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चीन के खिलाफ सीआईए की नयी अनुकूलन रणनीति

डॉ धीरज परमेश छाया
रवि, 17 अक्टूबर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

इस महीने की शुरुआत में, यूएस की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर एक स्टोरी जारी की, जिसमें कहा गया था, “सीआईए भविष्य की चुनौतियों के अनुसार बदलाव करती है”। कहानी का शीर्षक “अनुकूलता में परिवर्तन”    शिक्षाप्रद है। यह महत्वपूर्ण भी है, क्योंकि संगठन कई कारणों से लगातार ‘परिवर्तन’ करते  रहते हैं, लेकिन शायद ही बाहरी माहौल के लिए कभी अपनी ‘अनुकूलता में परिवर्तन’ करते  हों। विशेष रूप से, खुफिया क्षेत्र में यह अधिक सामान्य है, जहां परिवर्तन या सुधार आमतौर पर  अचानक  होने वाली घटना या हार की स्थिति को बेहतर करने के लिए किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय खुफिया निदेशक (ओडीएनआई) के कार्यालय को बना कर अंतर-एजेंसी समन्वय की चुनौतियों को सुधारने का प्रयास केवल 9/11की घटना के बाद ही किया गया। इसी तरह, अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए संचालन निदेशालय (डीओ) में कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता सितंबर 2001 के घातक हमलों तक महसूस नहीं हुई थी। स्थिति में परिवर्तन करने की सीआईए की घोषणा एजेंसी की सोच में एक उल्लेखनीय बदलाव है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि परिवर्तन की यह प्रेरणा भू-राजनीतिक और संगठनात्मक कारणों से है, जबकि परिवर्तन की चुनौतियाँ इसके परिचालन और वैचारिक कारणों से हो सकती हैं।

सीआईए की संगठनात्मक संरचना तथा वर्तमान और भविष्य की राष्ट्रीय सुरक्षा   चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, एजेंसी ने एक चीन मिशन केंद्र (सीएमसी) और एक अंतरराष्ट्रीय और प्रौद्योगिकी मिशन केंद्र (यहां टी एंड टीएमसी) का गठन करने की घोषणा की। यह वास्तव में सोच का विषय है कि, 9/11 के बाद के सुधारों की तरह यह  परिवर्तन भी देर से किये गए हैं। 1990 के दशक के बाद से इस क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगियों को धमकी देने वाले चीन के तेजी से मुखर होने की पक्की जानकारी के बाद से इस खतरे को पहचानने की मांग की जा रही थी। राष्ट्रीय खुफिया परिषद (एनआईसी) ने वैश्विक रुझानों को प्रकाशित किया। यह खुफिया एजेंसियों के लिए एक निर्देश के रूप में कार्य करता है, और इस संबंध में लाभदायक है। “ग्लोबल ट्रेंड्स 2040” शीर्षक से मार्च में जारी किये गए इस प्रकाशन में भू-राजनीतिक क्षेत्र में एक दूसरे से मुकाबले की बढ़ती हुई भावना की घोषणा की गयी-जिसमें चीन-अमेरिका के बीच आपसी प्रतियोगिता का सीधा हवाला दिया गया। जबकि पिछले प्रकाशन ने चीन के विकास को अधिक सौम्य शब्दों में बताया था। इस प्रकार, सीएमसी का गठन वॉशिंगटन का अपनी खुफिया एजेंसी को अमेरिका की विदेश नीति के बदलते स्वरूप के अनुकूल बनाने का प्रयास है।

दूसरा परिवर्तन संगठन और परिचालन के नजरिये से किया गया है। इस महीने की शुरुआत में, सीआईए ने चीन और ईरान जैसे देशों में अपने जासूसों के नेटवर्क को खत्म करने के बारे में एक चौंकाने वाला खुलासा किया। एजेंसी की संचार प्रणाली के उल्लंघन के बाद, अमेरिकी मुखबिरों की भली भाँति पहचान की गयी और या तो उन्हें मार दिया गया या हिरासत में ले लिया गया। हालाँकि, इससे भी ज्यादा गलत यह था कि सीआईए के जासूसी नेटवर्क के डेटा को रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान जैसे वाशिंगटन के हितों के विरोधी देशों के साथ साझा किया गया था। इसलिए एजेंसी ने चीन में अपने मानव खुफिया (एचयूएमआईएनटी) संचालन को बंद करने और सूचना और संचार सुरक्षा पर तत्काल ध्यान दिया। इस पृष्ठभूमि में,  टी&टीएमसी टीका बनाने में तकनीकी श्रेष्ठता प्राप्त करने और हमिंट संचालकों को सुरक्षा का भरोसा दिलाने का एक प्रयास किया गया। चीन जैसे काउंटर-इंटेलिजेंस राज्यों में हमिंट संचालन पर ज़्यादा जोर नहीं दिया जा सकता, जहाँ डिजिटल और तकनीक पर सख्त नियंत्रण होता है।

