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अफगानिस्तान में शीघ्रपरिवर्तित होती स्थितियाँ (कलाईडोस्कोप)

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)
शनि, 04 सितम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

अफगानिस्तान में  शीघ्रपरिवर्तित होती स्थितियाँ (कलाईडोस्कोप)

लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त)

जैसे-जैसे अफगानिस्तान की परिस्तिथियां अधिक जटिल हो रही है, स्मृति में सभी पूर्व घटनाएं   प्रतिबिंबित हो रही हैं, जो भ्रम पैदा करती हैं।  9/11 से भयानक संभवत  कुछ भी घटित नही हुआ, जब  पूरा विश्व वास्तव में हतप्रभ  रह गया था।  इसमे व्याप्त आतंक, अधर्म और दुष्ट व्यवहार सभी महसूस हो रहे थे  और अनिश्चितता थी कि यह स्थिति अब आगे क्या रूप लेगी। 31 अगस्त 2021 की समय सीमा समाप्त होने के पश्चात क्या अब इस बात की कोई संभावना है कि अपने नए शासकों के अधीन  अफगानिस्तान अराजकता को कम करने की दिशा में  सुधार देखेगा। अब तक केवल सुरक्षा पहलुओं पर  ही ध्यान केंद्रित किया जा रहा था परंतु अब तालिबान को लगभग चार करोड़ लोगों का भरण-पोषण,   उनके अन्न जल की व्यवस्था भी करनी होगी। सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा अपनी  ही पीठ थपथपाई  जा रही है। अत: यह अराजकता का अभी  आरंभ है।

तालिबान के भीतर प्रतिस्पर्धी गुट हैं जो शीर्ष नेतृत्व के लिए परस्पर टकरा सकते हैं। ऐसा लगता है कि ‘दोहा लड़ाकों ने उन लोगों के क्रोध को पहले ही समाप्त कर दिया है, जिन्हें  सांसारिक अनुभव अधिक नहीं  है, जबकि इनके पूर्ववर्तियों ने कथित रूप से दो वर्ष तक कूटनीति की चकाचौंध भरी दुनिया का आनंद लिया था। फिर ऐसे लोग भी हैं जो लंबे समय तक पाकिस्तान में कैद रहे;  जिनमें तालिबान के शीर्ष नेता हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा और मुल्ला अब्दुल गनी बरादर भी  शामिल है।

आतंकवादी सिराजुद्दीन हक्कानी, हक्कानी नेटवर्क चलाता है और वह  पाकिस्तानी सेना के गहरे प्रभाव में है। संस्थापक मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला मोहम्मद याकूब और मुल्ला अब्दुल हकीम भी शीर्ष रैंक में शामिल हैं। भारतीय सैन्य अकादमी से प्रशिक्षित अब्बास स्टेनकजई तुलनात्मक रूप से जूनियर हैं, यद्यपि वे इस पदानुक्रम में तेजी से  आगे बढ़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।

क्या कोई परिषद बिना औपचारिक अध्यक्ष के अफगानिस्तान पर शासन कर सकती है? यह आगामी आपदा का मार्ग  प्रशस्त करेगा, क्योंकि राजनयिक, सामाजिक और प्रशासनिक निर्णय, विशेष रूप से, कठोर इस्लामी मानदंडों में से किसी  को भी कमजोर होने से रोकने के लिए एक कठिन बाहरी योजना की वैधता  हासिल करने के प्रयासो के लिए यह केवल एक दिवास्वप्न साबित होगा। नेताओं के बयान और जमीनी स्थिति बिल्कुल अलग है, जिससे तालिबान की शासन क्षमता पर संदेह उत्पन्न होता है।

26 अगस्त को इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएस-के) के द्वारा अपना बल दिखाने के निर्णय ने वैश्विक आतंकवाद के पूरे मुद्दे को फिर से  मुख्य स्तर पर ला खड़ा किया है। आतंक भ्रम, कमजोर शासन  आंतरिक अराजकता की स्थिति में पनपता है। अफगानिस्तान में अल कायदा , जो लगभग 25 वर्षों से यहां है,  के अतिरिक्त आईएस-के, तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), हक्कानी नेटवर्क, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान और ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट  भी हैं।

पाकिस्तान की अदृश्य सरकार ने प्रत्यक्ष प्रभाव डालने के लिए अपने लड़ाकों को लश्कर ए तैय्याबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेएम)  के साथ मैदान में उतारा है। यह ज्ञात हुआ है कि जेएम प्रमुख अजहर मसूद ने तालिबान नेतृत्व  से मिलने के लिए कंधार में एक मार्ग बनाया है ताकि वे सत्ता  के दायरे में शीघ्र प्रवेश  पा सकें। यह स्थिति सुरक्षात्मक वातावरण  को  कुछ समय के लिए ही निर्धारित कर सकती है।

