मेलबर्न, 29 नवंबर (द कन्वरसेशन) : ईरान, अमेरिका और संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए) के अन्य सदस्यों के बीच परमाणु वार्ता 29 नवंबर को फिर से शुरू होने के बीच यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि क्या ईरान के साथ इस बातचीत का कोई कूटनीतिक फल मिलने की संभावना है, या यह प्रयास व्यर्थ हो जाएगा?
2015 में ओबामा प्रशासन (जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और रूस के साथ), जेसीपीओए के साथ बातचीत ईरानी परमाणु महत्वाकांक्षाओं को कम करने की दिशा में एक बड़ा प्रयास मानी गई।
159-पृष्ठ के समझौते में अमेरिका और उसके यूरोपीय भागीदारों ने ईरान पर लंबे समय से लगे प्रतिबंध हटाने का संकल्प लिया ताकि ईरान में विदेशी निवेश फिर से हो सके और वह बिना किसी प्रतिबंध के अपने प्राकृतिक संसाधनों को वैश्विक स्तर पर बेच सके।
बदले में, ईरान 15 वर्षों के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम पर कई प्रकार के अवरोध लगाने पर सहमत हुआ। इनमें शामिल हैं: यूरेनियम संवर्धन के स्तर को 3.67 प्रतिशत से नीचे रखना (वाणिज्यिक परमाणु संयंत्रों के लिए ईंधन का उत्पादन करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला स्तर)।
इसके अलावा वह अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) द्वारा अपने परमाणु कार्यक्रम की अधिक निगरानी, सत्यापन और पारदर्शिता के लिए राजी हुआ और कई संस्थानों को बंद करने के लिए भी राजी हुआ।
ऐसा प्रावधान था कि इन कदमों से सीमित नागरिक गतिविधियां तो बनी रहेंगी, लेकिन संभावित सैन्य अनुप्रयोगों को फिलहाल निष्प्रभावी कर दिया जाएगा।
महत्वपूर्ण रूप से, जेसीपीओए ने अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा अस्थिरता के रूप में देखी जाने वाली अन्य ईरानी गतिविधियों को संबोधित करने से परहेज किया। इनमें तेहरान का लेबनान में हिज़्बुल्लाह, यमन में हौथी बागियों और विभिन्न इराकी और सीरियाई मिलिशिया जैसे विद्राहियों को समर्थन के साथ-साथ इसके लगातार बढ़ते बैलिस्टिक मिसाइल और ड्रोन कार्यक्रम शामिल थे।
समझौते में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि इन गतिविधियों के लिए प्रतिबंध यथावत रहेंगे और इन्हें अलग मुद्दों के रूप में माना जाएगा।
संभावित परमाणु प्रसार के तत्काल संकट को संबोधित करने के अलावा, समझौते का उद्देश्य विश्वास-निर्माण प्रयास के रूप में कार्य करना था।
अमेरिकी नेताओं का मानना था कि ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी के सामने शांति की पेशकश करके और अच्छे विश्वास में काम करने से, वे व्यापक अमेरिका-ईरान मेल-मिलाप का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। यह सौदा प्रदर्शित करेगा कि अमेरिका भविष्य की बातचीत के लिए एक विश्वसनीय भागीदार हो सकता है।
आत्मविश्वास नहीं बनाया
बेशक, नर्क का रास्ता अच्छे इरादों के साथ बनाया गया और अमेरिका एक बार फिर विदेशी मामलों में अपनी सबसे बड़ी असफलता का अनुमान लगाने में विफल रहा।
2016 में बड़े हेरफेर के तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति पद पर चुने जाने से जेसीपीओए अस्त-व्यस्त हो गया। जहां ओबामा ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम के मुद्दों को उसके अन्य अस्थिरकारी कृत्यों से अलग कर दिया था, वहीं ट्रम्प ने दोनों को एक ही नजरिए से देखा।
इसके बाद वाशिंगटन मई 2018 में एकतरफा समझौते से पीछे हट गया और तथाकथित ‘‘अधिकतम दबाव’’ अभियान चलाने की दिशा में अग्रसर हुआ। इसने ईराने को व्यापक रियासतें देने के लिए धमकाया।
