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पाकिस्तान के ‘मनगढ़ंत’ कहानियों की निकली हवा

सुशांत सरीन
रवि, 14 नवम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

हाल ही में, पाकिस्तान और वहाँ के सैन्य प्रतिष्ठानों को ‘भारतीय एजेंटों’ के सामने घुटने टेकने के लिए दो यू-टर्न लेने पड़ेl पहला यूटर्न, तहरीक-ए-लब्बैक (टीएलपी) के सामने अपमानजनक रूप से किया गया आत्मसमर्पण, दूसरा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के साथ किये गए अपमानजनक समझौते को सही ठहराने के लिए मौखिक और बौद्धिक उठापटक था।

टीएलपी के सामने आत्मसमर्पण से कुछ दिन पहले, पाकिस्तान में फर्जी खबरों के मुखिया एवं दुष्प्रचार मंत्री फवाद चौधरी ने इमरान खान के अन्य साथियों के साथ मिलकर पूरे जोर शोर से आरोप लगाया कि टीएलपी को भारत वित्त पोषित कर  रहा है, और इसके सोशल मीडिया का सारा अभियान भारत से चलाया जा रहा हैl इसके भारतीय एजेंसियों के साथ संबंध है। लेकिन जब शासन ने इन ‘रॉ प्रायोजित’ मौलवियों के सामने समर्पण कर दिया, तो वही नकली समाचार पेडलर्स उस समय शर्मिंदगी से भर गए, जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि उन्होंने ‘भारतीय एजेंटों’ के साथ सौदा कैसे और क्यों किया?

टीटीपी के साथ ‘शांति वार्ता’ एवं जिहादी आतंकवादियों के साथ संघर्ष विराम समझौता और भी चौंकाने वाला यू-टर्न है। एक दशक से अधिक समय से, टीटीपी को भारत द्वारा वित्त पोषित किये जाने वाले संगठन के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। इस बेहूदा, या यूं कहें कि फर्जी खबर को उनके बाध्यकारी ‘स्वतंत्र’ मीडिया और नफरत भरी, प्रेरित, लेकिन पूरी तरह से अज्ञानी पाकिस्तान की जनता के सामने प्रस्तुत किया गया था। उन्होंने निर्विवाद रूप से इसका इस्तेमाल किया, क्योंकि यह उनके सभी पूर्वाग्रहों और हिंदूओ के बारे में नफरत फैलाने के उनके षड्यंत्र के अनुरूप थाl जो देश को लगातार कमजोर करने या पूर्ववत बनाये रखने की कोशिश कर रहे थे। फिर एक दशक तक सभी प्रकार के प्रयासों के बाद, अचानक सैन्य प्रतिष्ठान और उसके ‘चयनित’ शासन ने अपनी जनता को सूचित किया कि ये ‘रॉ प्रायोजित’ इस्लामवादी हत्यारे अब शांति में भागीदार होने जा रहे हैं।

पाकिस्तानी ‘प्रतिष्ठान’ और सरकार को भारत हमेशा से एक सुविधाजनक मार्ग  दिखाई देता है। पाकिस्तान के लोगों के दिमाग को भारतीय लेबल वाली बातों से ज्यादा कुछ भी आकर्षित नहीं करता। नवंबर 2007 में, मुशर्रफ युग के   अत्यधिक महत्वपूर्ण पद भार वाले एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ने मेरे साथ ऑफ-द-रिकॉर्ड हुई एक चर्चा में स्वीकार किया कि किसी भी व्यक्ति, पार्टी या आंदोलन में भारत-बलूचिस्तान, एमक्यूएम, टीटीपी, टीएलपी, पीटीएम से जुड़े किसी भी मुद्दे पर    जनता का समर्थन हासिल करना बेहद आसान है। इन आरोपों के सच को सत्यापित करने के लिए कोई भी व्यक्ति गंभीर सवाल पूछने की जहमत नहीं उठाता। वह इस तरह के आरोपों, उनके पीछे के तर्क, या इसके अभाव की तो जांच  ही नहीं करता। किसी भी बे-सिर पैर की कहानी को आंख मूंदकर सच मान लिया जाता है और यह कहानी जितनी अधिक बेहूदा और बेतुकी होती है, उतनी ही ज्यादा बिकती है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है कि जब हाल ही में एक सेवानिवृत्त जनरल ने टीवी कार्यक्रम में दावा किया कि भारत ने अपने लोगों को (कभी निर्दिष्ट नहीं किया कि कौन से लोग और कहां से) अफगानिस्तान भेजा, उन्हें प्रशिक्षित किया और फिर उन्होंने वखान कॉरिडोर के माध्यम से चीन के झिंजियांग में तनाव के लिए घुसपैठ की है। इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया गया, किसी ने मांगा भी नहीं; शो के सभी मेहमानों ने इस जनरल की   बेहूदा बातों को सच मान लिया।