यहां  सहयोगियों और शत्रुओं के बीच, आईएस-के और टीटीपी  में परस्पर सहयोग हैं, लेकिन तालिबान के साथ  उनके पूर्व के  कुछ प्रमुख मुद्दे हैं, जबकि टीटीपी बाद वाले मुद्दों  पर  सहयोग  की अपेक्षा रखता है! आईएस-के दक्षिण एशिया की तुलना में मध्य एशिया में अपनी पहुँच अधिक बढ़ाना चाहता है, जो अत्यधिक भीड़भाड़ वाला क्षेत्र है। अल कायदा की नेटवर्किंग की अपनी सीमाएं हैं और यह तालिबान के  संरक्षण में अधिक है तथा इसका सहयोग करता है। पाकिस्तानी आतंकी समूह पाकिस्तान में उन हितों को बढ़ावा देते हैं जिसका तालिबान से सीधा संबंध है।

निकट भविष्य में तालिबान के व्यावहारिक प्रशासन के प्रति अपनी  वैधता सिद्ध करने के प्रयास में अधिक  उलझने की संभावना है, लेकिन  इसके साथ ही अफगान भूमि पर आतंकवादी समूहों के बीच संभावित द्वंद को रोकने के उपाय भी ढूंढने होंगे। आईएस-के तालिबान के भीतर कुछ चरम कट्टरपंथी तत्वों पर  जीत हासिल करने का प्रयास करेगा। लगभग गृहयुद्ध जैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे वहाँ की जनता के लिए एक बड़ी चुनौती उत्पन्न हो जायेगी, क्योंकि निचले स्तरों  पर  लिये जाने वाले  प्रतिशोध  पर तालिबान के नेतृत्व का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता। इसके आलोक में मानवीय गतिविधियों को जारी रखने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार क्षेत्र बनाने के प्रस्ताव से  तालिबान इंकार नहीं कर सकता। यह उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय के संपर्क में रहने और रसद बोझ को कम करने का अवसर भी प्रदान करेगा। बहिष्कार क्षेत्र  आईएस-के को एक लक्ष्य प्रदान करेगा, जिसकी पश्चिम-विरोधी प्रवृत्ति बहुत अधिक है।

इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर रहा है कि पिछले पखवाड़े की घटनाओं के रणनीतिक परिणामों से सबसे अधिक लाभ पाकिस्तान को ही हुआ है। पाकिस्तान के लाभ को पूरी तरह से समझने के लिए उस रणनीति को याद करना होगा जो अस्सी के दशक में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया उल हक द्वारा तैयार की गई थी। इसमें अफगान और पाकिस्तानी युवाओं  का एक कट्टरवादी समूह  शामिल था, जिसने पहले सोवियत संघ के विरुद्ध लड़ाई में सहायता की और उसके बाद  यह उस क्षेत्र में पाकिस्तान के नापाक एजेंडे की धरोहर बन गया, जो मुख्य रूप से भारत में जम्मू-कश्मीर के अलगाव पर केंद्रित था।

कट्टरपंथीकरण का उद्देश्य इस्लामी एकता के लक्ष्य की पूर्ति करना था। यह मार्ग मध्य पूर्व, जहाँ से  उन्हें अधिकांश प्रेरणा और  सहायता प्राप्त हुई, वहाँ बहुत पीछे रह गया। क्या  रणनीति परिवर्तित हो गई है? इस प्रश्न  का उत्तर जानना होगा। पाकिस्तान ने अपनी नीतियों के प्रति आंतरिक अराजकता देखी है,  इसलिए उसे इस  रणनीति पर फिर से विचार नहीं करना चाहिए।

बाह्य रूप से पाकिस्तान के अतीत के दो सबसे बड़े समर्थक देश साउदी अरब  एवं संयुक्त अरब अमीरात  ने अपना रुख परिवर्तित कर लिया है और अब वे भी शेष विश्व  की भाँति प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तालिबान अब इस सब से पूरी तरह अलग हो रहा है, वह इस  तथ्य से पूरी तरह से अवगत है कि पाकिस्तान उसे  अपने नापाक मंसूबों के लिए आकर्षित कर सकता है।

