वर्ष 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध को भले ही भारत की हार के तौर पर जाना जाता हो लेकिन उस युद्ध में ऐसे कई मोर्चे थे जहां भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों को छठी का दूध याद दिला दिया था। हमारे सैनिकों ने देश की आन, बान और शान को खुद से अधिक तवज्जो दी और दुश्मन की अधिक संख्या और मजबूत हथियार होने के बावजूद भिड़ गए। ऐसी ही लड़ाई जम्मू-कश्मीर में पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर सिरजाप मोर्चे पर हुई थी। मेजर धन सिंह थापा की अगुवाई में तैनात 28 भारतीय सैनिकों की टुकड़ी ने चीन के 600 सैनिकों के तीन हमले को विफल कर दिया। मेजर थापा अंत में कुछ सैनिकों के साथ चीनी सेना के हाथों पकड़े गए लेकिन तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होंने देश के खिलाफ एक शब्द दुश्मन को नहीं कहा। मई 1963 तक दुश्मन का बंदी रहने के बाद भी मेजर थापा ने देश भक्ति की मिशाल कायम की। भारतीय अनदेखी का झूठी कहानियां सुनाकर भी चीनी सेना उनके जज्बे को कमजोर नहीं कर सकी। किसी तरह एक बच्चे के जरिए घर पर पत्र लिखकर उन्होंने देश को अपनी सलामती की सूचना दी और उसके बाद उन्हें वापस वतन लाने की प्रक्रिया पूरी हुई। उनके इस साहस और वीरता के लिए ही उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
आजादी के बाद से ही चीन की नजर भारत के लद्दाख से उत्तर पूर्व के अरुणाचल प्रदेश तक फैले अक्साई चिन क्षेत्र पर थी। हालांकि 50 के दशक में भारत और चीन के प्रधानमंत्री चाओइनलाई और पंडित नेहरू के बीच में शांति की वार्ता चल रही थी। इसी समय पंचशील नाम का प्रसिद्ध समझौता भारत और चीन के बीच में हुआ जिसमें दोनों देशों के बीच में समन्वय और विश्वास बढ़ाने के लिए पांच सिद्धांत तय किए गए। परंतु इसी समय चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख माओसे तुंग की नजर तिब्बत और भारत के अक्साई चिन क्षेत्र पर थी। इसके लिए चीनी सेना बार-बार इस क्षेत्र में अपनी बढ़त बनाए हुए थी। इसको देखते हुए सन 1962 के शुरू में पंडित नेहरू ने इस क्षेत्र की रक्षा के लिए आगे देखने की पॉलिसी (लुक फॉरवार्ड पॉलिसी) जिसके अनुसार चीनी सेना के सामने उस पर नजर रखने के लिए सेना की चौकियों को स्थापित करने की योजना थी, इसको स्वीकृति प्रदान की। इसके अनुसार पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में छोटी-छोटी सैनिक चौकियों को चीनी सेना पर नजर रखने के लिए स्थापित करना था। इसी के अंतर्गत सेना की 1/8 गोरखा राइफल्स बटालियन को पैंगोंग झील के आसपास तैनात किया गया। पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे पर इस बटालियन की डेल्टा कंपनी को नियुक्त किया गया जिसकी कमान मेजर धन सिंह थापा कर रहे थे। मेजर थापा की जिम्मेवारी इस क्षेत्र की 48 वर्ग किलोमीटर भूमि की रक्षा करना था। इसके लिए मेजर थापा ने रक्षा की दृष्टि से ऐसे स्थानों पर पोस्ट स्थापित की जहां से चीनी सेना के इस क्षेत्र में प्रवेश करने की आशंका थी। इनमें सिरजाप, यूला इत्यादि स्थानों पर छोटी-छोटी सैनिक चौकी स्थापित की गई।
युद्ध के बाद लेफ्टिनेंट बददने पर अपनी बटालियन के सैनिकों के साथ ड्यू्टी पर तैनात ले धन सिंह थापा। तस्वीर स्त्रोत-इंटरनेट
19 अक्टूबर 1962 से चीनी सेना का इस क्षेत्र में जमावड़ा बढ़ने लगा था जिसको देखते हुए मेजर थापा ने भी अपनी चौकियों को चौकन्ना कर दिया। 19 और 20 अक्टूबर की रात को चीन ने पैंगोंग झील के पूर्वी क्षेत्र में स्थित भारत की चौकियों पर हमला करके इन पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद चीन ने 20 अक्टूबर को झील के उत्तरी क्षेत्र में सिरजाप और युला पर हमले की योजना बनाई।
