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पाकिस्‍तानी जनरल को महंगी पड़ गई लाल मोटरसाइकिल

मेजर गौरव आर्या (रि.)
शनि, 18 दिसम्बर 2021   |   8 मिनट में पढ़ें

जनरल सैम मानेकशॉ अपने कार्यालय में चहलकदमी कर रहे थे। उनकी घनी भौंहें माथे के लगभग बीच में परस्पर छू रही थीं। उनका कद लंबा और बदन छरहरा था। उनकी चाल बिलकुल इंफैंट्रीमेन की तरह थी जो अपना जीवन दुर्गम इलाकों में चलते हुए व्यतीत करते हैं। वह जानते थे कि उनकी सेना युद्ध का कभी भी सामना कर सकती है। अब इसमें कुछ समय की ही देर है।

यह 1970 में तब शुरू हुआ, जब पाकिस्तान ने अपने चुनाव परिणामों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 169 सीटों में से 167 सीटें जीती थीं, जिससे वह मजलिस-ए-शूरा (संसद) में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। इसके नेता शेख मुजीबुर रहमान ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। नियमानुसार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याह्या खान की उपस्थिति में यह दावा पेश किया गया था। प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने एक बंगाली को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया।

पूर्वी पाकिस्तान में परिस्थितियां तनावपूर्ण हो गयीं। 1 मार्च 1971 को याह्या खान ने नेशनल असेंबली बुलाने से इनकार कर दिया। स्थानीय बंगालियों ने पश्चिमी पाकिस्तान के प्रति वफादार बिहारी प्रवासियों को मारना शुरू कर दिया। अकेले चटगांव में ही 300 बिहारियों की हत्या कर दी गई। पाकिस्तान सरकार ने इन हत्याओं का इस्तेमाल पाकिस्तानी सेना की तैनाती को सही ठहराने के लिए किया, जिनमें पंजाबी और पश्तून सैनिकों की भरमार थी।

हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे थे और स्थिति पर काबू पाने के लिए पाकिस्तानी सेना ने 21 मार्च को ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। इस ऑपरेशन का एक ही उद्देश्य था- परेशानी उत्पन्न करनेवालों का पता लगाकर उनको खत्म कर देना।

भारतीय मंत्रिमंडल की ओर से भी भारतीय सेना के लिए माहौल गर्म किया जा रहा था। हर महीने भारत में हजारों की संख्या में पूर्वी पाकिस्तानी शरणार्थियों का आगमन हो रहा था। इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर दबाव दिखना शुरू हो गया था। भारतीयों का गुस्सा भड़कने लगा और प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने तत्काल कार्रवाई का निर्णय लिया।

अप्रैल 1971 में भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से कहा कि हमला करना सामरिक रूप से संभव नहीं था। कभी भी मानसून का आगमन हो सकता है, इससे आवाजाही बेहद कठिन हो जाएगी। भारतीय सेना इस तरह के युद्ध के लिए तुरंत तैयार नहीं थी। इसके लिए समय चाहिए होगा। जब यह तैयार होंगे तो युद्ध का सकारात्मक परिणाम निकलेगा। यदि यह प्रधान मंत्री को स्वीकार्य नहीं, तो जनरल इस्तीफा देने के लिए तैयार थे।

इंदिरा गांधी ने मानेकशॉ का इस्तीफा स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने जनरल को हमले का समय और स्थान चुनने की पूरी छूट दी।

मानेकशॉ ने पूछा कि प्रधानमंत्री वास्तव में क्या चाहती हैं?

इंदिरा गांधी ने कहा था कि वह चाहती हैं कि पाकिस्तान आधा हो जाए और बांग्लादेश नामक एक नया देश बन जाए। मानेकशॉ ने कहा कि वह बांग्लादेश को अलग कर देंगे लेकिन कैसे करेंगे यह वह खुद तय करेंगे।

जनरल मानेकशॉ को गोरखा सैनिक प्यार से सैम बहादुर कहते थे। उन्होंने जीवन भर कमांडिंग की थी। एक पारसी जिसने गोरखाओं के साथ काम किया था। श्रीमती गांधी के समक्ष एक दृढ़ सेनापति था। सैम मानेकशॉ और इंदिरा गांधी के बीच बातचीत के कई मजेदार किस्से हैं। उन दोनों के बीच जबरदस्त पारस्परिक सम्मान था।

सीमा पार, पाकिस्तान में सरकार और सेना युद्ध का उन्माद पैदा कर रही थी। लाहौर, कराची और इस्लामाबाद में “क्रश इंडिया” स्टिकर वाली कारों को देखना आम बात थी। और पाकिस्तान रेडियो ने मैडम नूरजहाँ के देशभक्ति के गीत बजाना शुरू कर दिया था। जब भी पाकिस्तान रेडियो पर मैडम नूरजहाँ के देशभक्ति के गीत बजते हैं, तो इसका मतलब होता है या तो युद्ध या तख्तापलट।

