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इस्लामवादियों के भीतर की लड़ाई-उग्रवादी बनाम संस्थागत

कमर चीमा
सोम, 18 अक्टूबर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

मुस्लमान इस्लामवाद के लिए संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि मुस्लिमों में आदर्श राजनीतिक व्यवस्था पर आम सहमति नहीं है। इसलिए इस्लाम सदियों से राजनीतिक तौर पर संकट में रहा है, क्योंकि राजनेता, इस्लामवादी, तानाशाह, इस्लामी शासक और हैइब्रिड शासन  ये सभी धर्म का उपयोग करके अपनी शक्ति को सही ठहराने की कोशिश करते रहे हैं।

मुस्लिम देश और समाज एक ऐसी पारदर्शी और जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था नहीं बना  पाये, जो उग्रवाद को समाज के संस्थागत इस्लामवादियों से अलग कर सकें। अधूरे विवादों ने, चाहे वह कश्मीर में हो या फिलिस्तीन में, यह धारणा पैदा की कि मुसलमानों को दूसरे विश्व युद्ध के बाद से राष्ट्र-राज्य व्यवस्था में उचित मौका नहीं मिल रहा है। ज्यादातर गैर निर्वाचित मुस्लिम नेताओं ने यह धारणा बनाई कि ईसाई मुस्लिम दुनिया को नियंत्रित करना चाहते है। इसलिए इस्लामवादियों ने ऐसे षड्यंत्रकारी सिद्धांत तैयार किये, जिससे  मुसलमान कट्टरपंथी हो गये।

उग्रवादी, इस्लामिक और संस्थागत इस्लामवादी ऐसे शब्द हैं, जो बड़े पैमाने पर भ्रम पैदा करने वाले हैं। पश्चिम और मुस्लिम देशों में इनका इस्तेमाल होता है। इस्लामिक उग्रवादी वे हैं ,जो अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट, अफगान तालिबान, टीटीपी, और ऐसे अन्य कई बलों और हिंसक साधनों के माध्यम से सत्ता हासिल करने में विश्वास करते हैं। जबकि संस्थागत इस्लामवादी संवैधानिक ढांचे और कानूनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से राजनीतिक सुधार लाने में विश्वास करते हैं।

कभी-कभी दोनों तरह के इस्लामवादियों के पास एक तरह के लक्ष्य होते हैं, लेकिन  इनको   हासिल करने के उनके तरीके अलग-अलग हैं। इस्लामिक उग्रवादी चरमपंथी हैं, जो अपनी सरकार की अवज्ञा करते हैं और अपने स्वयं के बनाये गए राजनीतिक और धार्मिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं।

इन इस्लामिक उग्रवादियों में से अधिकांश पहले संस्थागत इस्लामवादी ही थे। उन्होंने शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक संघर्ष का तरीका छोड़ दिया, क्योंकि उनका मानना ​​था कि लोकतांत्रिक परिवर्तन धीमी गति के होते हैं और इस तरीके से सुधार नहीं हो सकते। जब कभी भी संस्थागत इस्लामवादियों ने इस्लामी शरिया लाने का वादा किया तो उन्होंने अपना वादा  पूरा किया, यह जानते हुए भी कि चुनावों में बहुमत की कमी के कारण ये वादे  वास्तविकता में तब्दील नहीं हो पाएंगे। इसने इस्लामिक उग्रवादियों को और अधिक आक्रामक बना दिया क्योंकि उन्हें लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया में कोई उम्मीद नजर नहीं आई।

9/11 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की बड़ी बारीक जाँच ने इस्लामी चरमपंथी समूहों के खिलाफ एक संघर्ष को जन्म दिया। विश्व शतरंज की बिसात बदल गई और सुरक्षा को फिर से परिभाषित किया गया, जहां संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने मूल्यों को सार्वभौमिक सिद्धांतों के रूप में तैयार किया। इस नई वैश्विक सुरक्षा संरचना के लिए कोई भी तैयार नहीं था। इसने दुनिया की पूरी व्यवस्था को बदल दिया था। सिस्टम के स्तर पर होने वाले परिवर्तन हमेशा राष्ट्र-राज्यों और गैर-राज्य के नेताओं को प्रभावित करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में परिवर्तन का निशाना इस्लामिक उग्रवाद था, जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और उदार विश्व व्यवस्था बनाने में उसके सहयोगियों को चुनौती दी थी।

अमेरिका ने इस युद्ध की शुरुआत अफगानिस्तान से लगी पाकिस्तान की सीमा पर की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 1267, 1989, 2253 प्रस्ताव शुरुआत में अफगानिस्तान के अल-कायदा से संबंधित थी और बाद में  इन्हे मध्य पूर्व में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट (आईएसआईएल) के खिलाफ भी इस्तेमाल किया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा इस्लामी उग्रवादियों के खिलाफ शुरू किये गए इस वैश्विक संघर्ष  से मुस्लिम देशों में राजनीतिक और वैचारिक बहस शुरू हो गयी।

