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अफगानिस्तान में भारत के विकल्प

लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा (सेवानिवृत्त)
शुक्र, 17 सितम्बर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

यूएस सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी की एक छोटी ऑपरेटिव टीम 26 सितंबर 2001 को अफगानिस्तान की पंजशीर घाटी  में पहुंची।  गैरी श्रोएन की पुस्तक ‘फर्स्ट इन’ के अनुसार, इस सैन्य टुकड़ी ने अफगनिस्तांन में अमेरिकी युद्ध के लिए मंच तैयार किया। उत्तरी गठबंधन की सेनाओं ने मुख्य रूप से जमीनी लड़ाई का नेतृत्व किया, जबकि अमेरिकी वायु सेना ने हवाई सहायता प्रदान की।

7 अक्टूबर 2001 को अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर तालिबान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। मध्यकालीन और आधुनिक युद्ध प्रणाली के मिश्रण से बी-1 और बी-52 बमवर्षकों ने, वाहक-आधारित एफ/ए-18 लड़ाकू-बमवर्षकों के साथ, तालिबान पर हमला किया, जिसे नॉर्दर्न एलायंस के सैनिकों ने पूरा किया। 12 नवंबर 2001 को तालिबानी अंधेरे की आड़ में काबुल से बाहर निकल गये, जिससे उत्तरी अफगानिस्तान में अफगानी सेना ने सरेंडर कर दिया।

बीस वर्ष पश्चात, दृश्य पलट गया। 6 अगस्त 2021 से अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों ने बिना किसी लड़ाई के एक के बाद एक प्रांतीय राजधानीयों को छोड़ दिया। फिर, जैसे ही तालिबान ने १५ अगस्त २०२१ को काबुल में प्रवेश किया, हेलीकॉप्टर अमेरिकी दूतावास से हवाई अड्डे की ओर दौड़ पड़े, जहां देश से राजनयिकों और सैनिकों को निकालने के लिए उड़ानें इंतजार कर रही थीं। अंतिम झटका एक आत्मघाती बम विस्फोट था, जिसमें 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए थे, यह 2011 के बाद से एक दिन में मारे गये लोगों की सबसे बड़ी संख्या है और 2020 में अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य मौतों की कुल संख्या से अधिक है।

अफगानिस्तान में कोई आधिकारिक उपस्थिति न होने के कारण भारतीय दूतावास को पूरी तरह से खाली करा लिया गया है। आज सभी क्षेत्रीय देशों में से भारत, अफगानिस्तान की घटनाओं और इस क्षेत्र में बड़े नतीजों की कम संभावना के कारण पीछे हट गया है। इससे कुछ रणनीतिक विशेषज्ञों और पूर्व राजनयिकों ने आह्वान किया और कहा कि इसके  पूर्व की  हम अफगानिस्तान में अपने रणनीतिक स्थान को पाकिस्तान और चीन को पूरी तरह से सौंप दें, हमें तालिबान शासन के साथ तत्काल  संपर्क स्थपित करना चाहिए। कुछ अन्य ने अधिक सतर्क रहने का प्रस्ताव दिया। उनके अनुसार इस बात का दीर्घकालिक निरीक्षण करना होगा कि भारत अफगानिस्तान के साथ अपने 20 वर्षो के सकारात्मक जुड़ाव का लाभ कैसे उठा सकता है।

अफगानिस्तान के संबंध में भारतीय रणनीति पर निर्णय लेने से पूर्व, तालिबान के साथ किसी भी प्रकार की भागीदारी के लिए स्थिति और हमारे उद्देश्यों का स्पष्ट आकलन करना आवश्यक है। हमें अपनी भू-रणनीतिक सीमाओं को भी समझना होगा तथा इस बात पर  विश्वास नहीं करना चाहिए कि तालिबान 2.0 भारतीय चिंताओं के प्रति संवेदनशील होगा।

तालिबान की नई सरकार के गठन से दो स्पष्ट संदेश हैं। पहला यह कि तालिबान पर कट्टरपंथी संगठनों की वैचारिक स्थिति हावी रहेगी। एक ‘समावेशी’ सरकार के वैश्विक आह्वान के बावजूद, सभी पुरुषों वाली कैबिनेट में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आतंकवाद की काली सूची के कम से कम 14 सदस्य शामिल हैं। तालिबान के प्रवक्ता सैयद हाशिमी ने कहा, “एक महिला मंत्री नहीं हो सकती; यह ऐसा है जैसे आप उसके उपर कुछ ऐसा बोझ डाल रहे हो जो वह उठा नहीं सकती। किसी महिला का कैबिनेट में होना जरूरी नहीं है, उन्हें  केवल बच्चों को जन्म देना चाहिए।”

दूसरा संदेश यह है कि पाकिस्तान की अदृश्य  सत्ता तालिबान नेतृत्व पर अपना अत्यधिक प्रभाव बनाए रखेगी। सितंबर 2011 में, हक्कानी नेटवर्क द्वारा काबुल में अमेरिकी दूतावास पर 20 घंटे के हमले के पश्चात्, अमेरिका की चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के तत्कालीन  संयुक्त अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन ने कांग्रेस के सामने गवाही दी कि हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान  की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आई एस आई) की एक वास्तविक शाखा के रूप में कार्य करता है। इस शाखा का नेता सिराजुद्दीन हक्कानी, जो एफबीआई की मोस्ट वांटेड सूची में एक आतंकवादी है, अब अफगानिस्तान का आंतरिक मंत्री है। तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव तब स्पष्ट हुआ जब आईएसआई प्रमुख सिराजुद्दीन एक महत्वपूर्ण पद सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट की घोषणा से दो दिन पूर्व काबुल पहुंचे।