जीएचक्यू रावलपिंडी के सेनापति चिंतित थे। पूर्वी पाकिस्तान की अराजकता को शांत करने के लिए कुछ करना जरूरी था। बंगालियों से वार्ता कभी नहीं हुई। उन्होंने वही किया जो वे हमेशा से करते आए हैं। उन्होंने राजनेताओं का काम करने के लिए एक जनरल को भेजा। और फिर उन्होंने और भी गंभीर गलती कर डाली, उन्होंने बलूचिस्तान के कसाई जनरल टिक्का खान को भेज दिया।

25-26 मार्च 1971 की दरम्यानी रात को, टिक्का खान ने पूर्वी पाकिस्तान के बेवश और सोये हुए बंगालियों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। उसने आतंक की पराकाष्ठा कर दी। किल-एंड-डंप ऑपरेशन, पाकिस्तानी सेना द्वारा सामूहिक बलात्कार, गर्भवती महिलाओं को संगीनों से गोंद देना, गायब कर देना और यातना कक्ष में यातनाएं देना, टिक्का खान का काम था।

बलूचिस्तान का कसाई बंगाल का कसाई बन गया।

26 मार्च 1971 को, पाकिस्तानी सेना के एक प्रभावशाली बंगाली मेजर, मेजर जिया-उर रहमान ने पाकिस्तान से बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा की। उन्होंने शेख मुजीबुर रहमान की ओर से ऐसा किया। 27 मार्च 1971 को, इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए भारत के समर्थन की घोषणा की।

17 अप्रैल 1971 को, निर्वासित बांग्लादेश सरकार ने जिला मेहरपुर (पूर्वी पाकिस्तान) के गांव बैद्यनाथटोला में स्वतंत्रता की घोषणा की। ताजुद्दीन अहमद के नेतृत्व में एक अस्थायी सरकार की स्थापना की गई। जैसे ही यह खबर फैली, पाकिस्तानी सेना का अत्याचार तेज हो गया। मृतकों की संख्या इतनी अधिक थी कि अलग-अलग दफनाने का समय नहीं था। इसलिए, सामूहिक कब्रों की खुदाई शुरू करने के लिए पाकिस्तानी सेना को बंगाली श्रमिकों को लगाना पड़ा।

एक करोड़ से अधिक पूर्वी पाकिस्तानी भारत में आ गये और उन्हें बंगाल, असम, त्रिपुरा, बिहार और मेघालय के शरणार्थी शिविरों में रखा गया। ये शिविर बुद्धिजीवी युवाओं के घर थे जो बंगाली राष्ट्रवाद से प्रेरित थे। वे पाकिस्तान और उसकी सेना के खिलाफ उग्र असंतोष से भरे हुए थे।

इन शरणार्थी शिविरों में रहने वाले युवाओं से मिलने के लिए आने वाले भारतीय बंगाली भाषी नागरिक उनसे घंटों बातें करते। वे भारतीय सशस्त्र संघर्ष और बंगाली राष्ट्रवाद की बात करते थे।

वे बहुत रोमांचक दिन थे। हिंसक संघर्ष में विश्वास रखने वाले युवक मुक्ति वाहिनी का हिस्सा बने। उनके लिए अजनबी, मृदुभाषी व बंगाली भारतीय आगंतुक उनकी हर हरकत को परखते थे। प्रारंभ में, युवकों को यह नहीं पता था कि वे भारतीय कौन हैं। उन्हें बाद में पता चला कि ये लोग भारतीय संस्था रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के फील्ड ऑपरेटिव थे।

भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में घुसकर उसके टुकड़े करने से बहुत पहले, रॉ ने पूर्वी पाकिस्तान की धरती पर गुप्त अभियान शुरू कर दिया था।

मुक्ति वाहिनी में पाकिस्तानी सेना से अलग हुए बंगाली सैनिक, अर्धसैनिक बलों के जवान, पुलिस और बंगाली नागरिक शामिल थे। यह एक गुरिल्ला संगठन था जिसने पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना पर हमला किया, उसे परेशान किया और संचार और आपूर्ति की लाइनों को काट दिया।

उपमहाद्वीप में मानसून आनेवाला था। मानेकशॉ ने एक ऐसे आदमी की तरह काम किया,  जिसने जगह-जगह जनशक्ति, सामग्री और उपकरणों का इंतजाम किया। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से युद्ध की तैयारियों की निगरानी के लिए विभिन्न संरचनाओं की यात्रा की।

