मेलबर्न, नवम्बर 19 (द कन्वरसेशन) : जलवायु परिवर्तन पर आमतौर पर इस तरह चर्चा की जाती है जैसे कि यह एक विशिष्ट वायुमंडलीय घटना है। लेकिन यह संकट समुद्र के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है, और अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में इसे बड़े पैमाने पर उपेक्षित किया गया है।
नवीनतम अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं ने, पहली बार, महासागरों को स्थायी रूप से बहुपक्षीय जलवायु परिवर्तन व्यवस्था में शामिल करके कुछ प्रगति की है। लेकिन ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट एक ऐसा दस्तावेज है, जहां से इसे हमारी जलवायु प्रणाली के लिए महासागरों के महत्व को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित करने की आवश्यकता है।
अधिकांश देशों के पास भूमि आधारित उत्सर्जन के लक्ष्य हैं – लेकिन महासागरों के लिए ऐसे कोई लक्ष्य नहीं हैं। फिर भी महासागर उन स्थितियों को संतुलित करने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो मनुष्यों और अधिकांश अन्य प्रजातियों के जीवित रहने के लिए जरूरी होती हैं, वह इस शताब्दी में वैश्विक ताप की वृद्धि को 1.5 डिग्री की महत्वपूर्ण सीमा पर रोकने के लिए समाधान का एक बड़ा हिस्सा भी पेश करते हैं?
तो महासागर जलवायु संकट से निपटने में हमारी मदद कैसे कर सकते हैं? और अंतरराष्ट्रीय वार्ता में क्या प्रगति हुई है?
महासागर की अविश्वसनीय क्षमता
औद्योगीकरण के बाद से, महासागर ने मानव-जनित गर्मी का 93% और मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का एक तिहाई भाग अवशोषित कर लिया है। इसके परिणाम गहरे हैं, जिनमें पानी का थर्मल विस्तार (समुद्र के स्तर में वृद्धि का प्रमुख कारण), समुद्र का अम्लीकरण, डीऑक्सीजनेशन (ऑक्सीजन की हानि), और समुद्री जीवन को अन्य स्थानों पर जाने के लिए मजबूर करना शामिल है।
अगर यह सब जारी रहा तो चिंताजनक रूप से, ऐसा भी दिन आ सकता है, जब समुद्र कार्बन को सोखने की अपनी भूमिका उलट सकता है और सीओ2 को वायुमंडल में वापस छोड़ सकता है, क्योंकि इसकी अवशोषण क्षमता कम होती जाती है।
महासागर-आधारित जलवायु शमन भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जो 1.5 डिग्री के लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक उत्सर्जन में कमी का 20% से अधिक प्रदान कर सकता है?
महत्वपूर्ण रूप से, हमें समुद्री उद्योगों में परिवर्तन करना होगा। अकेले शिपिंग उद्योग का उत्सर्जन जर्मनी के कार्बन फुटप्रिंट के बराबर है – यदि शिपिंग एक देश होता तो यह दुनिया का छठा सबसे बड़ा उत्सर्जक होता। इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन के एजेंडे में उच्च स्थान पर होते हुए भी शिपिंग के डीकार्बोनाइजेशन में अभी भी पर्याप्त लक्ष्यों या प्रक्रियाओं का अभाव है।
महासागर जलवायु-सुरक्षित, टिकाऊ भोजन विकल्प भी प्रदान कर सकते हैं। वर्तमान में खाद्य प्रणालियाँ, जैसे उत्सर्जन-आधारित कृषि, मछली पकड़ने और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ वैश्विक उत्सर्जन के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार हैं। हमारे आहार को स्थायी ‘‘ब्लू फूड्स’’ जैसे‘‘जल आधारित खाद्य पदार्थों’’ में स्थानांतरित करके काफी पर्यावरणीय (और स्वास्थ्य) लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।
इनमें स्थायी प्रबंधन प्रथाओं के साथ मत्स्य पालन से प्राप्त समुद्री भोजन शामिल हैं, जैसे कि अधिक मछली पकड़ने से बचना और कार्बन उत्सर्जन को कम करना। समुद्री घास जैसे जलीय पौधों के बड़े पैमाने पर उत्पादन और खपत के लिए बाजारों और प्रौद्योगिकियों को भी तैयार किया जाना चाहिए।