संगठन के बदलावों के लिए, पिछले परिवर्तनों के संगठन पर होने वाले प्रभाव को नोट करना जरूरी है। खुफिया उद्देश्यों के लिए मिशन के विशिष्ट केंद्रों का निर्माण और प्रौद्योगिकी का दोहन अमेरिका का इतिहास रहा है। 9/11 के बाद, राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अपने “मिशन महत्वपूर्ण भाषाओं” में अरबी भाषा के लिए कुशल सीआईए अधिकारियों की संख्या 50 प्रतिशत तक बढ़ाने पर जोर दिया था। इसके अलावा, सीआईए को “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में नए वैज्ञानिक तरीकों की खोज के लिए” आरएंडडी के अपने अधिकारियों की संख्या दोगुनी करने का निर्देश दिया। इससे एजेंसी में ‘टेक्नोक्रेसी’ की एक परंपरा बन गयी जो सीआईए के ड्रोन कार्यक्रम के नियंत्रण के बाद खत्म हुई।  आतंकवाद के खिलाफ युद्ध पर इन परिवर्तनों के प्रभाव और मातृभूमि की सुरक्षा में सुधार पर बहस की जा सकती है। फिर भी, पिछले दो दशकों को देखते हुए, 9/11 के बाद के परिवर्तनों ने ऐसे प्रभाव छोड़े हैं जो हाल के प्रस्तावित बदलावों को प्रभावित कर सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण हमिंट है, जिसने 9/11 के बाद कायापलट कर दिया। शीत युद्ध के दौरान जासूसी के लिए राजनयिकों और खुफिया अधिकारियों को युद्ध के स्रोतों को विकसित करने के लिए विदेश के अमीर लोगों के साथ सामाजिक मेलजोल बढ़ाने और अपने शौक साँझा करने की जरूरत होती है। हालांकि, आतंकवाद के खिलाफ युद्ध से जासूसी की कला का काफी सैनिककरण हुआ है। इसकी उम्मीद भी थी, क्योंकि युद्ध के दौरान यूरोपीय शहरों को  संघर्ष क्षेत्रों की पोस्टिंग के रूप में बदल दिया था और कॉकटेल पार्टियों की जगह भारी काफिलों में घूम रहे सेना के जासूसों ने अपनी गुप्त बैठकों के लिए ले ली थी। इन परिवर्तनों पर सीआईए के एक पूर्व अधिकारी ने तर्क दिया कि जासूसी की कला को भूलने वाली एजेंसी के लिए “खुफिया जानकारी इकट्ठा करने का यह सैनिक तरीका” जिम्मेदार है। अधिकारी के अनुसार, रूस और चीन के वर्तमान खतरों के लिए “अधिक जेम्स बॉन्ड, कम जेसन बॉर्न” की आवश्यकता है – इस व्यंजना का अर्थ है कि जासूसी की सूक्ष्म कला को वर्तमान सैनिक तरीकों से बदलने की आवश्यकता है। फिर भी, इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन संगठनात्मक परिवर्तनों की तुलना में कठिन होते हैं। दशकों से अमेरिकी खुफिया तंत्र को  पारंपरिक जासूसी से इतना दूर कर दिया गया है कि विदेशी समृध्द वर्ग के साथ मेलजोल  रखने वाले अनुभवी राजनयिकों पर दुश्मन के लिए जासूसी करने का शक किया जाता था। रॉबिन राफेल के खिलाफ पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के संदेह में जांच चल रही है। इस संबंध में, सुधारों को सही तरह से लागू करने के लिए, संगठनात्मक परिवर्तनों को  सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ जोड़कर काम करने की आवश्यकता है।

