• 26 April, 2024
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आयुध कारखानों का निगमीकरण : “आखिरी बड़ी समस्या” से छुटकारा

कर्नल (डॉ) डीपीके पिल्ले (रि)
रवि, 24 अक्टूबर 2021   |   12 मिनट में पढ़ें

निगमित आयुध कारखानों की सात नई इकाइयों को निगमित किये जाने के साथ ही रक्षा मंत्रालय ने ” आखिरी बड़ी समस्या” को ख़त्म कर दिया। यह पहाड़ की किसी चोटी पर जीत हासिल कर लेने के समान है। आयुध कारखानों को पेशेवर बनाना एक “आखिरी बड़ी समस्या” थी, जो साउथ ब्लॉक के नौकरशाहों के पास बची हुई थी।

कोलकाता में आयुध निर्माण बोर्ड के अंतर्गत आने वाली 41 फैक्ट्रियां जूते, वर्दी से लेकर सटीक गोला-बारूद, बख्तरबंद वाहन और आर्टिलरी गन के उत्पादों की श्रृंखला के साथ दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा सामग्री समूह है। जब से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने काशीपुर में अपनी राइफल फैक्ट्री की स्थापना की, तभी से बोर्ड को 3,500 करोड़ रुपये से अधिक का वार्षिक बजट प्राप्त होता रहा है। इसमें 76,000 स्थायी कर्मचारी हैं और यह 60,000 एकड़ भूमि में फैला है।

ओएफबी के 80 प्रतिशत से अधिक ऑर्डर भारतीय सेना से आते हैं, हालांकि 41 कारखाने सेना की मुश्किल से 50 प्रतिशत आवश्यकताओं को ही पूरा कर पाते हैं। ओएफबी  नामांकन के आधार पर सशस्त्र बलों – कैप्टिव ग्राहक – को  सामग्री की आपूर्ति करता है। इस एकाधिकार के कारण, ओएफबी को अपने उत्पादों की क्वालिटी में सुधार करने, उसकी गुणवत्ता और समय पर डिलीवरी आदि मुद्दों पर ग्राहकों की प्रतिक्रिया प्राप्त  नहीं होती।

वर्षों से आयुध निर्माताओं को “रक्षा की चौथी शाखा” के रूप में जाना जाता है। इसने अपनी  आधुनिकता और अपने ग्राहकों का विश्वास खो दिया है। लंबे समय से वे अपने काम करने के  मुद्दों की समस्यायों का सामना कर रहे हैं, पिछले कुछ दशकों से ओएफबी के कामकाज के बारे में कई हलको में चिंता जतायी जा रही हैं। इसके आलोचकों के अनुसार, इनमें पेशेवर क्षमताओं की कमी है। जबकि निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा के लिए काम करो या खत्म हो जाओ का सिद्धांत है।

कई प्रयास

पर्वतारोही कुछ चोटियों पर चढ़ने की कोशिश नहीं कर रहे, क्योंकि उन चोटियों को कैलाश पर्वत या आयर्स रॉक जैसे देवताओं के निवास स्थान के रूप में पवित्र जगह माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि उन चोटियों पर चढ़ाई का कोई भी प्रयास बदनसीबी लाता है। आयुध कारखानों को उपयोगी बनाने की बात इस कहानी के अभिशाप पर खरी उतरती है।

कई कोशिशें की गई। आयुध कारखानों मे दक्षता लाने का पहला प्रयास 1979 में एक समिति बना कर किया गया। जिसके अध्यक्ष योजना आयोग के सदस्य श्री राज्याक्ष थे। उनके अनुसार सभी कारखानों को एक साथ लाने के लिए संगठन संरचना और प्रबंधन में पारदर्शिता की जरूरत होगी। जिसके लिए एक बोर्ड की आवश्यकता है। कोलकाता में आयुध  बोर्ड बनाया गया जिससे कुछ ज़्यादा हासिल नहीं हुआ।

