परिपक्व लोकतंत्रों में विदेश सेवा और नौसेना के बीच परस्पर सहयोग का संबंध होता है, जिसमें दोनों एक दूसरे के हित में काम करते हैं। भारत में यह संबंध आरंभ में खराब रहे। तत्कालीन भारतीय राजनीतिक विचारकों के पास इस उपनिवेश में आक्रामक ब्रिटिश रॉयल नेवी की अप्रिय यादें रही हैं।
भारतीय जहाजों की यात्राओं को बहुत कम और राष्ट्रमंडल देशों की नौसेनाओं के संयुक्त अभ्यासों तक ही सीमित रखा गया-जिसमें दिलचस्प रूप से पाकिस्तान की नौसेना भी शामिल थी। ऐसा वार्षिक आधार एवं बड़े पैमाने पर किया जाता था। जो सिंगापुर में ब्रिटिश सी-इन-सी सुदूर पूर्व बेड़े के अहं को काफी हद तक संतुष्ट करते थे। हम इसमें शामिल नहीं हो पाये। ऐसा तब अनुभव हुआ, जब हमारी सरकार के आधुनिक पनडुब्बियों के अनुरोध को एक पिछड़ी सोच वाली ब्रिटिश एडमिरल्टी ने ठुकरा दिया।
क्रूद्ध रक्षामंत्री वाई. बी. चव्हाण, एक विशाल प्रतिनिधिमंडल को अपने साथ मास्को ले गए, जहां गोर्शकोव ने नई दिल्ली के लिए सोवियत हथियारों के द्वार खोल दिये और इससे लंदन के अंजान एडमिरलों के एक समूह से प्रेरित भारत-सोवियत मित्रता के महान युग की शुरुआत हुई।
सोवियत हथियारों, जहाजों और विमानों को शामिल करने का कारण यह था कि भारत राष्ट्रमंडल नौसैनिक अभ्यास से हट गया, जो वैसे भी ध्वस्त हो गया था। उस समय एक गिरती साख वाले ब्रिटेन ने स्वेज से अपनी सेना वापस बुला ली। दुर्भाग्य से, भारतीय नौसेना एक घेरे के भीतर ही सिमट कर रह गई और विश्व में नौ सेना के हथियारों और रणनीति के क्षेत्र में हो रहे विकास से अनभिज्ञ रही। यह स्थिति शीत युद्ध की समाप्ति अर्थात 26 वर्षों तक बनी रही।
1992 में नई दिल्ली ने कैनबरा के राजनयिक को सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और वे एक चौथाई सदी में पहली बार द्विपक्षीय नौसैनिक अभ्यास के लिए सहमत हुए। इसके पश्चात्, यूएस-सी-इन-सी पैसिफिक द्वारा दिल्ली में नौसेना मुख्यालय की पहली यात्रा और इंडो-यूएस नौसैनिक अभ्यास की मालाबार श्रृंखला, यह सभी सकारात्मक खबरे थी। धीरे-धीरे, भारतीय विदेश कार्यालय को ‘नौसेना कूटनीति’ के लाभों का ज्ञान हुआ। यह एक ऐसी अवधारणा थी, जिसका विदेश कार्यालय के मंदारिन द्वारा पहले मज़ाक उडाया जाता था। विदेशी कार्यालय को यह बताना कठिन था कि नौ सेना के उपयोग के लिए लिखी गयी पुस्तक “युद्ध से कम ” एक ब्रिटिश विदेश सेवा अधिकारी द्वारा रचित थी।
२१वीं सदी के आरंभ में, द्विपक्षीय अभ्यासों में वृद्धि हुई और भारतीय नौसेना ने कुछ छोटी नौसेनाओं की उनके सामरिक कौशल को बढ़ाने में सहायता की। उदाहरण के लिए, उन्होंने सिंगापुर और ओमानी नौसेनाओं की पनडुब्बी रोधी युद्ध प्रक्रियाओं में भाग लिया। विदेश कार्यालय ने अंततः कूटनीति में नौसेना के उपयोग के महत्व को समझा और यहाँ तक कि भारतीय नौसेना के जहाज न्यूयार्क के राष्ट्रीय समारोहों के लिए वहाँ गये।