हर जोरदार हमले के बाद पस्त होकर बौखलातेेचीनी सैनिक
सिरजाप झील के उत्तरी किनारे पर सरहद की तैयारियों को देखने की प्रधानमंत्री की योजना के अनुसार स्थापित की गई सुरक्षा चौकी थी। जिसकी सुरक्षा के लिए मेजर थापा की डेल्टा कंपनी की एक सैनिक टुकड़ी यहां पर तैनात थी जिसमें 28 सैनिक थे। यह चौकी इस क्षेत्र में स्थित चुशूल हवाई अड्डे की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थी। इस क्षेत्र के 48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की सुरक्षा डेल्टा कंपनी को करनी थी। इसलिए इस चौकी पर केवल 28 सैनिक ही तैनात किए जा सके। चीन ने भारत के इस कदम के बाद सिरजाप चौकी के सामने अपनी तीन सैनिक पोस्ट लगा दी थी। अपनी हमलावर नीति के अनुसार चीन ने 19 अक्टूबर को यहां पर अपने सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ा दी जिसमें करीब 600 चीनी सैनिक केवल 28 भारतीय सैनिकों के सामने एकत्रित हो गए थे। मेजर थापा चीनी सेना के इस जमावड़े को देखते हुए चीन के हमले की किसी भी क्षण आशंका कर रहे थे। इसको देखते हुए उन्होंने अपने सैनिकों को जल्दी से जल्दी मोर्चे खोदने के लिए कहा, जिससे चीन के तोपखाने और मोर्टार फायर से सुरक्षा की जा सके। अचानक चीन ने 20 तारीख की सुबह 4:30 बजे अपने मोर्टार और आर्टीलरी से पहला हमला भारत की सिरजाप चौकी पर कर दिया।
चीन की फायरिंग ढाई घंटे तक चली जिसका कवर लेकर चीन के इन्फेंट्री सैनिक सिरजाप चौकी के पीछे की तरफ से नजदीक पहुंच गए। इस समय चीन के 600 सैनिक इस चौकी के 150 गज नजदीक तक आ गए थे। इनको देखकर भारत के गोरखा सैनिकों ने इन पर फायर करना शुरू कर दिया। इसमें बहुत से चीनी सैनिक मारे गए। इस प्रयास में चीन के आर्टीलरी फायर से बहुत से गोरखा सैनिक भी शहीद हो गए थे। इस प्रकार चीन का यह हमला भारतीय चौकी के सामने 100 गज की दूरी पर ही नाकाम हो गया। चीन के तोपखाने के भारी फायरिंग के कारण डेल्टा कंपनी का संपर्क अपने बटालियन मुख्यालय से टूट चुका था। इस समय इस कंपनी के सूबेदार मिन बहादुर गुरुंग के साथ मेजर थापा अपनी चौकियों में घूम घूम कर इन चौकियों की सुरक्षा को हुए नुकसान की भरपाई के लिए अपने सैनिकों को निर्देश दे रहे थे और उनका मनोबल बढ़ा रहे थे। चीन ने इसी समय अपना दूसरा हमला फिर अपनी आर्टीलरी फायर के कवर के साथ शुरू कर दिया और यह सैनिक भारतीय चौकी के 50 गज तक पहुंच गए। इसके बाद चीनी सैनिकों ने अपनी हमले की तरकीब को बदलते हुए भारतीय चौकियों पर आग लगाने वाले गोलों से प्रहार करना शुरू कर दिया। इस हमले को विफल करने के लिए भारतीय सैनिक ग्रेनेड और छोटे हथियारों, जैसे राइफल और लाइट मशीन गन आदि से चीनी सैनिकों का मुकाबला कर रहे थे। सूबेदार गुरुंग इस समय एक एलएनजी पोस्ट से स्वयं चीनी सैनिकों पर फायर कर रहे थे। इसी समय चीन का गोला फटने के कारण सूबेदार गुरुंग का बंकर धराशाई हो गया जिसके मलबे में सूबेदार गुरुंग दब गए। मलबे से बाहर आकर गुरुंग ने अपनी एलएमजी से दोबारा फायर शुरू कर दिया और बहुत से चीनी सैनिकों को मार गिराया। परंतु इसी समय चीनी सैनिकों की गोलियों से गुरुंग शहीद हो गए।