2001 में, टीकेए नायर की अध्यक्षता में एक समिति ने आयुध कारखानों की अल्पकालिक और दीर्घकालिक संभावनाओं की जांच की और इन तीन विकल्पों पर विचार किया, जो यथास्थिति बनाये रखना; डीएई/डीआरडीओ/इसरो मॉडल पर आधारित कार्यो को एकीकृत करना; और तीसरा, इसका बीएसएनएल की तर्ज पर आयुध निर्माण निगम लिमिटेड में निगमीकरण हैं।

यह निगमीकरण तीन श्रेणियों में होना था – ओएफ की उच्च मात्रा और मुख्य दक्षता, दूसरा कम मात्रा लेकिन तकनीकी रूप से जटिल और तीसरा वे कारखाने जो, आसानी से उपलब्ध होने वाले उत्पादों जैसे जूते, वर्दी और कपड़ों आदि के साथ प्रतिस्पर्धा हो। सार्वजनिक कंपनी बनने की क्षमता के लिए उद्यम भागीदारों की पहचान के साथ इसे तीन चरणों में  पूरा किया जायेगा। हालांकि ये केवल सिफारिशें ही बनी रही।

1999 में कारगिल युद्ध के बाद, मंत्रियों के एक समूह ने “रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों और आयुध कारखानों में परिवर्तनों लाने के उद्देश्य से रक्षा उद्योगों का एक संगठन बनाये जाने के लिए डिज़ाइनर और इंटीग्रेटर की भूमिका की जांच करने की सिफारिश की …” केलकर समिति की आयुध कारखानों से संबंधित यह सिफारिशें टीकेए नायर की रिपोर्ट के समान ही थीं।

केलकर रिपोर्ट की अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में प्रोबीर सेनगुप्ता के नेतृत्व वाली समिति ने भारतीय रक्षा औद्योगिक क्षेत्र के नवरत्नों की पहचान की। 2007 में 12 निजी क्षेत्र की फर्में और एक पीएसयू (बीएचईएल) को रक्षा उद्योग रत्न के रूप में चुना गया था। इन आरयूआर को रक्षा पीएसयू और ओएफबी के बराबर माना गया था, जो सशस्त्र बलों से सीधे आदेश लेने के साथ-साथ डीआरडीओ के साथ मिलकर विकास और शोध कार्यो के लिए वितीय सहायता भी लेते थे। इस कदम को डीपीएसयू और ओएफ की निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा की तरफ एक छलांग माना गया। एक बार फिर, यूनियनों की जीत हुई और  सरकार को रक्षा के निजी क्षेत्र के छोटे खिलाड़ियों के साथ साथ कई अन्य लॉबियो के दबाव का सामना करना पड़ा।

रक्षा मंत्री, श्री एके एंटनी ने स्थायी समिति को दिये अपने जवाब में कहा कि सरकार ने  आयुध कारखानों का निगमीकरण ना करने का फैसला किया है। अप्रैल 2015 में एडमिरल रमन पुरी समिति ने ओएफबी के कामकाज में बदलाव करके इसे “मंत्रालय के सहयोगी कार्यालय और बजट इकाई के रूप में बंनाने की सिफारिश की, क्योंकि ये उत्पादन और गुणवत्ता नियंत्रण के आधुनिक तरीकों के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाते”। उन्होंने ओएफबी को फिर से निगमित करने और इसे तीन या चार खंडों में विभाजित करने की सिफारिश भी  की।

रवींद्र गुप्ता टास्क फोर्स ने भी आयुध कारखानों में समान दक्षता की मांग की। धीरेंद्र सिंह टास्क फोर्स ने ‘मेक इन इंडिया’ के आवश्यक नीतिगत परिवर्तनों की जांच की, लेकिन  आयुध कारखानों से संबंधित सभी सिफारिशों का हश्र पहले के प्रयासों के समान ही था।

