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Geopolitics & National Security
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नित नई चीनी चुनौतियां भारत को कर रहीं सतर्क

डॉ सुरेंद्र कुमार मिश्र
शनि, 22 जनवरी 2022   |   6 मिनट में पढ़ें

एक ओर जहां चीन में जन्म दर लगातार पांचवें वर्ष घटी है, जिससे विश्व की सबसे अधिक आबादी वाले देश के ऊपर मंडराते जन सांख्यिकी खतरे और उसके चलते होने वाले आर्थिक संकट को लेकर वह एक बड़े संशय में है। वहीं दूसरी ओर चीन अपनी आर्थिक व सामरिक शक्ति बढ़ाने के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत के पारम्परिक मित्र राष्ट्रों में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिशें तेज कर चुका है। मध्य एशिया के देश कजाखस्तान में जारी हिंसा पर लगाम लगाने में जिस तरह से चीन ने आगे बढ़कर वहां सैन्य बल भेजने की बात की है, इससे भारत की चिन्ता बढ़ना स्वाभाविक है। अफगानिस्तान के बाद एक और देश में चीन की बढ़ती सक्रियता भारत के लिए अच्छा संकेत नहीं है। चीन द्वारा कजाखस्तान को अपना सामरिक साझेदार बताते हुए, वहां शान्ति स्थापित करने में सहयोग का आश्वासन भारत के लिए एक नई चुनौती है। चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने हाल ही में अफ्रीकी देशों, मालद्वीप और श्रीलंका की यात्रा की और ढांचागत सुविधाओं व सामाजिक विकास के लिए सक्रिय सहयोग देने का आश्वासन दिया। ड्रैगन इस समय विशेष रूप से हमारे पड़ोस और हिन्द महासागर में स्थित देशों में न केवल रुचि ले रहा है, बल्कि उनमें अपना दबदबा बढ़ाने के प्रयास में लगा हुआ है। बीजिंग की वास्तविक रणनीति भारत को चारों ओर से घेरने में निरन्तर लगी हुई है। चीन आर्थिक मदद के नाम से अपना मकड़जाल फैलाता जा रहा है।

उल्लेखनीय है कि सामरिक, आर्थिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से श्रीलंका चीन के लिए एक अहम देश है। भारत को घेरने की चीन की रणनीति ‘मोतियों की माला’ (स्ट्रिंग्स ऑफ पर्ल्स) में श्रीलंका एक प्रमुख मोती के रूप में आंका जाता है। इसके साथ ही श्रीलंका चीन की महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एण्ड रोड इनिशिएटिव’ व्यापक परियोजना का एक बड़ा पार्ट है। चीन की विस्तारवादी नीति व गतिविधियों के कारण एशिया भर में तनाव व्याप्त है। इस समय नित नई आर्थिक, कूटनीतिक, व्यापारिक, रणनीतिक तथा सामरिक शक्ति के बल और लुभावने आर्थिक लालच देकर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए चीन हर संभव प्रयास में लगा हुआ है। यह सर्वविदित है कि चीन एन-केन-प्रकारेण प्राकृतिक संसाधानों से सम्पन्न तथा सामरिक व भू-कूटियोजनात्मक दृष्टि से अति संवेदनशील महत्वपूर्ण देशों को उनके विकास के नाम पर आर्थिक सहयोग के रूप में सदैव अपने कर्ज जाल में फंसाता रहा है। कर्ज के मर्ज में फंस चुके देश जब कर्ज न चुका पाने की स्थिति में होते हैं, तो चीन उनके संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है। चीन की यह पोल अब धीरे-धीरे खुल रही है, जैसा कि युगाण्डा के हवाई अड्डे को अपने कब्जे में करने के लिए जुट गया है।

चीन जहां श्रीलंका के कोलम्बो शहर के हंबनटोटा बन्दरगाह के अधिग्रहण की एक जोरदार प्रतीक्षा कर रहा है, भारत ने वहां श्रीलंका की वित्तीय आवश्यकताओं के लिए बड़ी तत्परता से सकारात्मक प्रतिक्रिया देकर एक संवेदनशील पहल की है। भारत ने अपनी राजनयिक सूझ-बूझ का परिचय देते हुए चीन के दबदबे को कमजोर करने के लिए तथा आर्थिक तनाव से गुजर रहे श्रीलंका को 912 मिलियन डॉलर के ऋण के साथ-साथ दो क्रेडिट लाइनों के लिए एक और 1.5 बिलियन डॉलर की सहायता देकर त्रासदी से उबारने का सहयोगी प्रयास किया है। श्रीलंका के उच्चायुक्त मिलिण्डा मोरागोडा ने भारत द्वारा तैयार किये गये आर्थिक रोड मैप के सन्दर्भ में कहा, कि जिसने अपने द्वीप के पड़ोसी के बढ़ते कर्ज संकट को कम करने के लिए कई उपायों को देखा है, जो दो देशों के बीच विश्वास की कमी को दूर करने में मदद करेगा और देश में चीनी गतिविधियों पर परिधीय (पेरिफेरल) चिन्ताओं को भी प्रस्तुत करेगा। भारत हमारी नई अर्थव्यवस्था की कुंजी है। भारत हमें वर्तमान आर्थिक संकट से बाहर आने में मदद करेगा, यदि हम महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग को तेज कर सकते हैं। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में श्रीलंका के वित्तमंत्री तुलसी राजपक्षे से एक अभ्यासी बैठक की। श्रीलंका वर्तमान में गिरते भण्डार के साथ विदेशी मुद्रा की गंभीर कमी के संकट का एक बड़ा सामना कर रहा है।