इन देशों और उनके नेताओं को उग्रवादियों के प्रवचनों से खुद को और अपनी जनता को बचाने में बहुत मुश्किल आयी। मुस्लिम देशों को घरेलू मजबूरियों और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण मुस्लिम उम्माह, राष्ट्रवाद, राष्ट्र-राज्य व्यवस्था और जिहाद जैसी सोच को फिर से परिभाषित करना पड़ा। अनिश्चितता के माहौल और इन विषयों की समझ के अभाव से मुस्लिम समाज का ध्रुवीकरण हो गया। इन चर्चाओं में भ्रम की स्थिति ने इस्लामी उग्रवादियों और पश्चिमी शक्तियों को एक दूसरे के खिलाफ कर दिया।

संस्थागत इस्लामवादियों ने इस शत्रुतापूर्ण वातावरण से बड़े सार्वजनिक समर्थन का आनंद लिया, जहां लोगों ने उनके इस विचार को मानना शुरू कर दिया कि मुसलमानों के साथ अन्याय पश्चिमी राज्यों का एक व्यवस्थित अभियान है। लेकिन पिछले बीस वर्षों में,  इस्लामिक उग्रवाद बैकफुट पर चला गया और इसने मुस्लिम देशों और समाज का राजनीतिक, वैचारिक और वित्तीय समर्थन खो दिया। इस्लामी  देशों ने अपना राजनीतिक महत्व बढ़ाने के लिए अन्य देशों के मुस्लिम संप्रदायों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और इसके लिए अरबों डॉलर की परियोजनाओं के लिए धन मुहैया करवाया।

इन देशों  ने अपनी जनता को उन बहसों की जानकारी दी जहाँ मुस्लिम समुदायों को गलत तरीके से पेश किया गया था। मुस्लिम उम्माह के विचार, जो कि कुरान की अवधारणा है, उन्हें पिछले दो दशकों में मुस्लिम देशों के नजरिये से नए सिरे से परिभाषित किया गया है।  इस्लामी समूहों, उग्रवादियों, स्वतंत्रता सेनानियों और धार्मिक नेताओं ने उम्मा को  सामूहिक रूप से समझाया। मुस्लिम उम्माह का विचार 19वीं शताब्दी तक भारतीय मुसलमानों में फैल गया था, जब ओटोमन साम्राज्य से प्रेरित होकर पान इस्लामवादियों ने इस धारणा को फैलाया था।

मुस्लिम उम्माह के विचार ने पाकिस्तान और अन्य राष्ट्र-राज्यों की विचारधारा को कमजोर कर दिया, जो स्वतंत्र विचारों वाले थे। लेकिन जब से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध शुरू हुआ है तब से उम्माह को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में फिर से परिभाषित करने में तेज़ी आयी है। इसलिए इस्लामिक उग्रवादियों को इसे स्वीकार करना पड़ा और जाना पड़ा क्योंकि अफगान तालिबान भी अन्य इस्लामी और गैर-इस्लामिक देशों में अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की वास्तविकता को जानता है जो किसी भी उग्रवादी संघर्ष का समर्थन नहीं करते हैं। इस्लामी उग्रवादी भी अब अपने आप को आधुनिक तंत्र के अनुसार बदल रहे हैं और वैश्विक व्यवस्था की नई वास्तविकताओं को महसूस कर रहे हैं।

जिहाद, जो इस्लामिक उग्रवादियों के सबसे बड़े सिद्धांतों में से एक था, उसे  नये तरीके से बताया जा रहा है, क्योंकि देशों ने हिंसा के प्रयोग के प्रति अपना व्यवहार बदल दिया था।  अब मुस्लिम देशों ने स्पष्ट कर दिया कि हिंसा पर देश का एकाधिकार है। इसने उग्रवादी समूहों को असुरक्षित बना दिया है और हिंसा के उपयोग का उनका विचार अब बड़े पैमाने पर स्वीकार नहीं किया जाता हैं।

इसलिए देश पर नियंत्रण करने वाला अफगान तालिबान भी दूसरे देशों में जिहाद शुरू करने के विचार से सहमत नहीं है। अफगान तालिबान का किसी भी जिहादी आंदोलन का समर्थन करने का कोई इरादा नहीं है, चाहे वह भारत प्रशासित कश्मीर में हो या दुनिया में कहीं और।  इस्लामी उग्रवादियों ने महसूस किया है कि वे संस्थागत इस्लामवादी बन सकते हैं अगर वे देश के उन सिद्धांतों का पालन करते हैं जिनके अनुसार केवल देश के अधिकारियों की मंजूरी के साथ एक नियमित सेना ही अन्य देशों के खिलाफ युद्ध या जिहाद छेड़ सकती है। यह जरूरी नहीं है कि  इस्लामवादी घरेलू सुधारों की वजह से बदल रहे हैं बल्कि  वे बाहरी दबावों और अपनी छवि सुधारने की समस्याओं के कारण भी बदल रहे हैं। इस्लामी आतंकवादियों को हत्यारे, बर्बर और मानवता के दुश्मनों के रूप में बताया जाता था क्योंकि वे निहत्थे नागरिकों को निशाना बनाते थे। इस्लामिक उग्रवादियों को सामान्य नागरिक बनने के लिए अपने वैचारिक और उग्रवादी व्यवहार में बदलाव लाना  पड़ेगा।

