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Geopolitics & National Security
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काबुल की नाकामयाबी से सबक

डॉ शेषाद्री चारी
मंगल, 21 सितम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

काबुल पर नियंत्रण का दावा करने वाले तालिबान के शीर्ष नेतृत्व ने अमेरिका पर 9/11  आतंकी हमले की बीसवीं बरसी पर अपने शासन की  औपचारिक घोषणा को टाल दिया था। यदि वह तालिबान के फैसले को उनके पछतावे के रूप में देखता है, तो व्हाइट हाउस से ज्यादा अनाड़ी कोई और नहीं होगा। व्हाइट हाउस पहले ही कई बार अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मार चुका है। इसलिए तालिबान की सत्ताधारी टीम पर नाराजगी व्यक्त करने वाला अमेरिका का हालिया बयान हास्यपद है। तालिबान की ‘कैबिनेट’ में एक दर्जन से अधिक मुल्ला और आधा दर्जन व्यक्ति ‘स्वीकृत आतंकवादी’ के रूप में नामित  हैं। यदि  बाइडेन को तालिबान में बौद्ध भिक्षुओं और संतों को शामिल करने की उम्मीद थी, तो उन्हें दोहा के समझौते में यह कहना चाहिए था। अब वह केवल यही कर सकते है, कि  अपने सुरक्षा सलाहकारों को एक और 9/11 से बचने के लिए तैयार रहने के लिए कहें।

अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान को तड़पने के लिए छोड़ दिये जाने के बीच आशा की एक किरण ब्राजील-रूस-भारत-चीन-दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) की बैठक में भारत के रुख की स्वीकृति में दिखाई दे रही है, जो वेर्चुअल मीटिंग के पश्चात दिल्ली घोषणा से स्पष्ट परिलक्षित है। ब्रिक्स नेताओं ने अफगानिस्तान में उभरती स्थितियों और अप्रिय घटनाओं पर चिंता व्यक्त की और काबुल में प्रमुख नेताओं से “हिंसा से दूर रहने और शांतिपूर्ण तरीकों से स्थिति को निपटाने” का आह्वान किया।  इसमें संदेह है कि तालिबान नेतृत्व इन सुझावों पर ध्यान देगा। परंतु उनके लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे बीस वर्ष पुरानी अपनी छवि से अलग दिखें। तालिबान के भीतर दबाव और खींचातानी को देखते हुए उनके लिए  “अच्छा तालिबान” बनना कठिन है।

तालिबन द्वारा काबुल में मोहम्मद हसन अखुंद के नेतृत्व में अंतरिम शासन की घोषणा के दो दिन बाद ब्रिक्स बैठक का कठोर शब्दों वाला एक संयुक्त बयान आया। शासन में पुराने नेतृत्व भी शामिल हैं जिन्हें बीस साल पहले अमेरिका ने हटा दिया था और इसके पीछे खूंखार हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी का दिमाग हैं। यह सब तालिबान के एक समावेशी सरकार बनाने के दावे के बावजूद हो रहा है।।

काबुल में घटित होने वाली अनेक घटनाओं में से कम से कम कुछ पर आश्चर्य नहीं हुआ। तथ्य यह है कि अमेरिकी और नाटो बलों द्वारा प्रशिक्षित और सुसज्जित अफगान सेना, तालिबान लड़ाकों के दबाव और हमले के एक सप्ताह से भी कम समय में  ढेर हो गई।  अमेरिका के राष्ट्रपति का मत और उनका दावा कि तालिबान के हमले के लिए अफगान सेना काफी मजबूत है, अविश्वसनीय लगता है। तालिबान की मंशा पर एक और सवाल उठता है, कि वे दोहा की  बैठक का हिस्सा बनने के लिए सहमत कैसे हो गये थे? यदि तालिबान नेतृत्व मुद्दे के शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण समाधान  के लिए तैयार था, तो उसने हमला क्यों किया,  जबकि  वास्तविक  स्थिति यह थी कि  अमेरिकी सेना भी अपने दूतावास की छत पर चढ़ कर अथवा अन्य अनेक रास्तों से काबुल से बाहर निकल रही थी? एक अन्य परेशान करने वाला परंतु आश्चर्यजनक पहलू यह  है कि अमेरिकी रणनीति गलत हो गई , क्योंकि जिस तालिबान को बीस साल पहले सत्ता से बेदखल कर दिया गया था,  उन्होंने काबुल में सत्ता पर, उनके द्वारा छोड़े जाने के लगभग कुछ घंटों के भीतर ही कब्जा कर लिया था।

ये सभी परिस्थितियां न केवल अमेरिका बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए चिंताजनक हैं। इसमें भारत     भी शामिल है, जो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के माध्यम से अफगानिस्तान के साथ सीमा साझा करता है। उभरती हुई स्थितियों की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए नई दिल्ली के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण  है कि वह आतंकवादी हमलों को विफल करने के लिए एक मजबूत आतंकवाद विरोधी तंत्र स्थापित करे और तालिबान को सहायता और समर्थन प्रदान करने वाली ताकतों के किसी भी अप्रिय दुस्साहस को रोके।