भारत के साथ पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) में चल रहे सीमा विवाद और अरुणाचल प्रदेश में कायम अनवरत तनातनी के समय चीन का नया सीमा कानून भी घातक संकेत दे रहा है। इसके पीछे चीन की दूरगामी सोच सीमावर्ती क्षेत्रों में अपना नियंत्रण और अधिक मजबूत बनाकर सीमा से सटे देशों पर अपना निरन्तर दबाव, दबदबा, दबंगी और दादागीरी बनाये रखना है। चूंकि यह कानून चीन की सीमा सुरक्षा को सशक्त करने और सीमा क्षेत्र को आर्थिक, सामरिक, सामाजिक, सामयिक व कूटनीतिक विकास में सक्रिय भूमिका अदा करेगा। इसके पूर्व चीन ने अरुणाचल प्रदेश के 15 स्थानों का चीनी और तिब्बती भाषा में नामकरण किया तत्पश्चात अपने क्षेत्र की सैनिक गतिविधियों के संदर्भ एक वीडियो जारी किया, जिसमें गलवन घाटी के होने की बात कही। चीन की चतुराई कहें या कुटिलता कि तिब्बत को अपना अभिन्न अंग कहता है और अरुणाचल पर अपना दावा करता है। हद तो तब हो गयी जब कुछ दिन पहले ही नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने भारतीय सांसदों के तिब्बत से जुड़े एक कार्यक्रम में शामिल होने पर आपत्ति व्यक्त की। स्पष्ट होने लगा है कि चीन अब दादागीरी और दुष्प्रचार पर भी उतर आया है।

चीन-भारत से सटी सीमा पर नित नयी साजिश से बाज नहीं आ रहा है, एक ओर जहां दोनों देशों के बीच 14वें दौर की वार्ता चल रही थी वहां दूसरी ओर वास्तविक नियन्त्रण रेखा के पास चीन अपने भूमिगत भण्डार गृहों, सुरंगों (टनल) तथा पुलों का निर्माण कार्य जारी किये हुए है। चीन का चरित्र सदैव से ही रहस्यमयी रहा है, जब वह शान्ति वार्ता की बात करता है, तो उसकी सामरिक गतिविधियां तेज हो रही होती हैं, ताकि तुरन्त कोई आक्रामक कार्यवाही कर सके। जब आगे बढ़ना होगा तो पीछे हटने का नाटक करता है और पीछे हटे तो उसके आगे बढ़ने की रणनीति का सूचक है। चीन की सोच सदैव झूठ, छल-प्रपंच, मायाजाल तथा धोखे की नीति पर आधारित रहती है। चीन को अब उसी की भाषा में जवाब देने का समय आ गया है। वह केवल ‘क्वाड’, ‘ऑकस’ व ‘न्यू क्वाड’ से मानने वाला नहीं है। भारत को चीन की गतिविधियों की भांति तिब्बत, ताइवान और हांगकांग के मामले में पुरानी नीतियों पर एक नये सिरे से विचार करने की महती जरूरत है।

चीन की 2022 की कूटनीति का संकेत हिन्द महासागर क्षेत्र में नये सिरे से विकास को बढ़ावा देने के साथ दस्‍तक देकर कर दिया है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने स्पष्ट रूप से कहा कि चीन के पास हिन्द महासागर के देशों के लिए एक विकास मंच का खाका है, क्योंकि वे ‘‘समान अनुभव और सामान आवश्यकताओं’’ को साझा करते हैं। इसने उस आर्थिक सन्देश का प्रतिध्वनित किया कि कोमोरोस व मालदीप दोनों का ही विकास श्रीलंका की तरह आर्थिक सहयोग एवं विकास के आधार पर किया जायेगा। चीन ने लगभग 148 बिलियन डॉलर अफ्रीका के 32 देशों में निवेश किया हुआ है। केन्या, कोमोरोस तथा इरीट्रिया पर भारी निवेश किया है, चूंकि सामरिक दृष्टि से हिन्द महासागर पर नजर रखने के लिए और आर्थिक दृष्टि से इस क्षेत्र में संसाधनों का दोहन करने के लिए कर्ज के मकड़जाल में फंसा रहा है। आज केन्या की आर्थिक स्थिति यह है कि उसके विदेशी कर्ज का लगभग 21 प्रतिशत कर्ज चीन का है। प्रमुख ‘बेल्‍ट एण्ड रोड परियोजना’ केन्या की राजधानी नैरोबी से बन्दरगाह शहर मोम्बासा तक लगभग 290 मील की दूरी पर रेलवे है। इस नेटवर्क को दक्षिण सूडान, यूगांडा, रवांडा और बुरुंडी तक विस्तारित किया जा रहा है।

