पिछला हफ्ता ऑपरेशन गुलमर्ग की 75वीं वर्षगांठ के रूप में चिन्हित किया गया, जब पाकिस्तान ने आजादी के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया था। 22 अक्टूबर 1947 को, 6,000 से अधिक पाकिस्तानी हमलावरों ने, पाक सेना के साथ, नीलम नदी को पार किया और जम्मू-कश्मीर पर हमला किया। इनकी योजना थी कि हमलावरों की इस बढ़त से पाक सेना फायदा उठाये। कश्मीर, जो उस समय तक, सभी धर्मों के लोगों के आपस में सद्भाव से रहते हुए स्वर्ग के समान था, उसे एक वास्तविक नरक में बदल दिया गया। इससे सबसे पहले पीड़ित होने वाला शहर मुजफ्फराबाद था। उसके बाद बारामूला का नंबर आया।
राज्य बलों द्वारा प्रारंभिक हमलों का सामना किया गया, जिसमें दोनों ओर की कई टुकड़ियों ने अंतिम आदमी से अंतिम दौर तक लड़ाई की थी। राज्य बलों के चीफ ऑफ स्टाफ ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह को मरणोपरांत, स्वतंत्र भारत के पहले एमवीसी से सम्मानित किया गया। हमलावरों ने लूटपाट की, बलात्कार किये, अपहरण किये और सभी धर्मों के स्थानीय निवासियों को जान से मार दिया गया, हालांकि मारे जाने वाले लोगों में गैर-स्थानीय की संख्या ज्यादा थी। उन्होंने दावा किया कि वो मुक्तिदाता हैं, लेकिन वास्तव में वे बलात्कारी और हत्यारे थे।
75 साल बीत गए, लेकिन पाकिस्तान का रवैया वही रहा। छल, झूठ, बेगुनाहों को निशाना बनाने और राज्य की आतंकवादी नीति के रूप में शोषण करने के लिए वे एक ही है। एक राष्ट्र जिसने समय के साथ प्रगति नहीं की और जो अपने वैश्विक दृष्टिकोण को बदल नहीं सका, वह केवल नीचे की ओर ही जा सकता है और वह देश पाकिस्तान है।
1947 में, इसने यह अफवाहें फैलायी कि कश्मीर में मुसलमानों को बेरहमी से मारा जा रहा था और उन्हें छुड़ाना होगा। यह अफवाह फैला कर उन्होंने पश्चिमी कबायली इलाकों से हमलावर तैयार किये, जबकि यह क्षेत्र शांतिपूर्ण था, जिसमें हिंसा की कोई घटना नहीं हुई थी। यह फर्जी घटनाओं के बहाने से अपने ही देश के बेगुनाहों का ब्रेनवॉश करता था और कश्मीर में घुसाने के लिए उन्हें आतंकवादी बना देता था। जिंदा पकड़े गए हर आतंकवादी की पाकिस्तान के झूठ और छल की यही कहानी है, जबकि जमीनी हकीकत बहुत अलग है।
पाकिस्तान के ब्रेनवॉश किए गए आतंकवादियों और उसकी सेना की क्रूरता में 1947 के बाद से कोई बदलाव नहीं आया। मोहम्मद सईद असद ने अपनी पुस्तक ‘यादों के ज़ख्म’ में मुजफ्फराबाद और उसके आस-पास के क्षेत्र में हुए आक्रमण के चश्मदीद गवाहों का वर्णन किया है। ये हृदयविदारक हैं। हमलावरों ने बेरहमी से हत्याएँ की, लूटपाट की और बलात्कार किया। माता-पिता ने अपनी बेटियों को पाकिस्तानी हमलावरों के हाथों बुरी मौत से बचाने के लिए उन्हें खुद ही मार डाला या जहर दे दिया। युद्ध के अंत तक 35,000 से अधिक कश्मीरी उन पाक हमलावरों के हाथों अपनी जान गंवा बैठे, जिन्हें उनकी सेना का समर्थन प्राप्त था।
