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अफगानिस्तान की आज की स्थिति के लिए केवल और केवल वहां की सरकार और सेना ही जिम्मेवार है

कर्नल शिवदान सिंह
गुरु, 19 अगस्त 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

अफगानिस्तान की आज की स्थिति के लिए केवल और केवल वहां की सरकार और सेना ही जिम्मेवार है

 कर्नल शिवदान सिंह

 अप्रैल 2021 में जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान से बुलाने की घोषणा की है तब से विश्व में सब कह रहे हैं कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को बेसहारा छोड़ दिया है। यह कथन तब तो ठीक होता यदि  अमेरिका 2001 में तालिबान  को हराकर उसी समय अफगानिस्तान छोड़कर चला जाता तो कहा जा सकता था कि अफगानिस्तान की सेना  इतनी जल्दी संगठित नहीं हो सकती और अफगानिस्तान को इस समय छोड़ना उचित नहीं होगा। परंतु पूरे 20 साल के बाद भी बेसहारा वाला कथन सत्य नहीं है।  इन 20 सालों में एक स्वतंत्र  और गणतंत्र देश  को  राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक रूप से स्वयं को अपनी सुरक्षा के लिए मजबूत बना लेना चाहिए था, परंतु अफगानिस्तान में ऐसा कुछ नहीं हुआ।  बल्कि अफगानिस्तान को विदेशी सुरक्षा की एक प्रकार से आदत ही पड़ गई।  1978  से   1989 तक रूसी सेनाओं ने तथा 2001 से  2021 तकअमेरिकी सेनाओं ने इस देश की सुरक्षा की।  इस प्रकार पूरे 43 साल तक अफगानिस्तान की सुरक्षा विदेशी सेनाएं करती रही और स्वयं देश की सेना का इसमें कोई  योगदान नजर नहीं आया जबकि होना तो यह चाहिए था की अफगानिस्तान  की सरकार और उसकी सेना को अपने आप को पुनर्निर्माण करके आधुनिकतम स्थिति में लाना चाहिए था।  क्योंकि उसको इस दौरान विश्व के सबसे प्रगतिशील देश अमेरिका का पूर्ण सहयोग और सहायता उपलब्ध थी। परंतु ऐसा हुआ नहीं।

 अफगानिस्तान में चारों तरफ मुस्लिम कट्टरपंथ और सत्ता में बैठे हुए नेताओं ने  सामंती प्रवृत्ति के द्वारा केवल अपने ही हित को  पूरा किया।  इसी कारण अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अब्दुल गनी के बारे में कहा जा रहा है कि अपने साथ वह बहुत सारा धन लेकर भागे हैं, और अब इस धन के द्वारा वे अमन में अपनी जिंदगी आराम से बिताएंगे। जबकि उन्हें स्वयं अफगानिस्तान में रुक कर तालिबान ओं का आखिरी क्षण तक मुकाबला करना चाहिए था  परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया जिसके कारण देश की जनता में असुरक्षा की भावना फैल गई और वह सब देश छोड़कर भागना चाह रहे हैं । आज पूरे विश्व के लिए बांग्लादेश एक उदाहरण बन गया है।  लंबे दमन के बाद भारत की सहायता से बांग्लादेश 1971 में आजाद हुआ और इसके फौरन बाद भारतीय सेना केवल 2 महीने में वहां से भारत में वापस आ गई।  परंतु फिर भी बांग्लादेश की सरकार और वहां की सेना ने अपने आप को इतना मजबूत बनाया कि आज बांग्लादेश विश्व की एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था और पूर्णतया सुरक्षित देश हैजबकि ऐसा अफगानिस्तान में नहीं हुआ जिसके कारण आज अफगानिस्तान इस स्थिति में है ।  