हिन्द महासागर में निरन्तर नजर रखने और अपनी मौजूदगी रखने के लिए जिबूती को बड़े पैमाने पर कर्ज देकर विकास के नाम पर चीन अपना एक बड़ा उपनिवेश स्थापित कर चुका है। चीन ने जिबूती को समुद्र में अपने संचार केबलों और जलयानों को हमलों और समुद्री डकैती से सुरक्षित रखने की आड़ में एक अति आधुनिक सैन्य अड्डा या सामरिक आधार स्थापित करने के लिए भी चुना है। इस समुद्री क्षेत्र में निगरानी के अपने एजेण्डा को आगे बढ़ाने तथा विदेशी तथा गहरे समुद्र में समुद्री यातायात का अपनी इच्छा के अनुसार निर्देशित तथा संचालित व ब्लॉक करने के समुद्री चोक पॉइंट का लाभ उठा सके।

अफ्रीका में चीन के निरन्तर बढ़ते नौसैनिक अड्डे हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की उनकी दीर्घकालिक रणनीतिक योजना का एक हिस्सा रहा है। अफ्रीका के अधिकांश देश चीन के एक बड़े कर्ज जाल में आर्थिक सहायता व विकास के नाम से फंस चुके हैं। ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (बी.आर.आई.) के भाग के रूप में जिबूती में अपने निवेश के साथ बीजिंग जिबूती के कर्ज का अधिकांश हिस्सा रखता है, जो अफ्रीका देश के सकल घरेलू उत्पाद का 70 प्रतिशत से अधिक है। अफ्रीकी देशों को श्रीलंका से सबक लेना चाहिए, जहां श्रीलंका को अन्ततः अपना प्रमुख हंबनटोटा बन्दरगाह 99 वर्षों के लिए चीन को पट्टे पर देने के लिए बाध्य होना पड़ा। चीन ने अफ्रीका पहुंच का विस्तार इसलिये किया, क्योंकि इरिट्रिया, गिनी-बिसाऊ प्रमुख क्षेत्रीय मंच से पहले बेल्ड और रोड में शामिल हो गये। इरिट्रिया डील के द्वारा ‘हॉर्न ऑफ अफ्रीका’ और लाल सागर में भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। चीन ने अदन की खाड़ी और लाल सागर के बीच बाब अल-मंडेब मार्ग के पास अपना पहला विदेशी सैन्य अड्डा भी बनाया है।

निःसन्देह चीन भारत के बढ़ते प्रभाव एवं प्रभुत्व से परेशान होकर न केवल दक्षिण एशियाई देशों में अपना आर्थिक एवं सामरिक मायाजाल फैला रहा है, बल्कि अफ्रीका के लगभग 32 देशों में कूटनीतिक शतरंजी चालें चल रहा है। चीन के कर्ज के मकड़जाल में फंसे देश क्या चीन के उपनिवेश बन जाएंगे या विद्रोही बनने के लिए मजबूर होकर स्वयं चीन की भस्मासुर की तरह सिर पर हाथ रखकर नृत्य करने को मजबूर कर देंगे। भारत, हिन्द महासागर एवं हिन्द प्रशान्त क्षेत्र में अपने विरुद्ध बड़ी शक्तियों के बनते नये सामरिक एवं आर्थिक गठजोड़ से परेशान चीन अब नित नये पैतरे या दांव पेच अपना रहा है। भारत के पड़ोसी देशों के साथ ही अफ्रीका में अपने उपनिवेश स्थापित करके चीन जहां अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है, वहां हमें शायद निरन्तर सजग, सतर्क, सशक्त एवं सक्षम बनने के लिए भी प्रेरित कर रहा है।

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लेखक
डॉ सुरेंद्र कुमार मिश्र डिफेंस स्टडीज में पीएचडी हैं और इनका हरियाणा के विभिन्न गवर्नमेंट कालेजों में शिक्षण का अनुभव रहा है। वह जय नारायण व्यास यूनिवर्सिटी जोधपुर के विजिटिंग फेलो हैं। ‘रक्षा अनुसंधान’ और ‘टनर’ नामक डिफेंस स्टउीज रिसर्च जरनल से जुड़े हैं। 15 सालों का किताबों के संपादन का अनुभव है और करीब 35 सालों से देश के विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लिख रहे हैं। डिफेंस मॉनिटर पत्रिका नई दिल्ली के संपादकीय सलाहकार हैं। उन्हें देश की रक्षा व सुरक्षा पर हिंदी में उल्लेखनीय किताब लिखने के लिए भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय से वर्ष 2000, 2006 और 2011 में प्रथम, तृतीय व द्वितीय पुरस्कार मिल चुका है। इन्होंने पांच रिसर्च प्रोजेक्ट पूरे किए हैं, इनकी 47 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और 300 से अधिक रिसर्च पेपर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जरनल में छप चुके हैं।

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