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हमारी गलत प्राथमिकताएं

मेजर जनरल हर्ष कक्कड़ (रि॰)
रवि, 07 नवम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

हाल ही मे घटित हुई दो घटनाओं को अलग-अलग तरह की मीडिया कवरेज  मिली। दोनों घटनाओं में शामिल व्यक्ति एक ही उम्र, यानि दोनों 23 वर्ष के थेl पहली घटना में, अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को नशीली दवाओं से संबंधित आरोप में गिरफ्तार किया गया था और जमानत मिलने से पहले चार सप्ताह तक हिरासत में रखा गया। उनके कारावास के पूरे समय के दौरान मीडिया ने प्रत्येक गतिविधि का अनुसरण किया, समाचार चैनलों ने उनकी भागीदारी पर बहस करते हुए घंटों समर्पित किये और कई मौकों पर तो उन्होंने जो कुछ खाया और जो लोग उनसे मिलने आए, उन्हें भी कवर किया। आर्यन को समर्थन देने के लिए फिल्मी सितारों और राजनेताओं ने शाहरुख खान के आवास पर लाइन लगा दी।

लगभग उसी समय, 23 वर्षीय लेफ्टिनेंट ऋषि कुमार, एक सैनिक मंजीत सिंह के साथ एलओसी के पास एक बारूदी सुरंग विस्फोट में अपनी जान गंवा बैठे। ऋषि अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र था, जबकि मंजीत सिंह को सेवा में आये मुश्किल से पांच वर्ष ही हुए थेl इन दोनों की उम्र लगभग समान थी। आर्यन खान के पहले पन्ने की सुर्खियों की तुलना में इस घटना के समाचार को अखबारों के कोनों में कवर किया गया था। यह भारतीय मीडिया की विडंबना है।

मीडिया और कई फिल्मी हस्तियों ने आर्यन को 23 साल की उम्र में बच्चा ही करार दिया, बावजूद इसके कि इस उम्र में उनसे समझदारी से वोट करने की उम्मीद की जाती है और वह अपना जीवन साथी चुन सकते हैं। मुझे आश्चर्य है कि क्या इन लोगों को पता नही है कि इस उम्र में सेना के अधिकारी युद्ध और उग्रवाद विरोधी अभियानों का नेतृत्व करते है, अपनी और उन लोगों की जान गवां देते हैं जिनका वे नेतृत्व कर रहे होते हैं। असाधारण साहस, धैर्य का परिचय देने वाले और अपने जीवन बलिदान करते हुए ऑपरेशन में सफलता हासिल करने  वालों में से ज्यादातर 23 वर्ष के ही थे।

देश की रक्षा करते हुए कारगिल में सर्वोच्च बलिदान देने वाले हमारे दो राष्ट्रीय  प्रतीक विक्रम बत्रा और मनोज कुमार पांडे की आयु भी लगभग 23 वर्ष ही थी।   सेवारत रहते हुए परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले योगेंद्र यादव और संजय कुमार भी  केवल 9 और 23 वर्ष के थेl उससे भी कम उम्र में सैनिक कारगिल में तैनात थे और गर्व के साथ देश की सेवा कर रहे हैं।

शाहरुख के घर के बाहर हजारों की संख्या में फैन्स जमा हो गए और उन्होंने पटाखे फोड़कर आर्यन की वापसी का जश्न मनाया। जहां एक परिवार त्योहारों का आनंद उठा रहा है क्योंकि, उनके 23 वर्षीय बेटे को ड्रग के आरोप से जमानत पर रिहा किया जा रहा है, वहीं दूसरे परिवार जिसने अपने जीवन की रोशनी खो दी है  उसे मीडिया ने नजरअंदाज किया और वे मौन में शोक मनाएंगे। मीडिया ने एक  अंतिम यात्रा को नजरअंदाज करते हुए उत्सव को उल्लास के साथ कवर किया।

देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों के मामले में, छोटे शहरों के निवासी, जिनमें से यह बहादुर सैनिक भी हैं, वे दुख की घड़ी में परिवार के साथ खड़े रहते हैं और उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैंl जबकि मीडिया मशहूर हस्तियों पर ध्यान केंद्रित करता है। ये वो आम भारतीय हैं, जिन्होंने मीडिया को उसकी इच्छा पर छोड़ते हुए वे जो करना चाहते हैं, उन्हें करने दिया  और बहादुर सैनिक के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया। मीडिया सत्ताधारी, कुलीन और शक्तिशाली घरानों को अधिक महत्व देता हैl उसे अपनी जान जोखिम में डालकर कर्तव्य निभाने वाले साधारण सैनिक से ज्यादा अमीर और प्रसिद्ध  व्यक्तियों से सरोकार है।

वे यह संदेश दे रहे हैं कि कानून तोड़ना आपको सामाजिक पहचान और मीडिया स्पेस दिला सकता है, जबकि देश के लिए अपने जीवन का बलिदान देने का कोई मतलब नहीं है, खासकर अगर सैनिक एक छोटे शहर के एक साधारण परिवार से आता है। क्या मीडिया यही चाहता है कि हमारे युवा इसी बात पर विश्वास करें।