इस संबंध में चिंतित करने वाली कई बातें हैं, जिनमें देरी से डिलीवरी होना सबसे कम नुकसानदायक है, जबकि सैनिकों की सुरक्षा और घटिया सामग्री को शिकायतों में उच्च स्थान दिया गया। दोषपूर्ण  ढंग से या देरी से सुपुर्दगी पर दंड की कोई धारा नहीं है।

2016 की उरी घटना में, पाकिस्तानी समर्थित आतंकवादियों द्वारा 16 सैनिकों की हत्या के लिए भारत के कठोर दंडनीय हमलों की जरूरत थी। लगभग उसी समय दोषपूर्ण निर्माण  और भंडारण की वजह से, पुलगांव के गोला बारूद डिपो में 17 सैनिक मारे गए। दोषपूर्ण गोला-बारूद निर्माताओं को इन मौतों के लिए समान संख्या में दंडित नहीं किया गया, इसके बजाय अनुचित भंडारण के लिए डिपो पर दोष लगा दिया गया, हालांकि प्रक्रिया के  अनुसार निर्माता को तत्काल वापिस बुलाने और मामले की पता लगाने तथा 100% माल को बदला जाना चाहिए था। हालांकि, दोषपूर्ण गोला-बारूद को नष्ट करने के बजाय, कारखाने ने गोला-बारूद के भंडार को बनाये रखने के लिए इसे इकट्ठा करने में देरी की और इस वजह से  हुई दुर्घटना ने 17 सैनिकों की जान ले ली।

 

व्यावसायिक रूप से खरीदे गए उत्पादों के लिए अधिक मूल्य निर्धारित करने की गंभीर चिंताएं भी थीं, उदाहरण के लिए, व्यावसायिक रूप से उपलब्ध अशोक लीलैंड के एक ट्रक को एक्स व्हीकल फैक्ट्री ,जबलपुर को उसमें कुछ अतिरिक्त सुधार या सुविधाएं शामिल किये बिना ही ,बढ़े हुए मूल्यों पर दिया गया। इसी तरह, जूते और कपड़े आदि जैसी अन्य वस्तुएं व्यावसायिक बाजार के मानकों से मेल नहीं खाती, जिससे सैनिक इन वस्तुओं के लिए स्थानीय बाजार को प्राथमिकता देते थे।

निगमीकरण की गोली चबाना

यह देखते हुए कि सरकार बार-बार आयुध कारखानों को निशाना बनाने के लिए तैयार नहीं  है, आयुध निर्माण बोर्ड (ओएफबी) के 100% सरकारी स्वामित्व वाली संस्थाओं के निगमीकरण की घोषणा का कई विपक्षी दलों द्वारा विरोध का इतिहास रहा है। परंतु इसके बावजूद यह कार्यवाही  एक ऐतिहासिक घटना है।

ओएफबी के एकाधिकार को खत्म करने के लिए पहला कदम तब शुरू हुआ, जब एनडीए सरकार ने 275 कम महत्व वाली वस्तुओं को अधिसूचित किया, जिन्हें सशस्त्र बल अब खुले बाजार से खरीद सकते थे। अतीत में, सेवा कर्मियों को इन वस्तुओं की खरीद केवल ओएफबी से  ही करनी पड़ती थी। ऐसे समय में सरकार ने प्राइवेट व्यापारियों को गोला-बारूद बनाने की अनुमति दी, जो विश्वास की एक बड़ी छलांग थी।

नवीनतम आदेशों के अनुसार मौजूदा 7 कॉर्पोरेट संस्थाओं में 41 कारखानों, जैसे गोला बारूद और विस्फोटक, वाहन, हथियार और उपकरण, ट्रूप कम्फर्ट, एंसिलरी, ऑप्टो-इलेक्ट्रॉनिक्स और पैराशूट समूह  को शामिल किया गया है,जिन्होंने 01 अक्टूबर 2021 से काम करना शुरू किया  है।

