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परिजनों के माध्यम से आतंकवाद – भारत में इस्लामिक स्टेट की भर्ती योजना

गार्गी एल. शानभग
बुध, 08 सितम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

सैमुअल हंटिंगटन द्वारा अपनी पुस्तक, ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ में  कही गयी अनेक बातों में से एक बात  यह भी थी, कि  21 वीं सदी में मुस्लिम देशों में युवाओं द्वारा इस्लामवादी संगठनों और राजनीतिक आंदोलनों  में शामिल होने के अनुपात में वृद्धि कैसे हुई। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने 1970 के दशक में ईरानी युवाओं के अनुपात और 1979 में ईरानी क्रांति का उल्लेख किया। इस पुस्तक में वर्ष 2010 में अफगानिस्तान में युवा अनुपात वृद्धि का भी वर्णन किया गया है, और इस धारणा का उत्कृष्ट उदाहरण अफगानिस्तान में तालिबान का वर्तमान अधिग्रहण  है।

यह तथ्य सर्वविदित है कि इस्लामिक स्टेट (आईएस) एक सुन्नी जिहादी समूह है, जो पूरे विश्व  में मुसलमानों पर धार्मिक रुप से शासन करने के साथ-साथ दूरगामी क्षेत्रों तक खलीफा स्थापित करने के अभियान पर है। भारत उनके लक्ष्य का अपवाद नहीं है। इस संदर्भ में इस्लामी आतंकवादी समूह मुस्लिम और गैर-मुसलमानों के बीच लड़ाई को उचित ठहराने और यह भविष्यवाणी करने के लिए हदीस का आह्वान किया कि, ‘गज़वा-ए-हिंद’ का शाब्दिक अर्थ दक्षिण एशिया में इस्लाम विरोधी युद्ध के मैदान में भेजना है; जो पैगंबर मुहम्मद और राइट गाइडेड खलीफाओं के समय से मौजूद सामाजिक व्यवस्था के समान है।

यदि भारत की बात करें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है  कि दुर्भाग्यवश कुछ भारतीय, आईएस और उसके सहयोगी अर्थात इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (आइएसकेपी) आदि में शामिल हो रहे हैं। ऐसा ही एक राज्य जो  आजकल सुर्खियों में है, वह केरल है। ऐसे कई मामले  सामने आये हैं जहां केरल के युवाओं को इस्लाम में परिवर्तित किया जाता है और साथ ही सीरिया और अन्य स्थानों पर ‘अल्लाह की सेना’ में शामिल होने के लिए  एक  अच्छी पृष्टभूमि वाले मुस्लिमों की खोज भी की जाती है। वैचारिक झुकाव, गलत व्याख्या, और भौगोलिक सापेक्षता की गहराई से की गयी जाँच से यह समझने में सहायता मिलती है कि आईएस किस प्रकार से उनके दिमाग को इस्लामी चरमपंथ की ओर मोड़ती है।

भारत में सलाफीवाद

भारत में 170 मिलियन से अधिक मुसलमान हैं, जो सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है। हाल ही में देश में इस्लामी चरमवाद के उदय को  मीडिया ने सलाफ़िज़्म से जोड़ दिया। केरल, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में आर्थिक सहायता की आड़ में सऊदी अरब से धन की भारी मात्रा में आवक निश्चित रूप से चिंताजनक है।  उपरोक्त राज्यों में मदरसों की स्थापना के लिए सऊदी अरब द्वारा भारत में लगभग 1700 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। यद्यपि सलाफीवाद का सऊदी स्वरूप अमन पसंद है और इस्लामी आतंकवाद की अत्यधिक आलोचना करता है,  परंतु सलाफीवाद  में विविधता है और किसी  भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व इनकी विचारधारा की बारीकियों को समझना होगा।

भारत जैसे देश में सलाफीवाद के अनेक रूप हैं। कुल मिलाकर, वे बहुसंस्कृतिवाद, सहिष्णुता का उपदेश देते हैं तथा समन्वित भारतीय विशेषताओं के उदाहरण प्रस्तुत करते  हैं। भारत में सबसे पुराना सलाफिस्ट आंदोलन, जमात अहले हदीस ( जे ए एच) 1906 में शुरू किया गया था।   जेएएच भारत में 2॰2 मिलियन से अधिक सलाफिस्ट (कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 13%) का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है और कई वार्षिक सम्मेलनों और कार्यक्रमों की मेजबानी करता है।