विदेश कार्यालय ने प्रसन्नता व्यक्त की, परंतु इसमें एक छोटा सा दंश था। नौसेना के समुद्री रणनीतिकारों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि विदेशी कार्यालय के सहयोग के बिना यह कैसे संभव हो पायेगा। हम चर्चा कर रहे थे कि देश की सीमाओं के बाहर ‘बल’ के प्रयोग किस प्रकार से संभव हो। यह कैसे किया जाए? मूलभूत क्षेत्रीय रक्षा नीति की घोषणा करके भू रणनीति को परिभाषित करना बहुत सरल था। अनेक वर्षों से हमने इसका एक प्रकार की ‘चौकीदारी’ के रूप में राजनीतिकरण कर दिया था। परंतु भारतीय राजनेता नौसेना नीति की सूक्ष्मताओं से पूरी तरह अंजान थे। केवल कुछ शिक्षित राजनयिकों का ध्यान इस ओर जरूर आकर्षित हुआ।
सूनामी की चेतावनी मिलने पर नौसेना के एक सतर्क और सक्रिय प्रमुख द्वारा, प्रत्येक नौसैनिक जहाज को परिचलित करने की पहल की महाद्वीपीय प्रशंसा की गयी। इस कार्यवाही ने राजनयिकों को हिंद महासागर नौसेना संगोष्ठी (आईओएनएस) और हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में पहल करने में सक्षम बनाया। जिसके फलस्वरूप हमने आधी लड़ाई पहले ही जीत ली ।
2010 में, ओबामा प्रशासन ने बीजिंग को विश्व व्यवस्था में ‘सह-चयन’ करने के प्रयास की बड़ी रणनीतिक भूल की। उन्होंने यह नहीं सोचा कि चीन का नेतृत्व उस कट्टरपंथी शी जिनपिंग द्वारा किया जा रहा है, जिनके पास विश्व के आधिपत्य के सबसे अधिक महत्वाकांक्षी विचार थे। यह अजीब लग सकता है, कि भारतीय नौसेना ने एक बार अत्यधिक गर्मी में भी पीएलए नौसेना के साथ अभ्यास किया था।
कुल मिलाकर, विदेश कार्यालय ने इस तथ्य को पूरी तरह से समझ लिया था कि नौसेना, विदेश नीति का एक शक्तिशाली उपकरण है। इस दौरान दो घटनाक्रम साथ-साथ चल रहे थे। पहला, वाशिंगटन को बीजिंग में 19वीं कांग्रेस पार्टी के आने के बाद से यह अहसास हो गया था, कि अमेरिका और बीजिंग के बीच प्रतिस्पर्धा लंबे समय तक चलेगी और बिना बल के, शासन के वैश्विक नियमों के लिए सहयोगी -चुनना कठिन था। दूसरा, अमेरिका की व्यापक रणनीति के लिए एशिया में सहयोगियों की आवश्यकता थी, जैसे पूर्व में यूरोप में यूएसएसआर के विरुद्ध हुआ था। एशिया की ओर ओबामा की धुरी और प्रस्तावित ट्रांस-पैसिफिक सांझेदारी, जिसमे बीजिंग को इससे बाहर रखा गया, सभी वस्तुतः ध्वस्त हो गया था। एकमात्र उम्मीद ऑस्ट्रेलिया के पुन: प्रवेश और क्वाड के गठन की अमेरिकी पहल थी। इसकी शुरुआत कूटनीतिक और विनम्र थी। क्वाड देसों की राजधानियों ने ‘स्वतंत्र और खुले साझा दृष्टिकोण’ वाले इंडो-पैसिफिक का स्पष्ट संकेत दिया।
यह एक अच्छी शुरुआत थी, परंतु यह शायद बीजिंग को उपलब्ध विकल्पों को प्रभावित करने वाली रणनीति नहीं थी। निश्चित रूप से, चीन ने क्वाड के संबंध में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि वह ‘फोम की तरह फैल जाएगा’। यह क्वाड रणनीति को राजनयिक से सेना में परिवर्तित करने का समय है, परंतु तीन दशकों से अधिक के पश्चात यह सबक मिला कि राजनयिकों को नौसेना कार्यों की मूल कार्य प्रणाली का ज्ञान नहीं और फुर्तीली सोच उनकी विशेषता नहीं है।