 अफगानिस्तान की स्थिति को तीन प्रकार से देखा जाना चाहिए । पहला विश्व की महाशक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्धा ।  दूसरा अफगानिस्तान सरकार की व्यवस्था और भ्रष्टाचार तथा सेना की विफलता, और तीसरा अफगानिस्तान की स्थिति का दक्षिण एशिया और विश्व में प्रभाव ।   द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में चारों तरफ शांति की कल्पना की जाने लगी ।  परंतु इसके बाद विश्व की दो उभरती महा शक्तियों में प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। इस प्रकार विश्व के ज्यादातर देश दो वर्गों में विभाजित हो गए, जिनमें यूरोप के और मध्य एशिया के कुछ देश अमेरिका के साथ और पूर्वी ध्रुव सोवियत संघ के साथ  था। इसको शीत युद्ध का नाम भी दिया गया। अमेरिका ने अपने गठबंधन को मजबूत करने के लिए उत्तरी अटलांटिक सहयोग नीति बनाई जिसको नाटो के नाम से जाना जाता है, और रूस ने 1955 में वारसा समझौता  पर अपने सहयोगी देशों के साथ  हस्ताक्षर किए। जैसा कि  विदित है सोवियत संघ  कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थक था। इसी का प्रचार प्रसार वह अपने देशों में करता था। उसी प्रकार अमेरिका अपनी नीतियों का प्रचार अपने देशों में करता था। इन दोनों शक्तियों के विचारों की भिन्नता के कारण विश्व में जगहजगह युद्ध  जैसे वियतनाम, कोरिया विभाजन इत्यादि के लिए युद्ध हुए।

इसी के चलते सोवियत संघ के पड़ोस में जब अफगानिस्तान में 1978 में सोवियत संघ समर्थित कम्युनिस्ट सरकार को वहां से हटा दिया गया तब इसको  दोबारा पुनर्स्थापित करने के लिए सोवियत संघ ने अपनी  सेना  वहां पर भेजी जिसने विरोधियों को हराकर अपनी सरकार वहां पर स्थापित की। इसको देखते हुए अमेरिका ने अपनी प्रतिद्वंद्विता के कारण सोवियत संघ के इस कदम  का विरोध करने के लिए अपने नाटो साथियों के साथ रूसी सेना  को अफगानिस्तान से भगाने के लिए पाकिस्तान से गठबंधन किया। इसके अनुसार पाकिस्तान अपने मदरसों से और देश के बेरोजगार नौजवानों को मुस्लिम कट्टरपंथी विचारधारा में तैयार करके अमेरिका को  देता, जिनको  अमेरिका आतंकवाद में प्रशिक्षित  करके  उन्हें अफगानिस्तान में भेजता। इसके बदले में अपनी गलत नीतियों के कारण आर्थिक कठिनाइयों में  आए  पाकिस्तान को अमेरिका और सऊदी अरेबिया काफी मात्रा में धन उपलब्ध कराएं। रूसी सेना अफगानिस्तान में केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित थी। वहीं पर पाकिस्तान से भेजे गए आतंकी तालिबान वहां के देहाती क्षेत्रों में अपनी  पकड़ बनाते चले गए। आखिर में इनके हमलों से तंग आकर रूसी सेना को 1989 में अफगानिस्तान को छोड़ना पड़ा। इसके बाद 90 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान  का शासन चला जिसमें उन्होंने तरहतरह के अत्याचार वहां पर किए जिनके बारे में पूरा विश्व जानता है। इनके समय में अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन यहां पर तैयार हुए  जिन्होंने 2001 में अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र पर हमला किया जिसके फलस्वरूप अमेरिकी सेनाओं ने दोबारा अफगानिस्तान में प्रवेश करके वहां पर चुनी हुई सरकार को स्थापित किया।

आंकड़ों से पता चल रहा है की 3 लाख संख्या वाली अफगानी सेना के साथ टैंक, तोपे और आधुनिक हथियारों  के साथ साथ हवाई सेना भी थी, जिसके द्वारा यह सेना किसी भी आतंकी संगठन का एक मच्छर की तरह सफाया कर सकती थी। परंतु ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि अफगानिस्तान की सेना में 2001 के बाद जो भी सैनिक भर्ती हुए थे वे ज्यादातर तालिबानी ही थे, क्योंकि तालिबान ने अपनी सीधे टक्कर लेने की नीति के बदले में यह नीति अपनाई कि वे अपने लोगों को अफगानी सेना में प्रवेश कराकर सही समय पर इस सेना को अपने सामने  समर्पण के लिए कहेंगे, और ऐसा ही हुआ। जैसे ही अप्रैल में अमेरिकी सेनाओं ने  वापस जाने की घोषणा की उसी समय तालिबान  नेताओं ने अफगानी सेना में अपने  कार्डर को आदेश दिया कि वह तालिबान  के  विरुद्ध चलने वाले सैनिक अभियानों में उदासीन रहे, और अपने साथियों को तालिबान  के  सामने समर्पण के लिए प्रोत्साहित करें। और हुआ भी यही जबकि अपने ही देश में अफगानी सेना को तालिबान के छुपने की जगह और ठिकानों  का पता लगाकर इसको क्रमबद्ध तरीके से समाप्त करना चाहिए था। परंतु ना वहां की सेना और ना ही सरकार ने  इस पर कोई ध्यान दिया। इस प्रकार अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में किसी भी संस्था ने जिम्मेवारी से नहीं सोचा और जिसका परिणाम है की मध्यकाल की तरह अफगानिस्तान में जो भी ताकतवर है वही सस्ता पर कब्जा कर रहा है। 2001 से 2020 के बीच में अफगानिस्तान को विश्व के ज्यादातर देशों ने खुलकर आर्थिक सहायता दी जिस का दुरुपयोग वहां के सत्ताधारी नेताओं और प्रभावशाली  लोगों ने भ्रष्टाचार के लिए किया जबकि इस  धन के द्वारा अफगानिस्तान का विकास होना चाहिए था। ऐसा  नहीं होने के कारण अफगानिस्तान में चारों तरफ गरीबी और बेरोजगारी उसी प्रकार बनी  जिसके कारण तालिबान जैसे आतंकी संगठन फलते फूलते रहे।