पाकिस्तान करीब से देख रहा था। 23 नवंबर 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने लोगों को भारत के साथ युद्ध की तैयारी करने को कहा।

3 दिसंबर 1971 की पूर्व संध्या पर लगभग 5:40 बजे, पाकिस्तान वायु सेना ने ऑपरेशन चंगेज़ खान शुरू किया। आगरा सहित पूरे उत्तर पश्चिमी भारत में 11 स्थानों को निशाना बनाने के लिए 50 लड़ाकू विमानों का इस्तेमाल किया गया। उस शाम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने बिना उकसावे के हमला किया है और अब जवाबी कार्रवाई की उम्मीद है।

भारत और पाकिस्तान में अब आधिकारिक तौर पर युद्ध शुरू हो गया। उसी रात, भारतीय वायु सेना ने ऑपरेशन कैक्टस लिली शुरू कर जवाब दिया। इसने पाकिस्तानी क्षेत्र के अंदर आक्रामक अभियान शुरू किया। सुबह होते-होते भारतीय वायुसेना टॉप गियर में चली गई।

भारतीय वायु सेना पाकिस्तान में दिन-रात उड़ान भर रही थी, पाकिस्तान के अंदर रॉ के सदस्य पाकिस्तानी वायु सेना के बंगाली तकनीशियनों को अपनी ओर मिला रहे थे। भारतीय वायु सेना ने 3 से 16 दिसंबर 1971 के बीच पश्चिमी पाकिस्तान में 4000 से अधिक उड़ानें भरीं। पीएएफ उनका मुकाबला नहीं कर सका। पीएएफ द्वारा की जाने वाली उड़ानों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती गई। विमानों के रख-रखाव के लिए बहुत कम कर्मचारी बचे थे। रॉ ने अपना काम कर दिया था।

जनरल सैम मानेकशॉ अब तैयार थे। उन्होंने हर कदम और जवाबी कार्वाई की सूक्ष्मता से योजना बनाई थी। उसके पास दुश्मन के खिलाफ एक सफल ऑपरेशन के लिए आदमी, सामग्री और प्रशिक्षण वह सबकुछ था जो वह चाहते थे। उन्होंने बस आदेश दिए और भारतीय सेना ने पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया।

साथ ही भारतीय नौसेना ने ऑपरेशन ट्राइडेंट लॉन्च किया। 4 और 5 दिसंबर की रात को उसने मिसाइल नौकाओं का उपयोग करके कराची बंदरगाह पर हमला किया। पाकिस्तानी विध्वंसक पीएनएस खैबर और माइनस्वीपर पीएनएस मुहाफिज डूब गए, और पीएनएस शाहजहां को अपूरणीय क्षति हुई।

भारतीय नौसेना ने आक्रमण की गति नहीं कम की। 8 और 9 दिसंबर की रात को उन्होंने ऑपरेशन पायथन शुरू किया। कराची में पाकिस्तानी नौसेना के पूरे ईंधन भंडार को उड़ा दिया गया। भारतीय नौसेना ने कराची हार्बर पर 3 व्यापारिक जहाजों को भी डुबो दिया।

ईस्टर्न मोर्चे पर भारतीय नौसेना ने अपना विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत तैनात किया। विक्रांत ने पूर्वी पाकिस्तान के अंदर तक हवाई हमले शुरू किए। इसने पूर्वी पाकिस्तान की नौसैनिक नाकाबंदी भी लागू किया, जिससे दुश्मन की नौसेना निष्प्रभावी हो गई। पाकिस्तान ने भारतीय जहाजों पर हमला करने के लिए अपनी पनडुब्बी पीएनएस गाजी भेजी, लेकिन वह विशाखापत्तनम के तट पर रहस्यमय परिस्थितियों में डूब गई।

9 दिसंबर को भारतीय नौसेना को सबसे बड़ा नुकसान हुआ जब पाकिस्तानी नौसेना की पनडुब्बी पीएनएस हैंगर ने भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस खुकरी को डूबो दिया। 18 अधिकारियों और 176 नाविकों ने शहादत को गले लगाया। जब जहाज जल रहा था और डूब रहा था और निकासी का काम चल रहा था, आईएनएस खुकरी की कमान संभाल रहे नौसेना के कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला ने एक जूनियर अधिकारी को अपना लाइफजैकेट दिया और उसे अपना जीवन बचाने के लिए कहा।