पाकिस्तानी मीडिया से या उनकी टिप्पणियों में कोई भी उनसे नहीं पूछता कि अगर टीटीपी भारत के लिए काम कर रहा था या उसे भारत द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा था, तो आईएसआई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा ने 2008 में मुंबई में 26/11 के हमलों के बाद बैतुल्ला महसूद को देशभक्त पाकिस्तानी क्यों कहा था। शाहबाज शरीफ ने 2010 में सार्वजनिक रूप से यह क्यों कहा कि टीटीपी को पंजाब में हमले नहीं करने चाहिए क्योंकि पीएमएलएन सरकार और टीटीपी दोनों ही परवेज मुशर्रफ की अमेरिका समर्थक नीतियों के विरोधी थे? इमरान खान ने टीटीपी के खिलाफ सैन्य अभियानों का विरोध क्यों किया और खैबर पख्तूनख्वा में अपने कार्यालय खोलने की वकालत की, जहां उनकी पार्टी शासन कर रही थी?  जमाते इस्लामी के अमीर मुनव्वर हसन ने ड्रोन हमले में मारे गये टीटीपी प्रमुख हकीमुल्लाह महसूद को शहीद क्यों कहा?

राजनेताओं और टीटीपी के पक्ष में ‘प्रतिष्ठान’ के ऐसे अनगिनत बयान हैं। वे सभी एक ऐसे संगठन के पक्ष में क्यों थे जिसे रॉ द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा था? सेना ने उस टीटीपी के प्रति नरम रवैयाँ क्यों अपनाया, जिसने सैनिकों का नरसंहार किया था और ये जानते हुए भी कि ये भारतीय एजेंट थे, उनके साथ संबंध क्यों बनाया? जातिगत राष्ट्रवादियों के विपरीत – बलूच, पश्तून और सिंधी – जिन्हें देश का दुश्मन माना जाता है, इन्हें मुख्य धारा में वापस लाने की जरूरत  क्यों पड़ीl पाकिस्तान का सुरक्षा प्रतिष्ठान टीटीपी आतंकवादियों को ‘गुमराह’ युवाओं के रूप में मानता था। भारत के पे-रोल वाले आतंकियों के प्रति इतनी नरमी क्यों दिखाई गयी?