हालांकि कवर करने के लिए बहुत कुछ है। निगमीकरण के खिलाफ संगठित श्रमिक संघों के प्रमुख बिंदु निजी क्षेत्र को सौंपे जाने वाले रक्षा उपकरण और भूमि हैं। उनके अनुसार यह राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक है, क्योंकि निजी और विदेशी व्यपारियो की महत्वपूर्ण उद्योगों तक पहुंच होगी और इसका प्रभाव रक्षा तैयारियों पर पड़ेगा। वे कहते हैं कि ओएफबी को व्यावसायिक आधार पर कार्य करने के लिए नहीं बनाया गया था, बल्कि युद्ध के समय के लिए रणनीतिक  क्षमता  बढ़ाने के लिए बनाया गया था।

इसके लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा उत्पादन अधिनियम 1950 से एक संकेत लिया जा सकता है, जहां एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से निजी कंपनियों को, संघीय सरकार के आदेशों को प्राथमिकता देने के साथ-साथ राष्ट्र के लिए “सामग्री, सेवाओं और सुविधाओं को आवंटित करने” में सशक्त बनाने और रक्षा उद्देश्यों, तथा आवश्यक आपूर्ति की जमाखोरी को  रोकने के लिए कार्रवाई करने का  अधिकार  दिया गया है। राष्ट्रपति बाइडेन ने इस अधिनियम का उपयोग टीका निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरणों के निर्यात को रोकने के लिए किया, जिससे इस वर्ष की शुरुआत में भारतीय क्षमताएं प्रभावित हुई।

दरअसल, कर्मचारी संघ की मुख्य चिंता छंटनी को लेकर है। सरकार ने आश्वासन दिया है कि वह दो साल के लिए उनकी सेवा शर्तों में बदलाव किए बिना कर्मचारियों को प्रतिनियुक्ति पर नई संस्थाओं में स्थानांतरित करके उनके हितों की रक्षा करेगी। सेवानिवृत्त और मौजूदा कर्मचारियों की पेंशन देनदारियां सरकार द्वारा वहन की जाती रहेंगी। असंवेदनशील श्रमिक संघों के लिए, 03 अगस्त 2021 को आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक को समय पर पारित करने से उनके लिए हड़ताल का आह्वान करना और प्रक्रिया को बाधित करना थोड़ा मुश्किल  है।

क्या निगमीकरण जादू की गोली है?

सभी ने कहा कि नई संस्थाओं से क्षमता की उम्मीद करना कोई जादू की गोली नहीं है।  सबको यह भली भाँति पता है कि ओएफबी और डीपीएसयू दोनों ही सशस्त्र बलों की मांग को पूरा कर पाने असमर्थ थे। एक सुरक्षात्मक वातावरण ने अक्षमता, लागत-प्लस दृष्टिकोण को जन्म दिया और गुणवत्ता और नवाचार को मार दिया। रक्षा अधिग्रहण के मौजूदा स्तर पर  डीपीएसयू और ओएफ सेवा आवश्यकताओं  को पूरा करने में असमर्थ हैं। सेवा क्षेत्र भी डीपीएसयू की गुणवत्ता, लागत, रखरखाव समर्थन और आपूर्ति में ज्यादा देरी  होने की वजह से नाखुश था। उदाहरण के लिए एमडीएल और एचएएल के पास अभी  इतने ऑर्डर लंबित हैं, जिन्हें पूरा करने में दशकों लगेंगे। इस अतिरिक्त मांग ने वास्तव में अक्षमता को जन्म दिया और नवाचार की आवश्यकता को समाप्त कर दिया।

इसकी तुलना के लिए भारत में निजी उद्योग या अनेक पीएसयू द्वारा कोविड के दौरान   पीपीई किट और टीको की बढ़ी हुई मांग को पूरा करना है। भारतीय उद्योग ने वैश्विक प्रतिस्पर्धा को मात दी। अगर इस परिवर्तन में, आपातकालीन परिस्थितियों में उपयोग में आने वाली नई निगमित संस्थाओ को हटा दिया जाता है तो आगे की राह कठिन होगी।। जिन प्रमुख बिंदुओं का अध्ययन करने की आवश्यकता है, वे इस प्रकार हैं:

घाटे को रोकने  के लिए नई संस्थाओं का नेतृत्व

सशस्त्र और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के बाध्य करने वाले आदेश इस निगमीकरण के साथ समाप्त हो जायेंगे और व्यवस्था को नगदी के सुनिश्चित प्रवाह में बदल देंगे। इस प्रकार यह  दैनिक कामों के लिए रक्षा मंत्रालय के बजटीय आवंटन में सुनिश्चित वित्त   क्षमता को बढ़ाने वाला है। इसके अलावा, प्रत्येक नई इकाई को पंजीकृत करने और भौगोलिक रूप से विविध कारखानों को एक नए बोर्ड के तहत शामिल करने की प्रक्रिया, जेवी/एमओयू के लिए बाजारों और संभावित भागीदारों की पहचान करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए सरकारी धन और समर्थन की आवश्यकता होती है।

इन कारखानों का प्रबंधन करने के लिए नेतृत्व बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि गतिशील संस्थाएं ही समाधान ढूंढ सकती हैं। यूके में जेएलआर और ब्राजील में मार्को पोलो बसों के अधिग्रहण के बाद टाटा मोटर्स में  आये बदलाव  को महसूस किया जा सकता है। यह रतन टाटा की हठधर्मिता ही है कि उन्होंने न केवल अपने नेतृत्व में टाटा मोटर्स को बढ़ाया, बल्कि उन्होंने यूके में घाटे में चल रही प्रतिष्ठित जगुआर लैंड रोवर फैक्ट्री को भी बदल दिया।

अब रक्षा मंत्रालय का मुख्य कार्य सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में ऐसे नेतृत्व की पहचान करना है, जो इससे पहले  के नौकरशाहों या सेवा अधिकारियों के सामान्य समूह से परे उस डोमेन के विशेषज्ञ हों। इसी तरह, कारखानों में समान वेतन लागू करने के बजाय कर्मचारियों के सही मूल्यांकन से उन्हें मुआवजा देने से दक्षता लाई जानी चाहिए। यह उच्च तकनीक से लेकर निचले स्तर तक, पद और ग्रेड के बजाय कौशल के अनुरूप  होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि सरकार द्वारा ओएफ को मौजूदा वितरण अस्थायी अवधि के लिए जारी रहे  ताकि उन्हें परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रबंधन करने में मदद मिल सके।

विलय और अधिग्रहण

दुनिया भर में एकीकरण के प्रयास किए जा रहे हैं, जिससे ग्रुप (जैसे लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन, नॉर्थ्रॉप ग्रुम्मन और बोइंग) बन गए हैं। यह एयरोस्पेस उद्योग  की  कई अमरीकी कंपनियों के एकीकरण, गठबंधन और संसाधन जुटाने के लिए समान विचारधारा वाले  देशों की पूलिंग का परिणाम है। यह (यूरोफाइटर) और निजीकरण के माध्यम से रक्षा क्षेत्रों के बड़े सार्वजनिक क्षेत्रों की लागत को कम करने के लिए है। 2006 तक भारत फोर्ज मुख्य रूप से एक ऑटो कंपोनेंट फर्म थी। पिछले एक दशक के दौरान विलय और अधिग्रहण से, यह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी फोर्जिंग कंपनी में तब्दील हो गई है और इसने अपनी आर्टिलरी गन का निर्माण किया और इसके विनिर्माण का दायरा 11 स्थानों और 5 देशों में  फैला हुआ है।

1991 में पूर्व सोवियत संघ का विघटन भारतीय सशस्त्र बलों के लिए विनाशकारी साबित हुआ, क्योंकि भारतीय सेना की हार्डवेयर सामग्री का तीन-चौथाई भाग पूर्व सोवियत संघ से आता था। यह एक बड़ा संकट लेकिन भारतीय रक्षा क्षेत्र के लिए एक बड़ा अवसर भी था, जिसे हमने गंवा दिया। कई सोवियत कारखानों और वैज्ञानिकों को अन्य देशों ने अपना लिया। भारत ने यह अवसर गंवा दिया, क्योंकि यह एक गंभीर डेबिट संकट से गुजर रहा था और हमारे पास प्रतिभाशाली कार्यबल को रोजगार देने का विजन नहीं था। ऐसे कई देश हैं, जिनके पास अत्याधुनिक तकनीक है, लेकिन वे आर्थिक समस्याओं या दबाव का सामना कर रहे हैं,  इसकी वजह से  रक्षा खर्च में कमी आ रही है।