चीनी सैनिकों के इन हमलों के विफल करने के बाद अब सिरजाप पोस्ट में केवल 7 गोरखा सैनिकों के साथ मेजर थापा शेष बचे थे। चीनी सैनिकों ने सिरजाप पोस्ट को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर इस पर तीसरा हमला भी 20 अक्टूबर को ही कर दिया। इस बार इस हमले में चीन के टैंक, आर्टीलरी और रॉकेट फायर भी हमलावर सैनिकों की मदद में थे। इस हमले के साथ साथ चीनी सैनिक हवाई मार्ग से इस चौकी के पूर्व दिशा में उतर कर हमला कर रहे थे। इस प्रकार चौकी दो दिशाओं से चीनी हमले का मुकाबला कर रही थी। इसी समय गोरखा बटालियन की दो नाव मेजर थापा की कंपनी का हाल-चाल लेने के लिए वहां पर झील में पहुंच गई। उन्हें देखते ही चीनी सैनिकों ने फायर करना शुरू कर दिया जिसके कारण एक नाव कुछ ही देर में डूब गई और दूसरी नाव में भी भारी नुकसान हुआ। भारी नुकसान के बाद भी नायक रवि लाल थापा के साथ बच निकलने में सफल हो गए। उन्होंने अपने बटालियन हेडक्वार्टर में सूचना दी कि मेजर थापा और उसकी कंपनी में कोई भी सैनिक जिंदा नहीं है और इस क्षेत्र पर चीनी सेना का कब्जा हो चुका है। परंतु तीसरे हमले के बाद सिरजाप चौकी में मेजर थापा और 3 सैनिक जिंदा बच गए थे। बचे भारतीय सैनिकों को चीनी सैनिकों ने युद्ध बंदी बना लिया। परंतु फिर भी युद्ध बंदी बनने तक मेजर थापा ने 20 अक्टूबर की सुबह 4:30 बजे से लेकर दिन में 10:00 बजे तक चीनी सैनिकों को पैंगोंग झील के उत्तरी किनारे से आगे बढ़ने से रोका और सारे संचार माध्यमों के टूटने के बाद भी वह अपनी बटालियन मुख्यालय में चीनी सेना की इस हरकत के बारे में सूचना दे पाए जिसके कारण गोरखा बटालियन ने चीनी सेना को इस रास्ते से आगे बढ़ने से रोका और इस क्षेत्र में चीन का कब्जा नहीं होने दिया। अन्यथा तो 2019 में गलवान घाटी के विवाद में आज चीनी सेना इस क्षेत्र के सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पहाड़ियों पर पहले से ही कब्जे में होती। मेजर थापा की बहादुरी के कारण चीनी सेना इस क्षेत्र में कब्जा नहीं कर पाई थी।
राष्ट्रपति डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन से परमवीर चक्र सम्मान ग्रहण करते मेजर धन सिंह थापा। तस्वीर स्त्रोत-इंटरनेट
चट्टान सा अडिग रहा मेजर थापा का हौसला
तीसरे हमले में मेजर थापा के ज्यादातर सैनिकों के मारे जाने के कारण चीनी सेना को रोकने के लिए उनके उनके पास कोई उपाय नहीं थे। इसलिए मेजर थापा और उनके तीनों साथियों को चीन ने युद्ध बंदी बना लिया। चीनी सेना ने मेजर थापा को तरह तरह से प्रताड़ित किया जिसका मुख्य कारण था मेजर थापा का बहुत से चीनी सैनिकों को मारना और इसके अलावा चीनी सेना मेजर थापा पर अपने देश और सरकार के विरुद्ध रेडियो पर बयान देने का दबाव डाल रही थी। प्रताड़ना के बावजूद मेजर थापा ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया। इस प्रकार मेजर थापा काफी समय तक चीनी प्रताड़ना का बहादुरी से मुकाबला करते रहे और उन्होंने आखिर तक अपने देश की बुराई रेडियो पर नहीं की। 962 के युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध बंदियों के वापसी के समय मेजर थापा को चीनी सेना ने भारत की सेना को सौंपा। देश का मान रखने के लिए जान की परवाह न करने के कारण ही उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
सेना में रहकन देश सेवा को समर्पित
मेजर थापा का जन्म 10 अप्रैल 1928 को शिमला में हुआ था। जहां से उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद 28 अप्रैल 1949 को टेंपरेरी कमीशन के जरिए सेकंड लेफ्टिनेंट पद पर सेना में शामिल हुए। इसके बाद 29 अप्रैल 1956 को उन्हें सेना में स्थाई कमीशन प्रदान किया गया। सेना में सेवा देने के दौरान 1970 में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर प्रोन्नत हुए जिसके बाद 30 अप्रैल 1980 को वह सेना की सेवा से सेवानिवृत्त हुए और सितंबर 2005 में उनका स्वर्गवास हो गया।
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