मस्जिदों, मदरसों और इस्लामी केंद्रों को नियंत्रित करने वाले शिक्षित इस्लामवादियों के विचारों को अब संस्थानों के लिए नए नियमों से गुजरना होगा। मदरसे “हम बनाम वो” जैसे विचारों से उग्रवादी तैयार कर रहे थे, जिससे उन्हें मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने में मदद मिली।

देशों ने इस्लामवादियों को अपने विचारों को बदलने के लिए मजबूर किया क्योंकि वे अपनी वित्तीय जरूरतों को उन अंजान संसाधनों से पूरा कर रहे थे। संस्थागत इस्लामवादी संवेदनशील हैं क्योंकि वे अपनी पहचान और स्थिति को खोना नहीं चाहते। इसलिए, पाकिस्तान सहित कई इस्लामिक देशों ने पैसे के प्रवाह को बनाये रखने के लिए अपनी एनजीओ नीतियों को बदल दिया। मदरसे और अन्य संस्थान राज्य की कड़ी निगरानी में आ गए और वित्तीय आपूर्ति को रोक दिया गया क्योंकि पाकिस्तान सहित सभी अन्य मुस्लिम देश वित्तीय कार्रवाईकार्यबल (एफएटीएफ) और दूसरी वित्तीय व्यवस्थाओं की निगरानी में थे ताकि आतंकवादियों के वित्तपोषण और मनी लॉन्ड्रिंग को रोका जा सके।

इस्लामिक उग्रवादी, संस्थागतवादियों के खिलाफ हो गए क्योंकि उनका मानना ​​था कि संस्थागतवादी अब पश्चिमी सरकारों के लिए काम कर रहे हैं और पश्चिम की कठपुतली बन गए हैं। इसलिए, इस्लामवादियों के भीतर एक लड़ाई शुरू हो गई और संस्थावादी अधिक असुरक्षित और अलग-थलग महसूस करने लगे, क्योंकि हर कोई उन्हें आतंकवादी मानता था। हालांकि, वास्तव में, जिहाद का आदेश देने ने उन्हें अलग कर दिया। संस्थावादी अपने लोकतंत्र, संविधान और राज्य की विचारधारा की रक्षा कर रहे थे, लेकिन वे उग्रवादियों के संपर्क में थे और उन्हें  देश  का साथ देने की कीमत चुकानी पड़ी।

दुनिया के बड़े हिस्से में उग्रवादियों और संस्थागतवादियों के बीच अंतर कर पाना मुश्किल  है, इसके पीछे कुछ कारण है। पश्चिम का एक बड़ा वर्ग मुस्लिम संप्रदाय में शिया और सुन्नियों के बीच के अंतर को नहीं समझता है; तो वे संस्थागत और इस्लामिक उग्रवादी इस्लामवाद को कैसे समझ पाएंगे।

दुनिया के बदलते माहौल और आतंकवाद पर देशों की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के कारण संस्थावादियों को इनसे दूरी बनानी पड़ी। बल प्रयोग  के संबध में संस्थागतवादियों के भीतर एक बहस शुरू हो गई। शुरू में उन्हें देश के संस्थानों के साथ खड़े होने के लिए कमजोर माना जाता था। लेकिन उन्होंने यह फरमान जारी किया कि जो लोग देश की अनुमति के बिना बल प्रयोग करेंगे, वे आतंकवादी हैं। देश की जनता को इस्लामवादियों के बारे में स्पष्ट रूप से बताने के लिए एक वातावरण तैयार किया गया, जिसके अनुसार नियम-आधारित वैश्विक व्यवस्था और देश के कानून का उल्लंघन करने के असुविधाजनक परिणाम हो सकते हैं।

संसार के बदलते हुए राजनीतिक और सुरक्षा ढांचे के कारण पिछले दो दशकों में इस्लामवादियों का चरित्र बदल गया है। राज्य और गैर-राज्य के नेताओं की भूमिका को फिर से परिभाषित किया गया है, क्योंकि राज्य ने अपना अधिकार फिर से स्थापित कर लिया है और साथ ही हिंसा पर एकाधिकार वापस  लौट आया है।

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लेखक
क़मर चीमा अंतरराष्ट्रीय राजनीति पढ़ाते हैं और मीडिया पर रणनीतिक और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में दिखाई देते हैं।

अस्वीकरण

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