‘‘ब्लू कार्बन’’ में भी अवसरों का खजाना है – मैंग्रोव, समुद्री घास और खार जैसे समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित और पुनर्स्थापित करके वातावरण में व्याप्त सीओ 2 को कैप्चर करना। हालांकि, प्रकृति आधारित समाधानों की सफलता एक स्वस्थ महासागर पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, प्लवक की सीओ2 को अवशोषित करने की क्षमता पर प्लास्टिक प्रदूषण के प्रभाव के कारण चिंताएं उभर रही हैं।
लेकिन शायद सबसे बड़ा असर अपतटीय अक्षय ऊर्जा को अपनाने से होगा। इसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आवश्यक उत्सर्जन कटौती का दसवां हिस्सा पेश करने की क्षमता है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने अनुमान लगाया है कि अपतटीय पवन अपनी वर्तमान खपत दर से दुनिया को 18 गुना अधिक बिजली दे सकती है।
जलवायु वार्ता की प्रगति धीमी
एक दशक से अधिक समय से, महासागरों को जलवायु वार्ता में शामिल करना छिटपुट और असंगत रहा है। जहां वे सीओपी26 सहित वार्ता का हिस्सा रहे हैं, वहां वार्ता ने समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसे जलवायु परिवर्तन प्रभावों के अनुकूल होने के लिए तटीय क्षेत्रों की क्षमता पर ध्यान केंद्रित किया है, जैसा कि पहली बार 1989 में छोटे द्वीप देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया गया था।
अंतिम सीओपरी26 समझौता, जिसे ग्लासगो जलवायु संधि के रूप में जाना जाता है, ने थोड़ी प्रगति की।
संधि ने महासागर पारिस्थितिकी तंत्र की अखंडता सुनिश्चित करने के महत्व को मान्यता दी। इसने महासागर आधारित कार्रवाई को मजबूत करने के लिए एक वार्षिक प्रक्रिया के रूप में ‘‘महासागर और जलवायु परिवर्तन वार्ता’’ की स्थापना की। और इसने यूएनएफसीसीसी निकायों को इस बात पर विचार करने के लिए आमंत्रित किया कि ‘‘मौजूदा जनादेश और कार्ययोजनाओं में महासागर-आधारित कार्रवाई को कैसे एकीकृत और मजबूत किया जाए’’।
हालांकि ये सकारात्मक उपाय हैं, इस स्तर पर उन्हें संबद्ध पक्षों द्वारा कार्रवाई की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, वे केवल एक सैद्धांतिक समावेश हैं, न कि क्रिया-उन्मुख।
हमारे पास अभी भी राष्ट्रीय लक्ष्यों और देशों के लिए स्पष्ट, अनिवार्य और अन्तरराष्ट्रीय जरूरतों के अनुरूप दिशानिर्देशों की कमी है ताकि वह अपनी जलवायु योजना और रिपोर्टिंग में तालमेल, स्रोतों और गतिविधियों पर विचार कर सकें।
जहां सीओपी26 ने प्रगति की थी, उसका ध्यान इस बात पर था कि क्या समुद्र के प्रभाव और शमन को अंततः मुख्यधारा के जलवायु एजेंडे में लाया जाएगा। पांच वर्षों में पहली बार, एक नयी घोषणा जारी की गई थी, जो यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते की प्रक्रिया में महासागरों को व्यवस्थित रूप से शामिल करने का आह्वान करती है।
अब हम क्या करें?
अब जो आवश्यक है वह अनिवार्य आवश्यकताओं की एक सूची है जो सुनिश्चित करती है कि देश अपने समुद्री क्षेत्रों के भीतर जलवायु प्रभावों को रिपोर्ट करें और जिम्मेदारी लें।
लेकिन जैसा कि सीओपी26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा ने समग्र रूप से शिखर सम्मेलन के बारे में कहा, यह एक ‘‘नाजुक जीत’’ थी। हमारे पास अभी भी मौजूदा तंत्रों के साथ निरंतरता का कोई संदर्भ नहीं है, जैसे कि समुद्री सम्मेलन का कानून या विशेष रूप से महासागरों को धन कैसे आवंटित किया जाएगा।
जैसे, जलवायु कार्रवाई में महासागरों को शामिल करने पर सीओपी26 का वास्तविक प्रभाव अनिश्चित बना हुआ है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यूएनएफसीसीसी निकाय इन निर्देशों का कैसे जवाब देते हैं, और उनकी सफलता देशों को उनके दायित्वों के विस्तार पर निर्भर करेगी।
जलवायु संकट को अगर हल करना है तो हमें समुद्र और वातावरण को अलग अलग मानना बंद करना होगा। हमें समुद्री कार्रवाई को जलवायु कार्रवाई के नियमित भाग के रूप में शामिल करना होगा।
(डॉ साली बाचे, क्लाइमेटवर्क्स ऑस्ट्रेलिया)
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