एक अन्य वास्तविकता यह है कि तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों के साथ अपने संबंध नहीं तोड़े हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को प्रस्तुत की गयी एनालिटिकल सपोर्ट एंड सेंक्शन मॉनिटरिंग टीम की मई 2021 की रिपोर्ट में कहा गया है, “भारतीय उपमहाद्वीप में अल-कायदा तालिबान की छत्रछाया में काम करता है। यह समूह  इस तरह के “ऑर्गेनिक” या विद्रोह का ऐसा अनिवार्य हिस्सा है जिसे अपने तालिबानी सहयोगियों से अलग करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य होगा।”

मॉनिटरिंग टीम की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, “जैश-ए-मोहम्मद (जेइएम) और लश्कर-ए-तैयबा(एलईटी) अफगानिस्तान में आतंकवादी लड़ाकों की तस्करी करते हैं, जो तात्कालिक विस्फोटक उपकरणों में सलाहकार, प्रशिक्षकों और विशेषज्ञों के रूप में कार्य करते हैं। दोनों समूह सरकारी अधिकारियों और अन्य लोगों के विरुद्ध लक्षित हत्याओं को अंजाम देते  हैं।

एक उत्साहित पाकिस्तान और विजयी आतंकवादी समूह दोनों ही भारत के लिए एक संभावित सुरक्षा चुनौती हैं। इस चुनौती का मुकाबला करना भारत का प्राथमिक उद्देश्य होना चाहिए।

तालिबान को यह स्पष्ट  कर देना  चाहिए कि भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने  वाले समूहों  को किसी भी प्रकार का  समर्थन पूरी तरह से अस्वीकार्य है। भारतीय नागरिकों की सुरक्षा सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी है और  इस सुरक्षा के लिए जो भी खतरा है, वह अस्वीकार्य है। तालिबान के साथ भविष्य में कोई भी जुड़ाव इस लक्ष्मणरेखा को पार न करने पर निर्भर होगा।

पाकिस्तान इस कथन को  बढ़ावा दे रहा है कि अगर विश्व तालिबान के साथ नहीं जुड़ता, तो इससे मानवीय संकट और अराजकता पैदा होने की संभावना है, जिससे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों का पुनरुत्थान हो सकता है। यह उस तर्क के समान है जिसका उपयोग इस्लामाबाद पश्चिम को समझाने के लिए करता रहा है कि पाकिस्तान को, आतंकवादी संगठनों के साथ गठबंधन के बावजूद समर्थन दिया जाना चाहिए, क्योंकि राज्य की विफलता के परिणामस्वरूप अराजकता पैदा होगी और आतंकवादियों द्वारा परमाणु हथियारों का संभावित अधिग्रहण होगा।

अफगानिस्तान में मानवीय संकट के खतरे को टाला जाना आवश्यक है, परंतु यह एक वैश्विक और क्षेत्रीय प्रयास होना चाहिए, जिसमें भारत की बराबर की हिस्सेदारी हो। इससे आगे की स्थिति तालिबान की सकारात्मक कार्रवाइयों पर निर्भर  होंगी । अफगानिस्तान में आतंकवाद का पुनरुत्थान अंतरराष्ट्रीय जुड़ाव की कमी के कारण नहीं, अपितु तालिबान की महिलाओं, अल्पसंख्यकों को दबाने की नीतियों और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों पर नकेल कसने की अक्षमता के कारण होगा।

आंतरिक रूप से, भारत को जम्मू और कश्मीर की समस्या का दीर्घकालिक समाधान खोजने के लिए अधिक तत्परता दिखानी चाहिए। वर्तमान में एक सुसंगत रणनीति के बहुत कम प्रमाण मिले है जो स्थानीय आबादी की आकांक्षाओं से संबंधित हो। तालिबान की जीत ने आतंकवादी समूहों को मनोवैज्ञानिक आधार पर बढ़ावा दिया है, तथा लश्कर और जेईएम कश्मीर में घुसपैठ के अपने प्रयासों को तेज कर सकते हैं। सीमा पर मजबूती से टिके रहने के साथ साथ,  परस्पर अलगाव की स्थिति को दूर करने के लिए लोगों तक अधिक पहुंच बनाना आवश्यक है।

अफगानिस्तान में उभरती स्थिति ने भारत  की सुरक्षा चुनौतियों को बढ़ा दिया है। वर्तमान में  हमारी मुख्य चिंता यही होनी चाहिए और तालिबान को यह स्पष्ट रूप से जता दिया जाना चाहिए कि आतंकवादी समूहों द्वारा अफगान क्षेत्र का भारत के विरुद्ध उपयोग करने की अनुमति नहीं देने की अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करने के उपरांत ही तालिबान के साथ आगे कोई भी जुड़ाव होने का निर्णय लिया जाएगा। ऐसी स्थिति में जम्मू और कश्मीर के लिए एक ऐसी रणनीति तैयार करनी होगी जो लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को प्राथमिकता दे।

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लेखक
लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा, पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, वीएसएम और बार, एडीसी (सेवानिवृत्त) भारतीय सेना की उत्तरी कमान के पूर्व जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ हैं। वह वर्तमान में दिल्ली पुलिस ग्रुप में सीनियर फेलो हैं।

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POST COMMENTS (3)

arvind

सितम्बर 30, 2021
balanced view

Shailendra

सितम्बर 19, 2021
इतना लंबा लिखो की आप कन्फ्यूज हो और अस्पष्ट हो इसका पता लगाते खुद ही कन्फ्यूज हो जाए, जय हिंद, वंदे मातरम् ।

sk dave

सितम्बर 18, 2021
💯

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