इस संदर्भ में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के चीफ बिल बर्न्स, रूस की सुरक्षा परिषद के सचिव जनरल निकोले पेत्रुशेव की यात्रा और ब्रिटिश एमआई 6 प्रमुख रिचर्ड मूर की भारत यात्रा  अत्यधिक महत्वपूर्ण है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि तालिबान की वापसी में अमेरिका की जल्दबाजी और वापसी के अनियोजित निर्णय के कारण अफगानिस्तान के प्रति तीनों वैश्विक शक्तियां अत्यधिक चिंतित हैं। भारत ने तीनों वैश्विक सुरक्षा विशेषज्ञों की अच्छी मेजबानी की,  जिससे भारत को काबुल में उभरती स्थिति के बारे में विशेष जानकारी मिली  थी। तालिबान शासन में काबुल में  कई  गलत कृत्यों के  अतिरिक्त  दो महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में चिंतित होने का हर कारण है।

पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण आतंकवादी गतिविधियों का पुनरुत्थान है जो पश्चिमी दुनिया, यूरोप और इस क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को अपने दायरे में ला सकता है। परंतु तालिबान अभी अपनी आतंकी गतिविधियों में कमी ही रखना पसंद करेगा और/या इसका गुप्त रूप से ही संचालन  करेगा। संबद्ध इकाइयां और अकेला भेड़िया बेतरतीब ढंग से लक्ष्य को साधता जाएगा। हक्कानी नेटवर्क प्रमुख के आंतरिक मंत्री बननें के साथ ही आतंकवादी समूहों को अपने पाकिस्तानी ठिकानों की मदद से अधिक ताकत और हमले करने की क्षमता हासिल होगी। इसमें कोई शक नहीं कि भारत इन ताकतों का आसान  लक्ष्य होगा परंतु विश्व भी अछूता नहीं रहेगा।

पश्चिमी दुनिया की सुरक्षा एवं रणनीतिक समुदाय की चिंता का दूसरा पहलू अफगानिस्तान में चीन द्वारा प्राप्त किये जाने वाला अत्यधिक लाभ है। अपुष्ट सूत्रों के अनुसार चीन जल्द ही अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में भारी निवेश  करेगा, जो बीजिंग को  अपने खजाने का मुह खोलने  की अनुमति देगा और तालिबान को वित्तीय संकट से बाहर  निकालेगा।

अनुमान लगाया जा सकता है कि दौरे पर आये  इन सुरक्षा विशेषज्ञों ने भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ क्या चर्चा की होगी।  हम केवल  यही उम्मीद  कर सकते हैं कि नई दिल्ली ने भारत को दोहा वार्ता से अलग रखने और वर्तमान अव्यवस्था से पूर्व भारत की  चिंताओं पर विचार न करने के प्रति  चिंता व्यक्त की है।

आतंकवाद और नशीली दवाओं का व्यापार तालिबान शासन के दो मुख्य पहलू हैं, जो इस क्षेत्र के सुरक्षा उपायों तथा शक्ति संतुलन के लिए घातक होंगे।

बिगड़ती सुरक्षा स्थिति के अतिरिक्त आर्थिक संकट  वो क्षेत्र  है, जहां भारत और रूस को मिलकर काम करने की आवश्यकता है। महामारी ने इस क्षेत्र की कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर क्षति पहुंचाई है।  क्वाड की प्रगति धीमी है, यह भारत और रूस दोनों को कोई आर्थिक आधार और नेटवर्किंग प्रदान नहीं कर सकता। रूस वैसे भी क्वाड का हिस्सा नहीं है। एक संस्थान के रूप में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी), भारत, जापान और रूस जैसी तीन प्रमुख अर्थव्यवस्थाओ को छोड़कर बीजिंग को अधिक लाभ पहुँचाता प्रतीत हो रहा है। इसके अलावा, चीन ने पहले ही संसाधन संपन्न अफगानिस्तान में रणनीतिक रूप से कब्जा कर लिया है, जबकि चीन की पाकिस्तान में आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के माध्यम से पकड़ मजबूत है। चीन-पाकिस्तान-अफगानिस्तान  संयुक्त रूप से अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ा सकते है और  यह चीन को हिंद महासागर के प्रवेश बिंदुओं और भारत-प्रशांत में  अपनी पकड़ मजबूत करने में सहायता देगा।

नई दिल्ली को एक ओर क्षेत्रीय शक्तियों  और साथ ही दूसरी ओर पश्चिमी लोकतंत्रों के साथ अपना संपर्क  बढ़ाना होगा। परंतु इससे भी महत्वपूर्ण  यह है कि नई दिल्ली को यह याद रखना चाहिए कि आतंकवादी हमले अथवा आर्थिक मंदी के समय में दुनिया का कोई  देश उसके बचाव में नहीं आएगा। जब  हमारे राष्ट्रीय हितों की  रक्षा  और सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने का प्रश्न हो  तो हमारे पास  सहानुभूति रखने वाले अनेक होंगे, मित्र कम और सहयोगी कोई नहीं होगा।।

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लेखक
डॉ शेषाद्रि चारी विदेश नीति, रणनीति और सुरक्षा मामलों पर टिप्पणीकार हैं। वह फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्योरिटी (FINS) के महासचिव और अंग्रेजी साप्ताहिक आयोजक के पूर्व संपादक हैं।

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