जैसा कि ओएनजीसी विदेश के मामले में,  रक्षा कंपनियों के अधिग्रहण के लिए  एक विशेष प्रयोजन बनाया जा सकता है या बड़ी विदेशी तकनीकी कंपनियों का अधिग्रहण करने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी से, मौजूदा कर्मचारियों के साथ, डीपीएसयू/ओएफबी की एक नई कंपनी बनाई जा सकती है। यह समय की मांग है  कि डीपीएसयू का मुकाबला किया  जाए। जिससे प्रतिस्पर्धा  खत्म हो जायेगी और यूनियनों के लिए यह जहर के समान होगा। उदाहरण के लिए राइफल फैक्ट्री ईशापुर निजी क्षेत्र के व्यापारियों और सरकारी समर्थन से छोटे  हथियार निर्माताओं को शामिल करने पर विचार किया जा सकता है जो बिक्री करने के लिए अक्सर तैयार रहते हैं।

एक प्रतिद्वंद्वी फर्म, चेकअग्नि अस्त्र कंपनी सेस्क ज़्बर्टक ग्रुप (सीज़ैडजी) द्वारा 19वीं शताब्दी की शुरुआत से आग्नेयास्त्रों का निर्माण करने वाले दिग्गज कल्ट को $220 मिलियन में खरीदने के मामले का अध्ययन हमारे नौकर शाहों की नजरों से बच गया, भले ही हमारा अपना खरीद आदेश इससे बड़ा था।  इसके लिए  निम्नलिखित आवश्यक हैं:-

  1. भारतीय सशस्त्र बलों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों की पहचान
  2. जो विदेशी कंपनियां शेयरों को बेच रही हैं/बिक्री के लिए रखी जा रही हैं उनमें इक्विटी हिस्सेदारी की खरीद।
  3. ओएफ के निजी क्षेत्र/नई संस्थाओं के साथ ऐसी सार्वजनिक-निजी भागीदारी स्थापित करना, जहां वे विदेशी रक्षा फर्म में पर्याप्त हिस्सेदारी खरीदते हैं। ये दांव वित्तीय लाभ के लिए निवेश के रूप में नहीं होंगे, बल्कि भारत में इस प्रौद्योगिकी तक पहुंच के लिए होंगे जैसे कि टाटा ने जेएलआर अधिग्रहण में किया था।

भारतीयों के विकास और प्रशिक्षण के अवसरों की पहचान करना

ब्रह्मोस के इस्तेमाल में सफलता के बावजूद भारतीय प्रतिष्ठान ऐसे और खाकों को तैयार करने में विफल रहा है। भारत ने एडमिरल गोर्शकोव के विकास और मरम्मत कार्यो को इस्तेमाल करने का मौका खो दिया और रूस पर निर्भर रहा जिसने अपनी कीमत में कई बार बढ़ोतरी की। इसके बजाय, हम यूके की बंद कैरियर परियोजनाओं में से एक को अपना  सकते थे और हमारी नौसेना के डिजाइन और डब्ल्यूईएसईई के तकनीकी कर्मचारी उनका इस्तेमाल भारतीय जरूरतों के अनुसार सीखने के लिए कर सकते थे।