जून 2020 में, चीनियों ने नई दिल्ली के गलवान में नुकीले खन्जे गॉड दिए और यह प्रश्न पूछे जाने लगे कि भारतीय नौसेना इसमें क्या कर सकती है। इस प्रश्न ने कई रणनीतिकारों को चौका दिया। परंतु इस लेखक को नहीं, जिन्होंने सहज ही यह महसूस कर लिया कि क्वाड की महान नौसैनिक ताकत क्वाड की सभी नौसेनाओं के साथ बड़े समुद्री गश्ती जहाजों (एमपीए) की संख्या में निहित है। यह स्पष्ट हो गया कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को समुद्री उत्तरदायित्वो के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में विभाजित करके, क्वाड इस क्षेत्र में सूचना और प्रभुत्व स्थापित कर सकता है। प्रत्येक विचारशील चीनी नौसैनिक अधिकारी को यह स्पष्ट हो जायेगा कि जब यह द. चीन सागर मे अमरीकी नौ सेना से मुकाबला करते है, तो हिंद महासागर में इसके विशाल तेल आयात पर बहुत ध्यान नहीं दिया जा सकता, वे असुरक्षित रहेंगे।
यहाँ एक ऐसा अवसर है, बीजिंग खुद अपनी मलेक्का दुविधा से भयभीत है। उसके डर को वास्तविक बनाए, हिंद महासागर में कुछ चीनी टैंकरों का अवरोध करें, क्वाड के पी-8 विमान को सक्रिय करें, सूचना-प्रभुत्व स्थापित करें और इस मुद्दे को हल करने के लिए पीएलए नौसेना को बंधक बनाकर रखें। इस प्रकार वे एक घातक जाल में फंस जाएंगे-जिसे नौसेना द्वारा, “हत्या का मैदान” कहा जाता है।
इसके बजाय, विदेश कार्यालय राजनयिक तंत्र से अवरूध है। जब क्वाड का भव्य व्यापक रुप सामने आया तो वह जलवायु परिवर्तन और वैक्सीन निर्यात से अपने उद्देश्य को छोटा कर रहा है। यह बीजिंग को भयानक परिणामों की धमकी देने का अवसर है और इस अवसर को शासन प्रमुखों के मध्य बैठकों मे समीक्षा द्वारा गंवाया जा रहा है।
कोई भी युद्ध नहीं चाहता, परंतु शी जिनपिंग जैसे व्यक्तियों की धमकियों को धमकी से ही रोका जा सकता है। इसका संकेत देने के कई तरीके हैं। क्वाड का सैन्य गठबंधन किया जा सकता है। राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्रों का प्रचार करें; एक क्वाड सचिवालय स्थापित करें, विदेशी सैन्य बिक्री के माध्यम से अमेरिका से भारत में चार और पी-8 विमान स्थानांतरित करें। अंतत, भव्य ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष इंडो-पैसिफिक के दृष्टिकोण को छोड़ दें। चीनी टैंकरों को सुरक्षित रखना क्वाड का काम नहीं है।
********
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और चाणक्य फोरम के विचारों को नहीं दर्शाते हैं। इस लेख में दी गई सभी जानकारी के लिए केवल लेखक जिम्मेदार हैं, जिसमें समयबद्धता, पूर्णता, सटीकता, उपयुक्तता या उसमें संदर्भित जानकारी की वैधता शामिल है। www.chanakyaforum.com इसके लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है।
हम आपको दुनिया भर से बेहतरीन लेख और अपडेट मुहैया कराने के लिए चौबीस घंटे काम करते हैं। आप निर्बाध पढ़ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरी टीम अथक प्रयास करती है। लेकिन इन सब पर पैसा खर्च होता है। कृपया हमारा समर्थन करें ताकि हम वही करते रहें जो हम सबसे अच्छा करते हैं। पढ़ने का आनंद लें
सहयोग करें
POST COMMENTS (1)
अरविंद