दक्षिण भारत में दो सबसे बड़े  सलाफी आंदोलन  है, केरल नदवथुल मुजाहिदीन (केएनएम) तथा दक्षिण कर्नाटक सलाफी आंदोलन (एसकेएसएम) इसकी शाखा हैं। केएनएम की स्थापना 1947 में हुई थी और इसका लंबा इतिहास सैय्यद सनाउल्ला मक्ती थंगल से  आरंभ होता है, जो 19वीं सदी में केरल के एक विद्वान थे। यह संगठन जेएएच से इस मायने में अलग है कि इसके दृष्टिकोण पर कभी-कभी केरल की मार्क्सवादी गतिविधियों का प्रभाव दिखायी देता है। केएनएम और जेएएच कई जिलों में मदरसा और स्कूल नेटवर्क का संचालन करते हैं। इत्तेहादुल सुभानील मुजाहिदीन (केएनएम का युवा मोर्चा) के पूर्व अध्यक्ष मुजीब रहमान किनालूर ने 2016 में एक सम्मेलन में चरमपंथी विचारधारा का विरोध करने के लिए मदरसा के पाठ्यक्रम का  पुननिर्धारण करने की वकालत की थी।

अब अगर सलाफीवाद का भारतीय संस्करण शांतिपूर्ण होने का दावा करता है, तो मुट्ठी भर भारतीय इस चरमपंथी मार्ग पर चलने के लिए क्यों और कैसे प्रेरित होते हैं? यह स्थिति वर्ष 1973 में खाड़ी में तेल के उछाल के दौरान  प्रारंभ हुई। उस समय भारतीय, विशेष रूप से केरलवासी, रोजगार की तलाश में खाड़ी में स्थानांतरित हों गए और सलाफिस्ट विचारधाराओं को अपने साथ ले आये। आधुनिक सलाफीवाद मुख्य रूप से सऊदी अरब और अन्य पश्चिम एशियाई देशों से आया और यह अव्यवस्थित रूप से संगठित था। इसके अधिकांश अनुयायी पूरी दुनिया में ऑनलाइन प्रचारकों से जानकारी प्राप्त करते थे।

नया सलाफीवाद अन्य धर्मों का अत्यधिक विरोधी और दमनकारी है, और इसके समर्थक पुराने भारतीय सलाफिस्ट समूहों के प्रति अधिक शंकित हैं। उदाहरण के लिए,  सलाफिस्ट वेबसाइटों ने जेएएच को “गलत सूचना के आधार पर निर्मित एक संगठन” के रूप में संदर्भित किया है। इसी  प्रकार, खाड़ी में कुछ सलाफिस्ट पादरियों ने केएनएम संगठन की निंदा की है क्योंकि पूर्ववर्ती के अनुसार, “परवर्ती वास्तविक पथ से भटक गये है।”

आईएस का हिजरा अभियान

काफी लंबे समय से, आईएस भारत में अपने अनुयायियों को पश्चिम एशिया में हिजरा (प्रवास) करने और स्व-घोषित विरोध के लिए  प्रेरित कर रहा है। जबकि इस्लामिक स्टेट की स्थापना के लिए सशस्त्र युद्ध का समर्थन करने वाले अबू मुहम्मद अल-मकदीसी और अबू कतादा अल फिलिस्तिनी जैसे वर्तमान सलाफी-जिहादी विद्वानों में से किसी ने भी हिजरा की अवधारणा का  विस्तार से वर्णन नहीं किया है, परंतु  संभावित भर्ती के मामले में अपने वैध रुख से अवगत कराने के लिए आईएस अपनी ऑनलाइन  प्रचार पत्रिका ‘दाबिक’ का उपयोग करने में सफल रहा।

हिजरा को मुख्यधारा के इस्लामी प्रवचनों में दार अल-हरब से दार अल-इस्लाम में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया गया है। दार अल-हरब, जिसका अर्थ “युद्ध का घर” है, उन क्षेत्रों को संदर्भित करता है जहां इस्लामी कानून लागू नहीं होता अथवा मुसलमानों को अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। दूसरी ओर दार अल-इस्लाम का शाब्दिक अर्थ है “इस्लाम का घर” और यह इस्लामी अधिकार क्षेत्रों को संदर्भित करता है। हिजरा की पारंपरिक व्याख्या के अनुसार केवल वे मुसलमान जो इस्लाम को लागू कर पाने में असमर्थ हैं अथवा जिन्हें ऐसा करने में विरोध का सामना करना पड़ता है उन्हें मुस्लिम क्षेत्रों में प्रवास करने के लिए विवश किया जाता है। (एबस्टीन, 2006)

दाबिक के सभी प्रकाशित अंको की विस्तृत जाँच के अनुसार, वे इस्लामिक स्टेट द्वारा प्रस्तुत हिजरा के पहलुओं को उजागर करने की कोशिश करते हैं, तथा यह  तर्क देते है कि आईएस, दार अल-हरब से दार अल-इस्लाम तक के पारंपरिक हिजरा की वकालत करता है। समूह ने  इस अवधारणा को अत्यधिक विकृत कर दिया।

हाल ही में, एनआईए ने दो आईएस जिहादियों को गिरफ्तार किया जो हिजरा के इच्छुक थे। यह पहली बार नहीं है जब इस तरह का मामला सामने आया है। भारत के पूर्व इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक सैयद आसिफ इब्राहिम के अनुसार,  वर्ष 2020 तक, 108 भारतीय मुसलमान इस्लामिक स्टेट में शामिल हो गए थे, जिनमें से आधे मध्य पूर्व के प्रवासी भारतीय समुदायों से थे।

