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नई त्रिपक्षीय सामरिक साझेदारी है ‘ऑकस’

डॉ सुरेंद्र कुमार मिश्र
गुरु, 30 सितम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

हिन्द प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता स्थापित करने और साझा सामरिक हितों को सुनिश्चित करने के लिए ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन (यूके) और अमेरिका (यूएस) ने ‘ऑकस’ (एयूकयूएस) नामक संगठन बनाया है। चालाक चीन की चलती चुनौतियों पर अंकुश लगाने  के लिए 15 सितम्बर 2021 को सामूहिक सुरक्षा संबंधित सैन्य गठबंधन की एक दिवसीय घोषणा की गयी। वास्तव में इस समझौते के तहत संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में पश्चिमी सैन्य उपस्थिति को जोड़ते हुए, परमाणु पनडुब्बियों को विकसित करने और तैनात करने में ऑस्ट्रेलिया को सक्रिय सामरिक सहयोग हेतु सहमति प्रदान की गई। ऑस्ट्रेलिया ने स्पष्ट किया कि उनके पास कोई परमाणु हथियार नहीं होगा, क्योंकि यह परमाणु प्रसार के मुद्दे के सम्बन्ध में किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता के उल्लंघन में नहीं होगा, वह केवल परमाणु ऊर्जा संचालित परमाणु पनडुब्बी  पर कार्य कर रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान से शर्मनाक वापसी से उत्पन्न होने वाली गिरावट से ध्यान हटाने के लिए यह तत्काल उपाय अपनाया है। इसके साथ ही अफगानिस्तान में चीन की बढ़ती आतुरता और बढ़ते हुए खतरों से निपटने के एक दूरगामी सामरिक साझेदारी का ही यह एक प्रतिफल है।

वास्तव में क्या यह सामरिक संगठन शक्ति संतुलन स्थापित करने की दृष्टि से किया गया है अथवा यह पहल चीन के निरंतर बढ़ते खतरों को अनुमानित करते हुए अपनी नई सुरक्षा साझेदारी को व्यापक रणनीति का एक हिस्सा है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भी साइबर सुरक्षा, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस) और क़्वांटम कम्पुटिंग पर अधिक व्यापक सहयोग की योजना की भी घोषणा की। यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि चीन की साम्राज्य विस्तार की सोच और अनवरत प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बढ़ती आक्रामकता से केवल पडोसी देश ही नहीं, बल्कि दूर-दराज के देश भी आशंकित रहते हैं। हिन्द प्रशांत क्षेत्र की वास्तविक समस्या का एक प्रमुख कारण जहाँ चीन का एक वर्चस्ववादी रुख माना जाता है, वहां दूसरी ओर इस क्षेत्र के अनेक छोटे-छोटे देशों द्वारा प्रतिरोध करने की बजाय शांत बने रहना भी है। अमेरिका को चीन परोक्ष रूप में  बुरी तरह से परेशान करता रहता है। चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत ने क्वाड्रिलेट्रल सिक्योरिटी डॉयलाग यानी ‘क्वाड’ (चतुर्भुज सुरक्षा ढांचा) गठित किया गया था।

हिन्द प्रशांत क्षेत्र में चीन ने अपना हस्तक्षेप करते हुए पहल अवश्य की, किन्तु अब अमेरिका के साथ आये अन्य अनेक देश भी अब अपनी सक्रियता एवं दखलअंदाजी स्पष्ट रूप से दिखाकर चीन के बढ़ते इस क्षेत्र के वर्चस्व को सीधी चुनौती दे रहे हैं। एक समान विचारधारा वाली शक्तियां अब एकजुट होकर सामरिक साझेदारी की ओर जोरदार कदम उठा चुकी है। अमेरिकी प्रशासन ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भी निश्चित तौर पर हमारे पास कुछ शक्तिशाली सहयोगी है। यह स्थिति हमें अधिक क्षमतावान, सशक्त और सामर्थवान बनाती है। यह भी जानना जरूरी है कि ‘क्वाड’ कोई एशियाई ‘नाटो’ नहीं है। यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति, सामर्थ्य, स्थिरता व संतुलन का आधार है। 24 सितम्बर को अमेरिका में इसकी एक अहम बैठक हुई जिसमे प्रधानमंत्री मोदी ने भी भाग लिया।