इस बीच चीन की संलिप्तता पाकिस्तान के लिए उम्मीद की किरण बनी हुई है। पाकिस्तान अपनी अफगानिस्तान नीति के लिए चीन के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनने की उम्मीद करता है, जो वर्तमान में दो कारकों से प्रेरित है। पहला यह डर है कि चीन अपने अशांत पश्चिमी क्षेत्र शिनजियांग में आतंकी नेटवर्क का प्रसार कर रहा है, जहां 22 मिलियन मुस्लिम आबादी रहती है। दूसरा अपने रणनीतिक बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की सुरक्षा के लिए चीन की अपने प्रभाव को ‘न्यू ग्रेट गेम’ (जो शायद एक नए सिरे से प्रतिस्पर्धा देखेंगे) में विस्तारित करने की इच्छा है।

एड्रेनालाईन की शुरुआती दौड़ के बाद संतुलन बनाये रखने के महत्व को महसूस करते हुए रूस अपनी चाल बहुत सावधानीपूर्वक चल रहा हैं। बढ़ा हुआ पाकिस्तानी प्रभाव रूसी हितों के लिए भी अच्छा नहीं है।

मुझसे दो प्रश्न नियमित रूप से पूछे जाते हैं,  पहला  प्रश्न अफगानिस्तान में अस्थिरता के प्रभाव और भारत की सुरक्षा, विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान को प्राप्त  हो सकने वाले लाभ से संबंधित हैं।  दूसरा, क्या भारत को तालिबान के साथ अपनी पिछली नीति को परिवर्तित करने के रूप में  देखा जा सकता है? दोनों प्रश्नों का  अलग-अलग और विस्तृत विश्लेषण किये जाने की आवश्यकता है, परंतु एक संक्षिप्त प्रतिक्रिया संभव है।

अफगानिस्तान में घटनाओं का प्रभाव  इस बात पर  भी निर्भर करता है कि पाकिस्तान अस्सी के दशक की अपनी चमकदार रणनीति को किस हद तक पुनर्जीवित करना चाहता है और तालिबान किस सीमा तक इसका साथ निभायेगा। तालिबान भारत का स्वाभाविक विरोधी नहीं है। पाकिस्तान के उकसावे और व्यवहार से ही  उसकी यह धारणा बनी। अपनी नीतियों को  आगे बढ़ाने के लिए तालिबान को यदि स्वतंत्र  रूप से निर्णय लेने  के लिए छोड़ दिया जाए तो संभव है कि तालिबान भारत के साथ सहयोग और जुड़ाव  विकसित करना चाहेगा, जैसा कि अब्बास स्टेनकजई द्वारा अभी हाल ही में दिये उनके बयानों से भी स्पष्ट है।

पाकिस्तान स्थिति का जल्द से जल्द दोहन करने की कोशिश करेगा, भले ही यह अफगानिस्तान, जम्मू-कश्मीर और आंतरिक सुरक्षा के प्रति इसकी चिंताओं को एक साथ बड़ा दे। तर्कसंगतता वैसे भी पाकिस्तान का मजबूत पक्ष कभी नहीं था। इसलिए भारत को जम्मू-कश्मीर पर अस्थायी नकारात्मक प्रभाव के लिए तैयार रहना चाहिए, यद्यपि यह लंबे समय तक नहीं रह सकता है।  जब तक जम्मू-कश्मीर के सुरक्षा ग्रिड में  कोई गड़बड़ी न हो, तब तक भारत की तैयारी की वर्तमान स्थिति  उपयुक्त है।

तालिबान के साथ संबंधों के मुद्दे पर, चूंकि स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है कि किस गुट, समूह या शासन के प्रभुत्व की संभावना होगी, अतः भारत को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ ही जाना चाहिए। भूतकाल ही भविष्य को शासित करेगा। इस दुर्भावनापूर्ण विचार को छोड़ कर दुनिया के अधिकांश हिस्सों द्वारा अपनाई गई  ‘अभी प्रतीक्षा करो और नज़र रखो’ की नीति भविष्य के निर्धारण के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र मार्ग प्रतीत होता है। आने वाले कल को अगला दिन होने दो।स

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लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के श्रीनगर कोर के पूर्व कमांडर रहे हैं। वह रेडिकल इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमने वाले मुद्दों पर विशेष जोर देने के साथ एशिया और मध्य पूर्व में अंतर-राष्ट्रीय और आंतरिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वह कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और रणनीतिक मामलों और नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमने वाले विविध विषयों पर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर बोलते हैं।

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POST COMMENTS (3)

BadBoy

सितम्बर 23, 2021
शीघ्रपरिवर्तन नही, शीघ्रपतन शुरू हो गया है

Shailendra

सितम्बर 10, 2021
शीघ्र परिवर्तन के बाद शीघ्रपतन होता है, Eveery actions have same reaction

Nagesh Kumar

सितम्बर 05, 2021
सर मैं आपके आर्टिकल वाले पढ़ने के लिए भेज सकता

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