पाक सेना ने वर्ष 1971 तक तेजी से आगे बढ़ते हुए बांग्लादेश में 3 मिलियन से अधिक लोगों की हत्या की और वह 200,000 से 400,000 महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारों की जिम्मेदार थी। बांग्लादेश ने प्रत्येक वर्ष 25 मार्च को विश्व नरसंहार दिवस घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र का रुख किया है। अब समय आ गया है कि वैश्विक समुदाय बांग्लादेश के साथ खड़ा हो। नब्बे के दशक की शुरुआत में पाक आतंकवादियों ने कश्मीर में ऐसा ही किया, निर्दोष कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया, हज़ारों की हत्या की, जिसके परिणामस्वरूप पलायन हुआ।
फिलहाल बलूचिस्तान और वजीरिस्तान में बलूच और पश्तूनों के खिलाफ ऐसा ही हो रहा है। क्या दुनिया खामोश बैठी रहेगी और पाकिस्तान के अदृश्य शासन अथवा उसकी सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन जारी रहेगा। पाकिस्तान ने 1947 में कश्मीर में और 1971 में बांग्लादेश में जो किया उसके लिए उसने कभी माफी नहीं मांगी और अब उसके द्वारा अपने बलूच और पश्तून निवासियों से माफी मांगने की कोई संभावना नहीं है।
अपने आंतरिक कुकृत्यों को सही ठहराने के लिए पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने एक वैश्विक साक्षात्कार में कहा कि सभी पश्तून तालिबानी आतंकवादी हैं। इसी तर्ज़ पर पाकिस्तान के राजनयिकों ने भारत पर कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का झूठा आरोप लगाया और आतंकवादी कार्यों को सही ठहराने की कोशिश की। एक भी वैश्विक संस्था ने पाकिस्तान के फर्जी दावों और आरोपों का समर्थन नहीं किया। इसके तथाकथित डोजियर को केवल कूड़ेदान में ही जगह मिलती हैं। पाकिस्तान झूठ बोलने के लिए ही जाना जाता है।
पाकिस्तान ने 1947 में अपने सभी समझौते तोड़ दिए। उसने 12 अगस्त 1947 को कश्मीर के महाराजा के साथ और उससे कुछ दिन पहले 04 अगस्त को कलात के खान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसने मार्च 1948 में बलूचिस्तान पर आक्रमण करके कलात के खान और ऑपरेशन गुलमर्ग से कश्मीर के महाराजा के साथ हुआ समझौता तोड़ दिया। इसने समझौते तोड़ने के अपने सिद्धांत का पालन करना जारी रखा है। इसने 9/11 के बाद अमेरिका से वादा किया था कि वह आतंकवादी गुटों को आश्रय नहीं देगा और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध में भाग लेगा। जबकि, इसने ओसामा बिन लादेन को एक राजकीय अतिथि के रूप में रखा और अमेरिका तथा सहयोगी गठबंधन बलों को निशाना बनाने में तालिबान का खुले तौर पर समर्थन किया, जबकि दावा यह किया कि युद्ध से उसे भी नुकसान हुआ है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई स्वीकार नहीं करेगा।
यह पाकिस्तान ही था, जो 1948 में अपनी सेना को पीओके से पीछे हटाने से इनकार करके संयुक्त राष्ट्र के कश्मीर प्रस्ताव से अलग हो गया, जिससे यूएनएससी प्रस्ताव का यह पहला कदम बेमानी हो गया। आज 75 वर्ष बाद वो उसी प्रस्ताव के तहत कश्मीर की समस्या हल करने की मांग कर रहा है, जिसे उसने खुद लागू करने से इनकार कर दिया था। क्या कोई ऐसे देश पर भरोसा कर सकता है, जो महत्वपूर्ण क्षणों में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का पालन करने से इनकार करता है और दशकों बाद दोबारा मांग करता है कि इसे लागू किया जाए। कोई आश्चर्य नहीं कि दुनिया कश्मीर पर पाकिस्तान के आह्वान की अनदेखी करती है।
पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित लगभग सारे आतंकवादी समूहों और उनके नेताओं का घर है। यह आतंकवाद के लिए वन-स्टाप-शॉप के समान है। पिछले चार वर्षों से एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में इसके बने रहना इस बात का प्रमाण है कि 1947 के बाद से आतंकवादी गुटों के लिए इस देश के समर्थन में कोई बदलाव नहीं आया है। इस देश ने 1947 में अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए आतंकवादियों को नियुक्त किया, हालाँकि उन्हें लश्कर या रेडर्स कहा गया और यह सब आज भी जारी है। अपनी राज्य नीति को आगे बढ़ाने के लिए आतंकवादियों को नियुक्त करने वाला एकमात्र देश पाकिस्तान है। इस संबंध में जब तक विश्व स्तर पर कार्रवाई नहीं की जाती, पाकिस्तान नहीं बदलेगा।
‘विभाजन के 70 साल : जब जनजातीय योद्धाओं ने कश्मीर पर आक्रमण किया,’ शीर्षक से अक्टूबर 2017 में प्रकाशित बीबीसी के एक लेख में पाकिस्तान की कार्रवाइयों को उपयुक्त रूप से अभिव्यक्त किया गया है। इसमें उल्लेख है, कि ‘पाकिस्तान ने यही रणनीति 1965 में दोहराई। 1988-2003 के कश्मीरी विद्रोह में, साथ ही 1999 के कारगिल युद्ध में भी इसी रणनीति को दोहराया। इसने अफगानिस्तान में गैर-राज्य नेताओं का इस्तेमाल किया। लेकिन कश्मीर को आजाद कराने या अफगानिस्तान के वश में होने के स्थान पर इससे इनकी राजनीतिक प्रक्रियाएं कमजोर हो गयी, और न केवल कश्मीर और अफगानिस्तान में, बल्कि इससे पाकिस्तान में समाज का सैन्यीकरण हो गया। पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा का कमजोर होना, शासन और इसके प्रांतों द्वारा स्वतंत्रता की बढ़ती मांग इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान ने अपने अधिकांश धन को विकास कार्यों की बजाय गैर-राज्य नेताओं का समर्थन करने में लगा दिया।
1947 में पाक ने हमलावरों को आगे रखते हुए, इनकी सफलता का फायदा उठाने के लिए अपनी सेना को इनके पीछे रखा। इसने 1965 में भी यही रणनीति दोहराई, जबकि 1999 में इसने अपनी सुन्नी बहुल सेना को सुरक्षित रखते हुए कारगिल में शिया बहुल नॉर्दर्न लाइट इन्फैंट्री को तैनात किया। अल्पसंख्यकों/आतंकवादियों/मिलिशिओं को इस गलत काम के लिए नियुक्त करते हुए पाकिस्तान ने अपनी सेना को ज्यादातर पृष्ठभूमि में ही रखा। हर बार जब भी इसकी सेना आगे (1971) रही, इसे हार का सामना करना पड़ा है।
पाकिस्तान, जो अपनी भू-रणनीति का फायदा उठा सकता था और एक क्षेत्रीय शक्ति बन सकता था, हर क्षेत्र में पिछड़ गया है। वर्तमान में इसे नजरअंदाज किया जा रहा है, एक अछूत के रूप में माना जाता है और यह भिक्षा और ऋण पर जीवित रहने के लिए मजबूर है। यह सब इसलिए है,क्योंकि 75 वर्षों के बाद भी यह अपने दृष्टिकोण को बदलने और स्वीकार्य और परिपक्व वैश्विक नीतियों को अपनाने में विफल रहा है।
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