाली मिसाइलें आदि शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, इसका उद्देश्य ऑस्ट्रेलिया की सैन्य शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि करना और आने वाले दशक में  अमेरिका से और भी अधिक घनिष्ठता से  जुड़ना है।

ऑस्ट्रेलिया ने अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी और चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंधों का चतुराई से प्रबंधन करके आर्थिक और रणनीतिक अनिवार्यताओं के  मध्य एक नाजुक संतुलन बनाने का प्रयास किया है। चीन के साथ टकराव होने की आर्थिक लागत की चिंताओं के साथ साथ ऑस्ट्रेलिया चीन के संबंध में अमेरिकी नीतियों का समर्थन करने के लिए अनिच्छुक रहा है। यद्यपि, बढ़ती चीनी मुखरता ने ऑस्ट्रेलिया को अमेरिका के साथ घनिष्ठता के लिए मजबूर  किया है। दक्षिण और पूर्वी चीन सागर में तथा ताइवान के प्रति अपनी आक्रामक नीतियों के अतिरिक्त चीन ऑस्ट्रेलिया को बुरी तरह से धमका रहा है और  उस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए गए है। एयूकेयूएस द्वारा   भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तारवाद और आधिपत्य की नीतियों पर अंकुश लगाने  में ऑस्ट्रेलिया को अधिक मजबूत भागीदार बनाने की  रूपरेखा निर्धारित  की है।

जबकि एयूकेयूएस एक सुरक्षा समझौता है जिसका उद्देश्य इंडो-पैसिफिक में चीन के  आक्रामक दृष्टिकोण और आक्रामक सैन्य-फ्लेक्सिंग को नियंत्रित करना है, इसने फ्रांस को  अत्यधिक आर्थिक क्षति पहुंचाई है। एयूकेयूएस सौदे ने पेरिस में घबराहट पैदा कर दी क्योंकि इसने रॉयल ऑस्ट्रेलियाई नौसेना के लिए बारह शॉर्टफिन बाराकुडा पारंपरिक पनडुब्बियों के लिए 2016 में हस्ताक्षरित लगभग $60 बिलियन के नौसेना समूह अनुबंध को रद्द कर दिया है। फ्रांस न केवल एक आकर्षक रक्षा सौदे को खोने के कारण परेशान है, बल्कि एयूकेयुएस के तीन सदस्यों द्वारा उसे अंधेरे में रखने के छल से भी दुखी है।

फ्रांस ने अपने बयान में कड़े शब्दों में कहा कि नया अनुबंध पत्र, सहयोग की भावना के विपरीत था जो फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के बीच था। अमेरिका में फ्रांस के पूर्व राजदूत जेरार्ड अराउड ने ट्वीट किया कि अमेरिका और ब्रिटेन ने ऑस्ट्रेलिया में फ्रांस की पीठ में छुरा घोंप दिया। फ्रांस ने वाशिंगटन और कैनबरा से अपने राजदूतों को भी वापस बुला लिया है। फ्रांस, जो यूरोप की रणनीतिक स्वायत्तता का बड़ा समर्थक है, अमेरिका पर निर्भरता कम करने के लिए यूरोपीय संघ की रक्षा  क्षमताओं के विस्तार की वकालत करता रहा है।

एयूकेयूएस द्वारा फ्रांस के प्रति घटिया व्यवहार के कारण एक तरफ अमेरिका और  यूरोप के बीच ट्रान्साटलांटिक संबंधों तथा दूसरी ओर इंडो-पैसिफिक में यूरोपीय संघ की रणनीतिक भागीदारी के संभावित निहितार्थ होंगे। जबकि यूरोपीय संघ ने अभी हाल ही में अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति की घोषणा की है, फ्रांस-अमेरिका तनाव का प्रभाव भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और यूरोपीय संघ की रणनीतियों पर अधिक नहीं होगा। यूरोपीय संघ में फ्रांस की प्रमुखता प्रभावित नहीं होगी क्योंकि इसमें एकमात्र यूरोपीय संघ देश के रूप में मजबूत इंडो-पैसिफिक रणनीति को आगे बढ़ाने की क्षमताएं हैं। यह देखते हुए कि यूरोप  इस क्षेत्र के व्यापार से अधिक जुड़ा हुआ है, संचार की समुद्री  लेन (एसएलओसी) की सुरक्षा तथा व्यापारिक जहाजों का सुरक्षित मार्ग यूरोपीय संघ के लिए एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चीन की विस्तारवादी प्रवृत्तियों और हिंद महासागर में इसके बढ़ते  प्रभाव को देखते हुए यूरोपीय संघ के लिए  हिंद-प्रशांत क्षेत्र मे समान विचारधारा वाले देश भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और  अमेरिका आदि,  के साथ  मिलकर  समुद्री क्षेत्र में काम करने पर विचार करना तर्कसंगत है।

फ्रांस के पास अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से  रुष्ट होने के कई कारण हैं। क्वाड के अन्य दो सदस्यों यानी भारत और जापान को फ्रांस के साथ जुड़ने के लिए अतिरिक्त परिश्रम की आवश्यकता है। प्रधान मंत्री मोदी का राष्ट्रपति मैक्रोन को फोन कॉल और पेरिस से इसके प्रत्युतर की गर्मजोशी, पारस्परिक द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के प्रयासों को इंगित करता है, परंतु फ्रांस को इंडो-पैसिफिक में घनिष्ठता से जोड़े रखने के लिए  वाशिंगटन और पेरिस के बीच  पर्दे के पीछे एक सक्रिय  कूटनीति  होती  प्रतीत हो रही है।

अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी और ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बियों की बिक्री  के कुछ हफ्तों के भीतर होने वाली, यह दोनों गतिविधियां स्पष्ट रूप से महान शक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्धा को दर्शाती  है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में राष्ट्रपति  बाइडन का भाषण वाशिंगटन की विदेश नीति के कुछ अन्य ही संकेत प्रदान कर रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले भाषण का उपयोग एक ऐसी दुनिया का वर्णन करने के लिए किया, जहां अमेरिकी  नेतृत्व, सैन्य शक्ति के  स्थान पर, कोरोनोवायरस, जलवायु परिवर्तन और साइबर युद्ध जैसी  समस्याओं को हल करने के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करेगा।  चीन को प्रमुख वैश्विक खतरे के रूप में न बताते हुए  उन्होंने जोर देकर कहा कि अमेरिका “एक नए शीत युद्ध” से बचने के साथ-साथ बढ़ती निरंकुशता का मुकाबला करने का प्रयास भी करेगा।

उनका यह भाषण जनवरी में व्हाइट हाउस में प्रवेश करने के बाद से बाइडन द्वारा  कहे गये अनेक बिंदुओं  में से एक था। जिसमें वैश्विक संबंधों के भविष्य का निर्धारण लोकतंत्र बनाम निरंकुशता के रूप में तैयार किया गया और अपने सहयोगियों के साथ संबंधों को मजबूत करने की अमेरिकी  योजनाओं पर बल  दिया गया था। फ्रांस के साथ राजनयिक विवाद के मद्देनजर इस प्रतिबद्धता पर कई यूरोपीय देश सवाल उठा रहे हैं। अमेरिका में टिप्पणीकारों ने तर्क दिया है कि देर-सवेर फ्रांस का गुस्सा कम हो जाएगा और करीबी रणनीतिक जुड़ाव पुन स्थापित हो जाएगा।

जबकि आकश के पक्ष में क्वाड को साइड-लाइन किए जाने के संबंध में कुछ आशंकाएं  हैं, परंतु यह ध्यान देना  आवश्यक है कि दोनों अलग-अलग हैं। व्यापक परिप्रेक्ष्य में इसे कुछ मायनों में क्वाड के पूरक के रूप में देखा जा सकता है। यह पूछे जाने पर कि क्या पीएम मोदी की बैठकें और क्वाड शिखर सम्मेलन अमेरिका-ऑस्ट्रेलियाई रक्षा साझेदारी से प्रभावित अथवा  अप्रभावित होगा। विदेश सचिव, श्री श्रृंगला के अनुसार दोनों मुद्दो  का परस्पर संबंध नहीं है और साथ ही उन्होंने  इस बात से भी इनकार किया कि नई साझेदारी का अर्थ केवल क्वाड का” नाजुक मुद्दों” से निपटना होगा। उन्होंने आगे जोर दिया कि “ऑकस और क्वाड के बीच कोई संबंध नहीं है।  आकस  सुरक्षा संबंधी गठबंधन है, , जबकि  क्वाड,देशों का एक अलग समूह है जो एक स्वतंत्र, खुले, पारदर्शी, समावेशी क्षेत्र के रूप में इंडो पैसिफिक में भिन्न दृष्टिकोण से कार्य  कर रहा है और मालाबार जैसे अभ्यास (ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान, अमेरिका से जुड़े समुद्री अभ्यास)  विभिन्न देशों के बीच किए जाते हैं परंतु क्वाड से  इसका कोई संबंध नहीं है।

क्वाड शिखर सम्मेलन से सभी चार देशों को “लोकतांत्रिक राजनीति, बाजार अर्थव्यवस्था और बहुलवादी समाज” के एक मजबूत गठबंधन की उम्मीद है। इसके  अतिरिक्त, मार्च में वर्चुल् शिखर सम्मेलन के दौरान घोषित जलवायु परिवर्तन, कोविड -19 टीकों तथा उनकी आपूर्ति श्रृंखला, लचीलापन, ढांचे पर व्यावहारिक सहयोग के  नीतिगत  स्वरूप  के निर्धारण की  संभावना है। समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय या-क्षेत्रीयेतर भागीदारों को शामिल करने के लिए क्वाड का और  अधिक विस्तार भी चर्चा  का एक संभावित एजेंडा हो सकता है।

क्वाड नेताओं की इस महत्वपूर्ण बैठक से निकलने वाले परिणाम और नीतिगत विकल्पों का पूरी सतर्कता से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। हिंद-प्रशांत की भू-राजनीतिक रूपरेखा को आकार देने के लिए दूसरे क्वाड शिखर सम्मेलन से इसकी बहुत अधिक अपेक्षाएँ है।

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लेखक
कोमोडोर अभय कुमार सिंह (सेवानिवृत्त) वर्तमान में मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस, नई दिल्ली में रिसर्च फेलो हैं। उनके शोध क्षेत्र में समुद्री भू-राजनीति और इंडो-पैसिफिक में रणनीतिक मुद्दे शामिल हैं। उन्होंने विदेश मंत्रालय के निरस्त्रीकरण और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभाग में निदेशक (सैन्य मामले) के रूप में कार्य किया है।

अस्वीकरण

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