पाकिस्तान का प्रेस इस कदर समझौता कर चुका है और वह अपने लोगों में बार-बार घृणा फैलाता है कि अशरफ गनी की सरकार ने भारत को पाकिस्तान के खिलाफ टीटीपी का इस्तेमाल करने की खुली छूट दे दी है। वे यह आरोप भी लगाते हैं कि अफगान खुफिया एजेंसियों ने टीटीपी कैडरों और कमांडरों को  अफगानिस्तान में सुरक्षित पनाहगाह दी थी। लेकिन वे यह कभी नहीं कहते कि 2014 में जब अशरफ गनी सत्ता में आए, तो लगभग एक साल तक पाकिस्तान को खुश करने की कोशिश में वो पीछे ही रहे। उन्होंने भारत को ठंडे बस्ते मे रखा। पाकिस्तान द्वारा पीठ में बार-बार छुरा घोंपने के बाद ही गनी ने वास्तविकता को पहचाना और वे पाकिस्तान के विश्वासघातियों को गाली देने लगे। दूसरे, जिन क्षेत्रों में टीटीपी गुरिल्लाओं ने शरण ली थी, वे अफगानिस्तान के अनियंत्रित स्थान थे। यहां तक ​​कि अफगान सरकार की रिट भी वहां नहीं चलती। वहीं पाकिस्तान  के लोग, जो काबुल के मेयर के रूप में गनी की खिल्ली उड़ाते थे। बिना पलक झपकाए अब उन पर दुर्गम और दूर के क्षेत्रों में टीटीपी पर कार्रवाई न करने का आरोप लगा रहे थे।

तीसरा, गनी सरकार ने टीटीपी के शीर्ष कमांडरों सहित सैंकड़ों लड़ाकों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था। सत्ता पर कब्जा करने के बाद पाकिस्तान के प्रॉक्सी अफगान तालिबान ने इनमें से अधिकांश को जेलों से रिहा कर दिया। यदि वास्तव में भारत का गनी सरकार पर इतना दबदबा था और उसने टीटीपी के साथ हाथ मिला लिया था, तो भारत ने सभी टीटीपी सेनानियों को रिहा करने के लिए गनी पर दबाव क्यों नहीं डाला? चौथा, 2014 में पाकिस्तान के सैन्य अभियानों के परिणामस्वरूप  टीटीपी के अधिकांश लड़ाके अफगानिस्तान चले गए थे। 2015 से 2019 तक, पाकिस्तान में टीटीपी आतंकी गतिविधियों में तेज गिरावट देखी गई। यदि रॉ और एनडीएस टीटीपी का उपयोग कर रहे थे, इसे वित्त पोषित कर रहे थे, इसे हथियारों से लैस कर रहे थे, इसे प्रशिक्षण दे रहे थे तो – जैसा पाकिस्तानी विश्लेषकों का दावा है कि अफगानिस्तान में सेनानियों के शरण लेने के बाद टीटीपी का भारतीय प्रायोजन बढ़ गया था- तो निश्चित रूप से यह रॉ और एनडीएस की ओर से एक व्यर्थ अभ्यास था, क्योंकि ये लोग वह परिणाम दे पाने में असमर्थ रहे, जिसकी उम्मीद उनके प्रायोजकों ने उनसे की होगी।

पाकिस्तानी ‘प्रतिष्ठान’ जानता था कि अफगान तालिबान और पाकिस्तानी तालिबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इनका वैचारिक रूप से पूरी तरह से गठबंधन है। फिर भी पाकिस्तान ने इस कल्पना को हवा देना जारी रखा कि अफगान तालिबान का पाकिस्तानी तालिबान के साथ कोई संबंध नहीं है। यहां तक ​​कि टीटीपी अमीर ने भी तालिबान अमीर-उल-मोमिनीन के प्रति निष्ठा की शपथ ली। जबकि वे अफगान तालिबान की तरफ से लड़े थे और 9/11 के बाद जब वे अफगानिस्तान से भाग गये थे तो उन्हें अपने यहाँ शरण दी। हक्कानी नेटवर्क सहित तालिबान ने टीटीपी के भीतरी विवादों को सुलझाया और टीटीपी नेतृत्व को  साफ करने में भूमिका निभाई। अफगान तालिबान ने टीटीपी के आतंकवादी हमलों की कभी निंदा नहीं की, और टीटीपी को सुरक्षा बल कर्मियों या नागरिकों को निशाना बनाने से कभी नहीं रोका। लेकिन पाकिस्तान के लिए तालिबान रणनीतिक सहयोगी थे और टीटीपी का सारा दोष भारत पर डाल दिया गया था।