विदेशियों को ऑर्डर देने के विकल्प का मतलब सहयोग करना या अनुबंध में हार था। भारतीय व्यवस्था रक्षा जगत में सबसे बड़ा सूचना तंत्र हैं, इससे अतीत में वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर जैसी बड़ी यूरोपीय कंपनियों को राहत मिली थी और साथ ही यह रूस के कई शहरों के लिए जीविका का स्रोत भी रहा है। हमें अपनी स्थिति का लाभ उठाना होगा। यह भारतीय जनशक्ति के प्रशिक्षण का अवसर भी हो सकता है। यहां तक ​​कि भारत ने अपने तकनीकी कर्मचारियों/इंजीनियरों/वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करने के लिए विदेशों में  मरम्मत/निर्माण की भारतीय व्यवस्था का इस्तेमाल नहीं किया है। भारत सशस्त्र बलों के  केवल उन कर्मियों को भेजता है जिहोंने भविष्य में इसका उपयोग करना है। यह खरीदे जाने वाले उपकरणों के उपयोग और रखरखाव के बारे में उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए है। वैज्ञानिकों/इंजीनियरों/तकनीशियनों के एक पूल को भेजना, भारतीय जरूरतों की निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा बनने से अधिक लाभदायक हो सकता है।

कारखानों की भूमि का मुद्रीकरण:

प्रशिक्षण संस्थानों, महानगरों और उसके आस-पास के क्षेत्रों, कार्यालयों में लगभग 60,000 एकड़ भूमि पर कारखाने स्थित हैं। रक्षा जरूरतों के लिए पैसा मुहैय्या कराने के लिए छावनी की जमीन की बिक्री पर नजर रखने के प्रस्ताव की बजाय, यह भूमि इसी उद्देश्य के लिए उपयोगी  है। हालांकि, यह एक संवेदनशील मुद्दा है। वीएसएनएल के अपनी भूमि संपत्ति का विनिवेश करने और कोवलम में अशोका होटल की बिक्री को देखते हुए, जहां भूमि मूल्य खरीद मूल्य से अधिक हो गया था, उचित सावधानी और ज्यादा मेहनत की आवश्यकता है।

सशस्त्र बलों की सहायता और इसकी जरूरतों का पूर्व अनुमान

रक्षा उद्योगों के स्वदेशीकरण में एक बड़ी कमी यह है कि इनकी आवश्यकताओं का कोई रोडमैप नहीं है। उद्योग सशस्त्र बलों की जरूरतों की पहचान कर पाने और भविष्यवाणी करने में असमर्थ है और ये ऐसी वस्तु के अनुसंधान और विकास में निवेश करते है, जो कभी खरीदी ही नहीं जायेगी। अगले 15-20 वर्षो की जरूरतों का पूर्व अनुमान, सशस्त्र बलों की आशंकाओं और उपकरणों की उनकी आवश्यकता के आधार पर लगाया जाना चाहिए।  वर्तमान में भारतीय सशस्त्र बल अपनी जरूरतों का पूर्वानुमान लगाने में असमर्थ हैं। वे अंत में ऐसे जटिल मांग करते हैं जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। जब तक रक्षा सेवाएं इसके  प्लेटफार्मों और हथियारों की जरूरतों की पहचान करने में सक्षम नहीं होगी, तब तक रक्षा मंत्रालय के साथ-साथ भारतीय रक्षा उद्योग भी इन जरूरतों को पूरा  नही कर पायेगा।

रक्षा उत्पादन विभाग की भूमिका में सुधार

रक्षा मंत्रालय के विभाग जैसे अधिग्रहण विंग, मुख्यालय आईडीएस,  डीडीपी, रक्षा मंत्रालय (वित्त)  विशेष तरीके से काम करते है, जिससे जल्दी निर्णय लेने में रुकावट आती है। वर्तमान में डीआरडीओ द्वारा उपयोगकर्ता यानी सशस्त्र बलों के परामर्श के बिना रक्षा अनुसंधान किया जाता है क्योंकि वे सीधे आरएम के तहत एक अलग विभाग के रूप में कार्य कर रहे हैं। रक्षा उपकरणों का उत्पादन फिर से एक अलग विभाग – डीडीपी के अधीन है। खरीद और सभी तरह के वित्तीय अनुमोदन और बजटिंग का काम रक्षा मंत्रालय (वित्त)  करता है और  इसके अधिग्रहण की अंतिम प्रक्रिया अधिग्रहण विंग द्वारा पूरी की जाती है। यद्यपि  तकनीकी रूप से ये सभी एक ही मंत्री को रिपोर्ट करते हैं, लेकिन  इसकी प्रक्रियाओं में अधिक समय लगता है।

