पंजशीर — आशा की घाटी
डॉ॰ वेल एसएच आवद
तालिबान और उत्तरी गठबंधन के बीच चलने वाले युद्ध के समय ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में सितंबर 2001 में विदेशी पत्रकार 1 महीने से एकत्रित थे। इसी समय पंजशीर घाटी का शेर कहे जाने वाले अहमद शाह मसूद का खून 9 सितंबर 2001 को अलकायदा के दो आतंकी, जो स्वयं को पत्रकार बता रहे थे ने किया था। यह दोनों 2 हफ्ते तक इंतजार करते रहे तथा जब उन्होंने इन्हें इंटरव्यू दिया तब उन्होंने इनका खून किया। भारत में अफगानिस्तान के भूतपूर्व राजदूत मसूद खलीली उस समय उनके साथ ही बैठे हुए थे जो भाग्यबस इस हमले में बच गए।
हमें बताया गया था कि हम अफगानिस्तान में ताजिकिस्तान की सीमा से घुस सकते हैं। इसलिए हम चेक पोस्ट पर पहुंच गए, जहां पर हमें 17 घंटे आगे जाने के लिए इंतजार करना पड़ा। इसके बाद हम ऊबड़-खाबड़ सख्त भूमि और असुरक्षित सड़क पर आगे चल पाए। अफगानिस्तान के साथ ताजिकिस्तान की 1300 किलोमीटर तथा उज्बेकिस्तान की 144 किलोमीटर सीमा लगती है। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जमीन का हिस्सा जिसे पंजशीर घाटी के नाम से जाना जाता है ( शेरों की घाटी) यह काबुल से 150 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। जो हिंदू कुश पर्वत के पास है। यहां पर उतरी गठबंधन उस समय भी जमा हुआ था जो अफगानिस्तान की 10% जमीन का भाग है। यह गठबंधन तालिबान और अलकायदा आतंकी समूहों का यहां पर मुकाबला कर रहा था।
हम खोसा बहाउद्दीन नाम के स्थान में पहुंचे जहां पर अहमद शाह मसूद की हत्या हुई थी। इस पत्रकारों के समूह में हीं अरबी पत्रकार था जो लंदन के अरेबिक चैनल के लिए काम कर रहा था। मुझे इस स्थान में 3 दिन तक रोक कर रखा गया बाद में अब्दुल्लाह- अब्दुल्लाह के कहने पर मुझे इस युद्ध के बारे में सूचना एकत्र करने की इजाजत मिली थी।
यह एक छापामार युद्ध था जिसमें गठबंधन की सेनाओं ने अपने दृढ़ इरादों और युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया। पंजशीर घाटी की महत्ता इस तथ्य से और भी बढ़ जाती है कि यह सलांग दर्रे के पास है जो काबुल को उत्तरी भाग से तथा आगे उज्बेकिस्तान से जोड़ता है। अहमद शाह मसूद और उनके पिता ने इसी घाटी से सोवियत सेनाओं जो उस समय अफगानिस्तान में थी के विरुद्ध युद्ध लड़ा और उन्हें इस घाटी से 1980- 85 में बाहर कर दिया। उस समय इस दर्रे को खतरनाक समझा जाता था।
इस क्षेत्र पर अब सब का ध्यान इसलिए गया है कि अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरउल्लाह शाह ने वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी के अफगानिस्तान से भागने के बाद वहां की सेना के बचे हुए सैनिकों तथा अन्य लड़ाको को तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद उनके विरुद्ध युद्ध के लिए उनके साथ संगठित होने का आह्वान किया है।
यह घाटी अपनी सामरिक महत्ता के लिए इसलिए जानी जाती है क्योंकि 18, 19 और 20 वीं सदी में इस घाटी में ही रूस, इंग्लैंड, फ्रांस के द्वारा खतरनाक किस्म के आतंक विरोधी तंत्र अपनाने के बाद भी यह सफल नहीं हो पाए थे। इस असफलता का मुख्य कारण था अफगानी आतंकियों का निश्चय जिस का कोई मुकाबला नहीं है। यह पुराने ताजीको का घर जिन्हें बहादुर और जमकर लड़ने वाले जो आंतरिक और बाहरी शक्तियों के विरोध के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने आक्रमणकारियों को कब्रों में दफन कर दिया है।