यद्यपि ऑस्ट्रेलिया के द्वारा चीन का प्रत्यक्ष व स्पष्ट रूप से विरोध करना उसके व्यापारिक एवं आर्थिक हित में नहीं है, इसके बावजूद चीन के विरुद्ध खुलकर आने के लिए चीन ने ही उसे मजबूर किया है। चीन की दादागिरी और जुझारू आचरण ने विशेष रूप से कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जाँच एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्था से करवाने की ऑस्ट्रेलिया की मांग से आग-बबूला होकर चीन ने जबाव में अब ऑस्ट्रेलिया पर एक दंडात्मक व्यापार प्रतिबंध लगा दिया, जिससे ऑस्ट्रेलियाई दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव आया और चीन के विरुद्ध खुलकर सामरिक साझेदारी ‘ऑकस’  में आने को विवश हुआ। एक कटु सच्चाई यह भी रही है कि दक्षिण पूर्वी एशिया के अधिकांश देश अभी भी  चीन के दबाव व दबंगई के कारण क्वाड में शामिल होने अथवा इसके साथ खड़े होने में संकोच व  भय, संशय करते है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी माना जाता है कि अधिकांश एशियाई संगठन से जुड़े देश आर्थिक आधार पर चीन पर अधिक निर्भर है। इसके साथ ही ‘क्वाड’ कूटनीतिक मोर्चे पर अभी बहुत मजबूत नहीं हो पाया है। चीन की निरंतर बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर नकेल डालने के लिए इस संगठन को और अधिक आर्थिक व सामरिक साझेदारी बढ़ाने पर बल देने की भी महती आवश्यकता है।

यह भी समझना जरूरी है कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के अपने विशेष आर्थिक व व्यापारिक हित है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 के दौरान 1.9 लाख करोड़ डॉलर (लगभग 140 लाख करोड़ रूपये) का व्यापार इस सामरिक क्षेत्र से अमेरिका द्वारा किया गया। विश्व का लगभग 42 प्रतिशत निर्यात और 38 प्रतिशत आयात  इस क्षेत्र से होकर किया जाता है। अमेरिका की समस्या यह है कि चीन द्वारा इस समुद्री क्षेत्र की यथास्थिति में बदलाव लाने के लगातार प्रयास किये जा रहे है। इसके साथ ही ड्रैगन का कारोबारी मकड़जाल भी कम परेशान नहीं कर रहा है। चीन जिस प्रकार से लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन और अपनी वर्चस्ववादी नीति अपना रहा है इससे ‘क्वाड’  के साथ ही दुनिया के अनेक देशों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। ऑस्ट्रेलिया के वैश्विक व्यापार का 30 प्रतिशत, जापान का सबसे बड़ा निर्यात बाजार और कारोबरी साझेदारी के साथ ही भारत व अमेरिका सहित अनेक देशों का ट्रेडिंग पार्टनर है। वर्ष 2020 में 731.9 अरब डॉलर के त्रिपक्षीय कारोबार के साथ ‘आसियान’ देश चीन के सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर रहे है।

अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह उभरता है कि ‘ऑकस’ सामरिक समझौते के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी तैयार करने की तकनीक एवं आवश्यक परमाणु ईंधन की आपूर्ति अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएइए) सुरक्षा उपायों के तहत नागरिक परमाणु प्रौद्योगिकी का अधिकार देती है, लेकिन सैन्य संबंधित परमाणु प्रौद्योगिकी एक विशेष समस्या प्रस्तुत करती है। इससे भी कहीं अधिक अमेरिकी परमाणु पनडुब्बियां ईंधन के रूप में हथियार ग्रेड यूरेनियम का उपयोग करती है, जबकि फ्रांस, रूस व  भारत निर्मित कम समृद्ध यूरेनियम (20 प्रतिशत) का उपयोग करती है। बचाव हेतु ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका व ब्रिटेन ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को पहले से ही सूचित कर दिया है। यह भी ध्यान देना है कि ब्राज़ील पहले से ही फ्रांस के सहयोग से परमाणु संचालित पनडुब्बी निर्माण कर रहा है, दक्षिण कोरिया भी लगा हुआ है। और ईरान ने विगत वर्ष ही बता दिया था कि प्राथमिकता  के साथ वह अपनी परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बी विकसित कर रहा है।