संस्कृति  के अलावा कुछ वैचारिक कारण भी एजेंसी की दक्षता को निर्धारित कर सकते हैं। खुफिया एजेंसियों पर देश की संस्कृति और सभ्यता का वैचारिक प्रभाव हमेशा रहता है। दूसरे शब्दों में, लोकतंत्रों में कल्पनाएँ और राजनीतिक पद खुफिया एजेंसियों को बहुत  अधिक प्रभावित करते हैं। देश के सिद्धांतों, तथा बुरे कार्यों आदि से उबरने वाली धारणाओं ने अतीत में सीआईए के कामकाज को प्रभावित किया है। 90 के दशक के दौरान, एजेंसी के विश्लेषकों को इस्लामोफोबिया और नस्लवाद के आरोपों का डर इस्लामी आतंकवाद का सही आकलन करने से रोकता था। नतीजतन, सीआईए को अपनी सार्वजनिक छवि को  कायम रखते हुए कार्य में कुशलता हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। 2015 की एक घटना इस नाजुक संतुलन को बनाए रखने की चुनौती को दर्शाती है। एजेंसी ने अपनी आंतरिक वेबसाइट पर केक पकाने की प्रतियोगिता की तस्वीर पोस्ट की थी, जिसमें इस्लामिक स्टेट के झंडे को जलाने के चित्र को दिखाया गया था। यह स्पष्ट रूप से अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करने वाली एजेंसी की अभिव्यक्ति थी, जिससे इस तस्वीर में मुसलमानों के प्रति असंवेदनशीलता की कई शिकायतें सामने आईं। हालांकि बाद में इस तस्वीर को हटा दिया गया था, लेकिन किसी भी मुस्लिम शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति दिलचस्प थी। इससे पता चलता है कि, राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों का जनता की धारणा के साथ  ताल मेल बैठाने के एजेंसी के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यदि कोई एजेंसी द्वारा प्रस्तावित वर्तमान परिवर्तनों का मुकाबला करने की कोशिश करता है, तो  इसका असर विचलित करने वाला हो सकता हैं।

अमेरिका के खिलाफ चीन की पसंदीदा रणनीतियों में से एक अमेरिकी लोगों के ‘दिल और दिमाग’ को निशाना बनाना है। तोड़फोड़ की यह रणनीति अमेरिका के भीतर एफबीआई के खुफिया प्रयासों को विफल करने में सफल रही है। सीआईए भी चीनियों की तुलना में अमेरिकी जनमत के स्वभाव से प्रभावित होने के लिए मजबूर है। सच्चाई यह है कि सीआईए के निदेशक, विलियम जे बर्न्स को इस बात पर जोर देना पड़ा कि खतरा चीनी सरकार से है न कि चीनी लोगों से। यह बात महत्वपूर्ण हैं। वर्षों से, बीजिंग जनता की राय को प्रभावित करने के लिए पश्चिमी मीडिया का आक्रामक रूप से उपयोग हो रहा है – जो ज्यादातर ऐतिहासिक गलतियों और आधुनिक समय के नस्लवाद पर सहानुभूति बटोरने के लिए तैयार रहता है। दूसरी ओर, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध करने वाले प्रवासी लोग चीन के अल्पसंख्यक दक्षिणपंथी चरमपंथियों के साथ गठबंधन करने के आरोपों का शिकार हुए हैं। इन विचारों का एजेंसी के काम और उसमें काम करने वालों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। अतीत में मुस्लिम कर्मचारियों ने यह माना कि सार्वजनिक रूप से प्रचलित  काल्पनिक धारणाओं ने एजेंसी के शक को बढ़ा दिया था। भले ही इन कर्मचारियों को मौजूदा गलत धारणाओं के बारे में पता था, लेकिन वे अपनी पेशेवर पहचान को उजागर करने के डर से बहुत कम काम कर सकते थे। इसी तरह के अनुभवों के लिए, सीआईए को, बीजिंग के शासन में – अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे अत्याचार  तथा अमेरिका और उसके सहयोगियों के हितों के लिए आक्रामकता को लगातार बढ़ाने की जरूरत है।

इसलिए, केवल संगठन के स्तर पर वैचारिक और सांस्कृतिक आयामों में सुधार से ही   ‘अनुकूलन’  हो सकता है,  केवल परिवर्तन से नहीं।

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लेखक
डॉ धीरज परमेश छाया, भू-राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग, मणिपाल उच्च शिक्षा अकादमी (एमएएचई), कर्नाटक, भारत में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने युनिवर्सिटी ऑफ़ लीसेस्टर, यू.के. से इंटेलिजेंस स्टडीज़ में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उनके शोध राष्ट्रीय सुरक्षा के निर्णय लेने में इंटेलिजेंस और काउंटर-इंटेलिजेंस की भूमिका पर केंद्रित हैं।

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