अमेरिका ने यहां के जमीनी हालातों को पहचान कर मुजाहिदीन की मदद की जिसमे उसने इन मुजाहिदीन को स्टिंग मिसाइल दी। जिनसे इन्होंने सैकड़ों रूसी जंगी जहाजों को इस घाटी में मार गिराया। पंजशीर घाटी, हिंदूकुश पर्वत तथा सालंग दर्रे की सड़क के साथ-साथ का क्षेत्र और मजार ए शरीफ मिलकर छापामार युद्ध के लिए एक क्षेत्र बनाता है जहां पर तालिबान से मुकाबला किया जा सकता है।
पंजशीर के शेर स्वर्गीय अहमद मसूद के पुत्र तथा भूतपूर्व उप राष्ट्रपति अमरउल्ला तथा भूतपूर्व रक्षा मंत्री बिस्मिल्लाह खान मोहम्मदी तथा और बहुत से सुरक्षाबलों के लड़ाकों ने मिलकर तालिबान से युद्ध का निश्चय किया है। यह निश्चित है कि अहमद मसूद के नेतृत्व में यह लड़ाके तालिबानी आतंकियों को कड़ा संघर्ष देंगे। अब अफ़गानों का मनोबल बढ़ाने के लिए यह पर्याप्त है कि इनमें लड़ने की क्षमता है और इनके विचार क्रांतिकारी हैं। और यह धारणा है कि तालिबान एक विदेशी शत्रु है ! यह सच है कि तालिबान अफगानी या पश्तून नहीं है। इस अभियान की सफलता पड़ोसी देशों की सहायता और इन सब लड़ने वाले समूहों मैं आपसी तालमेल पर निर्भर करती है।
इस समय तालिबान यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि वह बदल गए हैं और वे अच्छे तालिबान हैं। शरणार्थियों के यूरोप में आने के कारण अंतरराष्ट्रीय समुदाय तालिबान को लगातार देख रहा है और तालिबान इस अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता प्राप्त करना चाहते हैं। खासकर पड़ोसी देश भारत रूस और ईरान जो अफगानिस्तान को एक स्थिर तथा स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं। जो आतंकवाद से मुक्त हो और जहां पर शांति हो। ऐसे देश में सत्ता परिवर्तन को यह सब निराशा से ध्यानपूर्वक देख रहे हैं। पड़ोसियों के सामूहिक प्रयत्न से शांतिपुर सत्ता परिवर्तन तथा विदेशी कब्जे को अफगानिस्तान से रोका जा सकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर 90 के दशक के युद्धों के सरदारों की वापसी वहां पर हो जाएगी।
क्या तालिबान के ऊपर विश्वास किया जा सकता है ? क्या बड़ी शक्तियां अफगानिस्तान को शांतिपूर्वक छोड़ देंगे ? और दोबारा इसे इस परोक्ष युद्ध का अखाड़ा ना बना देंगी। और क्या दोबारा अमेरिका, रूस और चीन के बीच में युद्ध शुरू होगा ?
अमेरिका ने अफगानिस्तान में 2.8 ट्रिलियन डॉलर धन खर्च किया। उसके 2448 सैनिक मारे गए तथा 20000 घायल हुए। इसको देखते हुए अमेरिका अपनी अचानक वापसी को सही नहीं ठहरा सकता। इसके साथ ही अफगानिस्तान के प्राकृतिक खनिज भंडार को वह महत्व!कांक्षी चीन जो आर्थिक गलियारे की परियोजना को पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मजबूत कर रहा है, जो उसकी बेल्ट रोड योजना का हिस्सा है के लिए नहीं छोड़ सकता। चीन अपनी आर्थिक शक्ति के द्वारा एउघर लड़ाकू को इससे दूर रख रहा है।
रूस जो पश्चिम एशिया में बड़ा रोल निभा रहा है उसे अब अमेरिका के द्वारा एक मौका खाली स्थान को भरने का मिल गया है। इसलिए वहतालिबान की नई सरकार से ज्यादा मिलाप करेगा। हालांकि पाकिस्तान तालिबान की सफलता से खुश है और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान भी खुश हैपरंतु यदि इस क्षेत्र में पुरानी राष्ट्रीयता की भावना को पुनर्जीवित किया जाता है तो इसका पाकिस्तान की स्वाधीनताऔर अखंडता पर भविष्य में नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
अफगानिस्तान में इस समय महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है कि यहां विदेशी शासन समाप्त हो गया है। अब भविष्य में पंजशीर घाटी के द्वारा ही विदेशी हमलावर यहां आकर पश्चिम एशिया के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं।
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POST COMMENTS (4)
इन्द्रेश कुमार मिश्र
rajendra singh chauhan
PRAMOD SAHU
Prashant