भारतीय नौसेना में एक परंपरा है कि कैप्टन अपने जहाज को नहीं छोड़ता, चाहे कुछ भी हो जाए। कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला ने  भारतीय नौसेना की सर्वोच्च परंपराओं को निभाया और जलते जहाज के साथ शहीद हो गये। कर्तव्य और साहस के लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 12-13 दिसंबर 1971 तक, पाकिस्तान की नौसेना का अधिकांश हिस्सा कागज पर और इसकी वायु सेना जमीन पर थी।

भारतीय वायु सेना ने पूर्व में 1978 और पश्चिमी पाकिस्तान में लगभग 4000 उड़ानें भरीं।

पाकिस्तानी सेना ने पश्चिमी मोर्चे पर विभिन्न स्थानों पर हमला किया। भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान के अंदर उनको धकेल दिया, सिंध और पाकिस्तानी पंजाब में लगभग 15,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया। भारत सरकार ने युद्ध के बाद इस कब्जे वाले क्षेत्र को पाकिस्तान को वापस कर दिया।

पूर्वी क्षेत्र में, भारतीय सेना की सफलताएँ आश्चर्यजनक थीं। 1965 के “सेट पीस” संघर्ष को दोहराने के बजाय, 1971 का युद्ध वह था जो जर्मन ‘ब्लिट्जक्रेग’ हमलों की याद दिलाता है। नौ इन्फैंट्री डिवीजनों को तीन-आयामी हमले में नियोजित किया गया था, जो कवच, तोपखाने और करीबी हवाई हमले द्वारा समर्थित था। भारतीय सेना तब तक नहीं रुकी जब तक वह ढाका में प्रवेश नहीं कर गई।

लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने क्लासिक तेज गति से चलने वाली ब्लिट्जक्रेग तकनीकों का इस्तेमाल किया। दुश्मन की कमजोरी का चयन करते हुए हमले की गति तेज की। जब लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा हमला कर रहे थे, भारतीय वायु सेना ने शेष लड़ाकू विमानों का सफाया कर दिया, और हवाई क्षेत्र पर पूर्ण कब्जा कर लिया। ढाका हवाई क्षेत्र अब एक परिचालन हवाई क्षेत्र नहीं था बल्कि यह सिर्फ जमीन का एक भूखंड था।

लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा द्वारा हमला इतना क्रूर था, और जनरल सैम मानेकशॉ की ऐसी कुशल योजना थी, कि दो सप्ताह से भी कम समय में, पाकिस्तान ने अपने घुटने टेक दिये।

16 दिसंबर को, पूर्वी पाकिस्तान में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और पाकिस्तानी सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी ढाका के रमना रेस कोर्स ग्राउंड में मिले। एएके नियाज़ी ने शाम 4:31 बजे औपचारिक रूप से समर्पण पत्र पर हस्ताक्षर किया। नागरिकों सहित 92,000 पाकिस्तानी सैनिकों, पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बलों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बांग्लादेश का निर्माण हुआ।

पाकिस्तान का भूभाग और जनसंख्या घटकर आधी रह गई। इसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा शून्य हो गई। पाकिस्तान का पूरा अपमान हो गया।

सैम मानेकशॉ एक लीजेंड थे। 1971 में भारतीय सेना की जीत के लिए अगर कोई जिम्मेदार था तो वह थे। सैम मानेकशॉ के बारे में कई कहानियां भी हैं, लेकिन इस कहानी से ज्यादा मजेदार कोई नहीं है।

भारत के विभाजन से पहले, मानेकशॉ और याह्या खान (1971 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति) दोस्त थे और फील्ड मार्शल सर क्लाउड औचिनलेक के स्टाफ में थे। सैम मानेकशॉ के पास एक लाल जेम्स मोटरसाइकिल थी, जिस पर याह्या की नजर थी। उसने एक हजार रुपये में मोटरसाइकिल को खरीदने की पेशकश की। मानेकशॉ मोटरसाइकिल बेचने के लिए राजी हो गए। विभाजन हुआ और याह्या मोटरसाइकिल को पाकिस्तान ले गए, लेकिन सैम मानेकशॉ को हजार रुपये का भुगतान कभी नहीं किया।

16 दिसंबर 1971 को समर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, जनरल सैम मानेकशॉ को यह कहते हुए सुना गया, “याह्या ने मुझे कभी भी मेरी मोटरसाइकिल के 1000 रुपये का भुगतान नहीं किया, लेकिन अब उसे अपने आधे देश से इसकी कीमत चुकानी पड़ी है।”

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लेखक
लेखक भारतीय सेना की कुमाऊँ रेजिमेंट के पूर्व अफसर हैं और वर्तमान में चाणक्य फोरम के एडिटर-इन-चीफ़ हैं। वह रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क में वरिष्ठ सलाहकार संपादक भी हैं।

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