 इस समय यह साफ हो चुका है कि अफगानिस्तान में तालिबान का शासन दोबारा आ गया है। इसलिए विश्व को  इनके प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। 2001 में अमेरिका विश्व व्यापार केंद्र पर इन्हीं के शासनकाल में इतना बड़ा हमला पूरी तैयारी के साथ हुआ था। इसी प्रकार इस क्षेत्र में तैयार किए हुए आतंकी यूरोप और दक्षिण एशिया में चारों तरफ फैल गए थे जिन्होंने इन देशों में तरह तरह की आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया।  फ्रांस में  सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाए हैं क्योंकि इन कट्टरपंथियों को ज्यादातर प्रशिक्षण और विचारधारा तालिबान जैसे संगठनों से ही मिल रही थी। आज इसी तरह की गतिविधियों को बढ़ावा देने के कारण पाकिस्तान दिवालियापन की स्थिति में पहुंच गया है। क्योंकि पाकिस्तान ने तालिबान जैसे आतंकियों को एक औद्योगिक रूप से तैयार करना शुरू कर दिया था जिन्होंने विश्व के और देशों में तबाही मचाने के साथसाथ स्वयं पाकिस्तान को भी बर्बाद किया था।

इसी को देखते हुए आज पूरा विश्व इसी विचार में डूबा हुआ है कि अफगानिस्तान के यह तालिबान  किस प्रकार फिर से विश्व को अशांत करेंगे और खासकर दक्षिण एशिया के पड़ोसी देश जैसे भारत, ताजिकिस्तान,  उज़्बेकिस्तान,  ईरान इत्यादि को और भी चौकन्ना रहने की आवश्यकता है। खासकर भारत में जहां पर मुस्लिम आबादी 22 करोड़ के करीब है वहां पर देश कि सुरक्षाबलों और इंटेलिजेंस एजेंसियों को इस प्रकार के आतंकी संगठनों पर ज्यादा  नजर रखने की आवश्यकता है। क्योंकि यह सांप्रदायिकता की आड़ में तरह तरह के आतंकी मंसूबों को पूरा करने के लिए अपनी विचारधारा का प्रचार करते हैं। जैसा कि कभीकभी हमारे देश में देखने में आता है।

 हमारा देश एक उभरती हुई शक्ति है इसलिए  इसे इस स्थिति से और ऊपर ले जाने के लिए देश के सब देशवासियों को केवल भारतीयता की भावना से अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में हर समय  समर्पित रहना चाहिए और हमारा देश इस विषय में विश्व के लिए एक उदाहरण पहले भी रहा है और आगे भी रहेगा।

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लेखक
कर्नल शिवदान सिंह (बीटेक एलएलबी) ने सेना की तकनीकी संचार शाखा कोर ऑफ सिग्नल मैं अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत्त हुए। 1986 में जब भारतीय सेना उत्तरी सिक्किम में पहली बार पहुंची तो इन्होंने इस 18000 फुट ऊंचाई के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र को संचार द्वारा देश के मुख्य भाग से जोड़ा। सेवानिवृत्ति के बाद इन्हें दिल्ली के उच्च न्यायालय ने समाज सेवा के लिए आनरेरी मजिस्ट्रेट क्लास वन के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद वह 2010 से एक स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में हिंदी प्रेस में सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में चाणक्य फोरम हिन्दी के संपादक हैं।

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POST COMMENTS (1)

Krishna kumar Pal

अगस्त 19, 2021
nice post

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