आर्यन खान को जब तक जमानत नहीं मिल गयी उसकी जमानत की सुनवाई दिन-ब-दिन होती रहीl जबकि हजारों विचाराधीन कैदी ऐसे हैं, जो मामूली आरोपों के लिए कैद में है, उनकी जमानत की सुनवाई केवल इसलिए नहीं हो पाती, क्योंकि वे अदालत में अपने बचाव के लिए हाई प्रोफाइल वकीलों का खर्च नहीं  उठा सकते। वे बिना किसी ठोस कारण के वर्षों लॉकअप में बिताते हैं और फिर भी हम यह दावा करते हैं कि न्याय सबके लिए समान है। अगर ऐसी असमानताएं हमारी न्यायिक व्यवस्था पर मजाक नहीं है, तो मुझे आश्चर्य है कि और क्या होगा।

आर्यन ने एक मनोरंजन कार्यक्रम में भाग लिया, यह जानते हुए भी कि वह जो कर रहा था वह कानून के खिलाफ है, जबकि ऋषि अपने काम पर चले गए, यह जानते हुए कि उनकी जान जाने सहित कुछ भी संभव हो सकता है। आर्यन खान को दूसरा मौका मिलेगा, क्योंकि अदालत उन्हें मुक्त कर सकती है। देश की सेवा करने वाले और अपने प्राणों की आहुति देने वाले ऋषि को दूसरा मौका कभी नहीं  मिलेगा।

जो लोग वर्दी पहनते हैं, वे राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी के बारे में दो बार नहीं सोचते और अपने जीवन को दांव पर लगा देते हैं, क्योंकि यह उनकी अपने कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता है, जबकि मशहूर हस्तियां यह जानकर नियम तोड़ती हैं कि वे बच सकते हैं। फिर भी, सैनिकों के बलिदानों को भुला दिया जाता है, जबकि मशहूर हस्तियों की पूजा की जाती है। प्राणों की आहुति देने वाले सैनिक अपने परिवारों और जिस यूनिट में उन्होंने सेवा की, उनके दिलों में रहते है, जबकि कानून तोड़ने वालों को मीडिया हीरो बना देता है।

मीडिया को इस बात पर विचार करना होगा कि हमारे युवाओं का रोल मॉडल कौन  होना चाहिए, अपना जीवन बलिदान करने वाले या कानून तोड़ने वाले। उनकी धारणा के अनुसार ये रोल मॉडल निश्चित रूप से कानून तोड़ने वाले आर्यन खान  जैसे ही हैं, सैनिक नहीं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कहावत, ‘भगवान और सैनिकों को केवल मुसीबत के समय ही याद किया जाता है,’ का उपरोक्त एक  प्रभावशाली चित्रण है।

यह याद रखना होगा कि कोई भी देश केवल तभी विकास कर सकता है और  जनता की माँगो को पूरा कर सकता है, जब उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित हो। एक असुरक्षित राष्ट्र कभी भी विकास के लिए आवश्यक निवेश और प्रौद्योगिकी को आकर्षित नहीं करेगा। हमारे पड़ोस में पाकिस्तान इसका प्रमुख उदाहरण है। जो लोग इस सेवा के लिए अपने प्राणों की आहुति देते हैं, वे स्वयंसेवी होते हैं और कानून तोड़ने वालों के समान नागरिक होते हैं। हालाँकि, मीडिया उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिकों के रूप में वर्गीकृत करता है। क्या यह मीडिया की पाठकों और दर्शकों की संख्या को बढ़ाने की माँग के कारण है अथवा एक अमीर और प्रसिद्ध व्यक्तित्व की संतान होने के कारण यह छोटे शहर के युवा सैनिक की तुलना में  मीडिया मे अधिक बिक्री योग्य है।

देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों को मीडिया अखबारों के कोने में खो देता है, जबकि प्रसिद्ध घरों के लोग, यहां तक ​​कि असामाजिक गतिविधियों के आरोपी, पहले पन्ने पर हैं। क्या यह वह सम्मान है, जो हम उन लोगों को देते हैं जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, ताकि देश का विकास हो सके।

हम एक ऐसे राष्ट्र के रूप में दिखाई देते हैं, जो हमारी सीमाओं की रक्षा करने वालों की तुलना में असामाजिक गतिविधियों में शामिल लोगों का महिमामंडन करते हुए, उनकी सेवा करते हैं। यदि हम राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करना चाहते हैं और राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ाने की आशा रखते हैं, तो मीडिया को आत्म विश्लेषण करने और अपनी प्राथमिकताओं में सुधार करने की आवश्यकता है।

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लेखक
मेजर जनरल हर्ष कक्कड़, रक्षा प्रबंधन कॉलेज, सिकंदराबाद में सामरिक अध्ययन विभाग के प्रमुख थे।
वह टोरंटो में कैनेडियन फोर्स कॉलेज में राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन पाठ्यक्रम के पूर्व छात्र हैं। जनरल कक्कड़ 
बड़े पैमाने पर समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन न्यूज़लेटर्स के लिए लिखते हैं। उनके लेखों में 
अंतरराष्ट्रीय संबंधों, रणनीतिक खतरों (दक्षिण एशिया पर जोर देने के साथ सैन्य और गैर-सैन्य दोनों), 
रक्षा योजना और क्षमता निर्माण, राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनीतिक-सैन्य सहयोग शामिल हैं।

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