यह झकझोर देने वाला बदलाव ईरान द्वारा जेसीपीओए ढांचे के अनुपालन के बावजूद हुआ। यह समझौता वास्तव में एक साल तक जारी रहा जब अमेरिका इस उम्मीद से पीछे हट गया कि अन्य हस्ताक्षरकर्ता वाशिंगटन को वापस टेबल पर ला सकते हैं।
हालांकि, इस तरह की उम्मीदें बेकार साबित हुईं, क्योंकि ट्रम्प ने यूरोपीय लोगों का तिरस्कार किया, तेहरान के खिलाफ नए प्रतिबंध लगाए, और अन्य उत्तेजक गतिविधियों में लगे रहे। इसमें ईरान में बहुत सम्मानित व्यक्ति जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या भी शामिल थी।
ट्रम्प की इन गतिविधियों ने अमेरिकी दोगलेपन के बारे में ईरानी विचारों की पुष्टि की और तेहरान के साथ कामकाजी संबंध बनाने के ओबामा के उदार प्रयासों को खारिज कर दिया।
इस घटनाक्रम को विश्वासघात मानते हुए, ईरान ने सऊदी तेल प्रसंस्करण सुविधाओं पर हमले सहित मध्य पूर्व में तनाव बढ़ाना शुरू कर दिया – और जेसीपीओए में सहमत स्तरों से परे यूरेनियम को प्रसंस्कृत करना फिर से शुरू कर दिया।
ईरान में सत्ता परिवर्तन
कई लोगों को उम्मीद थी कि 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडेन की जीत के साथ, वाशिंगटन तेहरान को फिर से मनाने और जेसीपीओए समझौते पर लौटने के लिए तेजी से आगे बढ़ेगा। हालात में सुधार की गुंजाइश उस समय और कम हो गई जब ईरान में समझौते के प्रमुख प्रस्तावक रूहानी का कार्यकाल इस अगस्त में समाप्त हो गया (उनकी जगह अधिक रूढ़िवादी और कट्टर राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी ने ले ली।)
यह भी सच है कि बाइडेन ओबामा नहीं थे, और कई समान कर्मचारियों को साझा करने के बावजूद, उनके प्रशासन ने अधिक रूढ़िवादी और धौंस जमाने वाली विदेश नीति का प्रदर्शन किया।
खराब माहौल को साफ करने के लिए अच्छे विश्वास के कार्य की पेशकश करने के बजाय, बाइडेन ने संकेत दिया कि अमेरिका कोई रियायत दे, उससे पहले उन्हें उम्मीद है कि ईरान जेसीपीओए का पालन फिर से शुरू करेगा। पिछले महीने जी20 की बैठक में, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन ने एक संयुक्त बयान में इस संदेश की पुष्टि करते हुए कहा: जेसीपीओए अनुपालन पर लौटने से प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे और इससे ईरान के आर्थिक विकास पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे। यह तभी संभव होगा जब ईरान अपना रुख बदले।
हालाँकि, ईरानी राजनयिक चाहते हैं कि तेहरान द्वारा फिर से समझौते का पालन करने से पहले अमेरिका अपने विश्वासघात को सही करे और प्रतिबंधों को हटा दे।
इन दो अडिग और असंगत स्थितियों ने अब तक वार्ता में सार्थक प्रगति करने के किसी भी प्रयास को विफल कर दिया है। आशा की झिलमिलाहट? इस तरह की उदासी के बावजूद, दोनों तरफ सूक्ष्म इशारों के माध्यम से सीमित आशावाद नजर आ रहा है। ईरान पहले अमेरिकी प्रतिबंधों को हटाए बिना 29 नवंबर को वार्ता पर लौटने पर सहमत हो गया है। इसे शांति की धुंधली सी उम्मीद माना जा सकता है।
और अमेरिकी अधिकारियों ने हाल ही में तेहरान के साथ कूटनीति के संभावित चैनलों पर चर्चा करने के लिए सऊदी अरब में फारस की खाड़ी के देशों के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। जेसीपीओए के तहत प्रतिबंध हटने के बाद उन्होंने गहन आर्थिक संबंधों पर भी चर्चा की।
इस तरह की आशावादी घोषणा से पता चलता है कि अमेरिकी नीति निर्माता कम से कम सकारात्मक परिणाम और वार्ता से आगे बढ़ने की संभावना तलाश रहे हैं।
(बेन रिच, इतिहास और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में वरिष्ठ व्याख्याता, कर्टिन विश्वविद्यालय और लीना एडेल, पीएचडी छात्र, राजनीति विज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कर्टिन विश्वविद्यालय)
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