ये सभी विभाग स्वतंत्र हैं और सशस्त्र बलों की जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य के सिवा ये एक-दूसरे से अलग सत्ता रखते हैं।

पूरी तरह से आत्म निर्भर होने के लिए उठाये जाने वाले कदमों में एक कदम रक्षा उत्पादन विभाग का पुनर्गठन करना भी है, इसमें वर्तमान रक्षा संबंधी सार्वजनिक उपक्रम और  पुराने आयुध कारखानों को एक साथ जोड कर भारतीय रक्षा उद्योग विभाग के रूप में पुनर्गठित किया जाए। जिसमें निजी क्षेत्र के सभी व्यापारी  भारतीय रक्षा उद्योग में  अपनी सेवाएं दे सकेंगे। यह संयुक्त संगठन स्वदेशीकरण, सहयोग, लाइसेंसिंग और कानूनों की पहचान करने और जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होगा। साथ ही प्रौद्योगिकी हस्तांतरण व्यवस्था, सहयोगी परियोजनाओं, ऑफसेट कार्यक्रमों की निगरानी सहित सभी प्रकार की रक्षा जरूरतें एक ही  जगह पर पूरी हो सकेंगी। इससे कराधान, उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क में खामियों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी, जिससे डीपीएसयू/ओएफबी के साथ-साथ विदेशी फर्मों के  साथ  भी पक्षपात नहीं होगा ।

आत्म निर्भरता को वास्तविक रूप देने के लिए, रक्षा मंत्रालय को यह अध्ययन करना चाहिए कि कैसे दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका और यहां तक ​​​​कि सिंगापुर जैसे छोटे देश के पास दुनिया के दिग्गजों से मुकाबला करने वाला शक्तिशाली रक्षा उद्योग है। रक्षा प्रौद्योगिकियों में आत्मनिर्भरता से राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आगे का रास्ता और समयबद्ध लक्ष्य तय करना होगा। जिसके लिए एक ब्लूप्रिंट बनाये जाने की जरूरत है।

डीपीएसयू और आयुध निर्माताओं ने देश के लिए अच्छा काम किया।हालांकि, आंतरिक  रुकावटें बहुत ज्यादा थी, जो शायद राज्य स्तरों पर होती ही हैं । यह प्रमाणिक है कि  सरकार द्वारा सभी संबंधित विभागों में, सभी स्तरों पर किये गए हर सक्रिय प्रयास के बावजूद, महत्वपूर्ण निर्णय तेजी से नहीं  लिए जाते। ओएफ का निगमीकरण लंबे समय से चली आ रही मांग थी, हालांकि इसकी सफलता इसका उपयोग करने वालों के साथ साथ,  स्वदेशी संस्थाओं को सशस्त्र बलों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बनाने की क्षमता पर भी निर्भर करती है। हम आशा करते हैं कि यह प्रयास ‘आखिरी बड़ी समस्या’, से छुटकारा दिलाये और आत्म- निर्भर भारत में रक्षा संबंधी आत्मनिर्भरता के युग की शुरुआत हो।

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लेखक
कर्नल (डॉ.) डीपीके पिल्ले, शौर्य चक्र, एक सुशोभित युद्ध में घायल पूर्व सैनिक हैं। उन्हें रक्षा सचिवालय मंत्रालय और 
राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय दोनों में सेवा देने का गौरव प्राप्त है। एमपी आईडीएसए में लौटने से पहले उन्होंने 
मध्य पूर्व में एक सैन्य सलाहकार के रूप में आईसीआरसी के साथ काम किया, जहां वे एक रिसर्च फेलो हैं।

अस्वीकरण

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