परिजन आतंकवाद

परिजन आतंकवाद तब होता है जब आतंकवादी समूह अपने ‘परिजनों’, यानी परिवार के सदस्यों को कट्टरपंथी बनाकर अपने नेटवर्क का विस्तार करते हैं। परिजन आतंकवाद भिन्न और दिलचस्प है क्योंकि परिवार के माध्यम से किया गया यह कार्य अधिक विश्वास और समूह की वफादारी में परिणत होता है; यह पारंपरिक कट्टरवाद से अलग भी है। अल-कायदा, तालिबान, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे आतंकवादी समूहों ने ‘उम्मा’ और ‘वंश-आधारित  संबंधों’ को भुनाया है।

ऐसे उदाहरण  हैं, जहां इसमें पूरे परिवार, विशेष रूप से दक्षिण एशियाई क्षेत्र की महिलाएं शामिल हैं। इससे पता चलता है कि यह स्थिति उन्हें कट्टरता के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करती है।

स्पष्ट दाहरण : केरल

केरल का तटीय शहर और कभी एक वाणिज्यिक बंदरगाह के रूप में प्रसिद्ध  नगर कन्नूर ने हाल ही में आईएस के कथित उत्पति स्थल के रूप में बदनामी अर्जित की है। 42 साल की फातिमा ने कुछ वर्ष पूर्व अपने तीन बच्चों-दो बेटों, और एक बेटी के साथ-अपने पति के पास दुबई जाने के लिए कन्नूर का घर छोड़ दिया था।  उसका पति वहाँ व्यवसाय करता था। यह आखिरी बार था जब उसे उसके रिश्तेदारों ने देखा था। उन्हें प्राप्त अगली सूचना के अनुसार फातिमा कथित तौर पर आईएस में शामिल होने के लिए दुबई से अफगानिस्तान चली गई थी।

कासरगोड़ जिला कन्नूर से लगभग एक घंटे की दूरी पर है। पड़न्ना और थ्रीकरीपुर के दो सुरम्य गांवों में एक दर्जन से अधिक लोग पूर्ण रूप से आईएस में शामिल हो गए हैं। वर्ष 2016 मे, पड़ने नगर में, 11 व्यक्ति  जिहादी समूह में शामिल हुए थे। उनमें से आठ एक ही घर के थे।  हमजा सागर के परिवार को इस बात का अहसास हो गया है कि उनके दोनों पुत्र एजाज अब्दुल रहमान और शियाज अब्दुल रहमान वापस नहीं लौटेंगे। उनकी मां ने अपने भतीजे अशफाक का  जिक्र भी किया था । (समाचार18)

इस प्रकार, आईएस, आईएसकेपी और अन्य इस्लामी आतंकवादी संगठन भारतीय भूमि से जिहादियों को शामिल करने के लिए समान मार्गों का अनुसरण करते हैं। भारत सरकार के साथ-साथ सलाफी समुदायों के धार्मिक नेताओं का मुख्य कर्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि मुस्लिम और गैर- मुस्लिमो को चरमपंथी मानसिकता का शिकार होने से कैसे बचाया जाए। क्योंकि एक बार ऐसा हो जाने के पश्चात शायद ही कोई वापसी हो।

भारत आतंकवाद विरोधी खुफिया दस्ते (एटीएस) बनाकर और स्लीपर सेल आदि पर नकेल कसने के लिए  कड़ी मेहनत कर रहा है। कोविड-19 महामारी, जिसकी परिणति  सीमा नियंत्रण और यात्रा प्रतिबंधों में हुई और आतंकवादी समूहों पर भी  इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ा। अब इस्लामिक स्टेट अपनी भर्ती तकनीकों को परिवर्तित करेंगे  जो “पारिवारिक नेटवर्क” पर बहुत अधिक निर्भर है। इसका कारण यह है कि परिवार अब  पारिवारिक दबाव या प्रभाव के कारण कट्टरपंथ के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, क्योंकि वे  अब मुख्य रूप से अपने घरों के भीतर  तक ही सीमित रह गए हैं। इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया एक्सपोजर के विपरीत, परिवारों का अपने सदस्यों पर विश्वास अधिक होता है, जो कट्टरपंथी प्रक्रिया को तेज कर सकता है।

अंत में, सैमुअल हंटिंगटन की पुस्तक पर वापस लौटतेहुए, जिसमें  उन्होंने सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस अब्दुल्ला को उद्धृत किया।  उन्होंने वर्ष 1988 में कहा था कि, “अपने देश के लिए सबसे बड़ा खतरा अपने युवाओं में इस्लामी कट्टरवाद का उदय था”।

क्या हम केरल के  विषय में भी ऐसा ही कह सकते हैं?  यह विचारणीय है।

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लेखक
गार्गी एल. शानभग मणिपाल उच्च शिक्षा अकादमी के भू-राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में एक शोधार्थी हैं।

अस्वीकरण

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