नवीन त्रिपक्षीय सामरिक साझेदारी के रूप में ‘ऑकस’ नामक राष्ट्रीय सुरक्षा पहल ने एक बार फिर से नए सामरिक समीकरण बना लिए है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि ‘क्वाड’ तथा ‘ऑकस’ समान प्रकृति के समूह नहीं है और चूंकि भारत ‘ऑकस’ के पक्ष में नहीं है। यह न तो प्रासंगिक है और न ही इसका क्वाड पर कोई प्रभाव पड़ेगा। भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने भी स्पष्ट किया कि ‘ऑकस’ एक सुरक्षा गठबंधन है, जबकि ‘क्वाड’ समान विचारधारा वाले देशों का एक बहुपक्षीय समूह है, जिसकी विशेषताओं और मूल्यों का एक साझा दृष्टिकोण है।” फ्रांस द्वारा ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए पनडुब्बी सौदे में हारने व अमेरिका द्वारा इस गठबंधन में शामिल न करने के प्रतिक्रिया में इसे ‘पीठ में छुरा’ मारने की संज्ञा दी। वास्तव में फ्रांस के गुस्से और ‘ऑकस’ सौदे की निराशा के कारण हिन्द-प्रशांत रणनीति को लेकर “समान विचारधारा वाले देशों” की एकता पर प्रश्न अंकित किये है।

निःसंदेह ‘ऑकस’ एक सामरिक साझेदारी का तीन देशों का समझौता है, किन्तु क्वाड की बैठक से ठीक कुछ दिन पहले इस गठबंधन की घोषणा के बाद जबरजस्त प्रतिक्रियाओं एवं आशंकाओं का दौर भी चला जो अब भी जारी है। भले ही फ्रांस ने एक खुले और समावेशी हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में संयुक्त रूप से कार्य करने के लिए अपनी सभी प्रतिबद्धता की पुष्टि की। ‘ऑकस’ एक सुरक्षा गठबंधन है और कहने के लिए ‘क्वाड’ के लिए प्रासंगिक नहीं है। बैठक के बाद संयुक्त बयान भी जारी किए गए जिसमें कुछ बातें स्पष्ट भी हुई हैं। किन्तु ये समय ही सुनिश्चित करेगा कि इस सामरिक साझेदारी के दूरगामी परिणाम क्या होंगे? इसका अभी केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

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लेखक
डॉ सुरेंद्र कुमार मिश्र डिफेंस स्टडीज में पीएचडी हैं और इनका हरियाणा के विभिन्न गवर्नमेंट कालेजों में शिक्षण का अनुभव रहा है। वह जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी जोधपुर के विजिटिंग फेलो हैं। ‘रक्षा अनुसंधान’ और ‘टनर’ नामक डिफेंस स्टउीज रिसर्च जरनल से जुड़े हैं। 15 सालों का किताबों के संपादन का अनुभव है और करीब 35 सालों से देश के विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लिख रहे हैं। डिफेंस मॉनिटर पत्रिका नई दिल्ली के संपादकीय सलाहकार हैं। उन्हें देश की रक्षा व सुरक्षा पर हिंदी में उल्लेखनीय किताब लिखने के लिए भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय से वर्ष 2000, 2006 और 2011 में प्रथम, तृतीय व द्वितीय पुरस्कार मिल चुका है। इन्होंने पांच रिसर्च प्रोजेक्ट पूरे किए हैं, इनकी 47 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और 300 से अधिक रिसर्च पेपर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जरनल में छप चुके हैं।

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