तालिबान द्वारा अपने अमीरात को फिर से स्थापित करने के बाद, टीटीपी की गतिविधियों में अचानक तेज़ी आ गयी। पाकिस्तान में फेक न्यूज बेचने वालों के लिए यह वास्तव में शर्मनाक था, क्योंकि अब दोष देने के लिए कोई भारत नहीं था। यहां तक ​​कि सामान्य रूप से आज्ञाकारी और समझौता करने वाले पाकिस्तानी मीडिया ने भी टीटीपी और अफगान तालिबान के साथ उनके संबंधों के बारे में असहज सवाल पूछना शुरू कर दिया था। इस ‘प्रतिष्ठान’ के प्रवक्ताओं ने इसको जो घुमाव दिया, वह कपट से भरा था। उन्होंने दावा किया कि टीटीपी की गतिविधियों में वृद्धि इसलिए हुई क्योंकि वे भारत द्वारा छोड़े गए धन और हथियारों का उपयोग कर रहे थे, और ये हमले जल्द ही समाप्त हो जाएंगे।

पाकिस्तान को विश्वास था कि चूंकि उन्होंने अमेरिका के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय गठबंधन के खिलाफ आतंकवाद का अभियान छेड़ते हुए पूरे 20 वर्षों तक तालिबान का समर्थन किया था, इस लिए तालिबान टीटीपी पर नकेल कस कर जवाबी कार्रवाई करेगा। लेकिन उनकी उम्मीदों के विपरीत, तालिबान ने टीटीपी के खिलाफ किसी भी सैन्य अभियान को अंजाम देने से बार-बार इंकार किया है। ऐसा करने के  बजाय, उन्होंने पाकिस्तान से कहा कि वे टीटीपी को समायोजित करें और उनके साथ बातचीत करके उन्हें स्वदेश वापसी की सुविधा प्रदान करें। अगर अशरफ गनी ने ऐसा ही कुछ कहा होता, तो पाकिस्तानी बैलिस्टिक हो जाते। हालांकि, अब अफगान तालिबान उन्हें जो कुछ करने के लिए कह रहा है, उन्होंने बड़ी विनम्रता से उसके आगे घुटने टेक दिए है।

यदि पाकिस्तान आतंकवाद के टीटीपी ब्रांड या उग्रवाद के टीएलपी ब्रांड का मुकाबला करने के लिए गंभीर है, तो उसे इन संगठनों के बारे में अपने इनकार को समाप्त करने की आवश्यकता है, और इन आंदोलनों और संगठनों के निर्माण में  भारत की कथित भूमिका पर अपनी असहमति व्यक्त करनी होगी। लोगों से कहे  जाने वाले झूठ को वापस आने की बुरी आदत है; अपने आप से कहा गया झूठ, और इससे भी बदतर, उन झूठों पर विश्वास करना और उन्हें आत्मसात करना, एक बड़ी आपदा के लिए जमीन तैयार करता है, ठीक उसी आपदा का सामना पाकिस्तान अब कर रहा है। टीटीपी या टीएलपी के लिए भारत को दोष देकर ध्यान भटकाने से पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला, इससे भी अधिक अफगानिस्तान में अब ऐसा कोई भारत नहीं है जिसे पंचिंग बैग के रूप में  सुविधाजनक रूप से इस्तेमाल किया जा सके।

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लेखक
सुशांत सरीन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं और चाणक्य फोरम में सलाहकार संपादक हैं। वह पाकिस्तान और आतंकवाद विषयों के विशेषज्ञ हैं। उनके प्रकाशित कार्यों में बलूचिस्तान : फारगॉटेन वॉर, फॉरसेकेन पीपल (2017), कॉरिडोर कैलकुलस : चाइना-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर और चीन का पाकिस्तान में निवेश कंप्रेडर मॉडल (2016) शामिल है।

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