पाकिस्तान की राजनीति में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उनका नेता जितना मजबूत दिखाई देता है, उतना ही वह कमजोर हो जाता है। साथ ही नेता जितना कमजोर दिखता है, उसकी सरकार उतनी ही स्थिर हो जाती है। क्योंकि ऐसा नेता बाद में किसी के लिए खतरा नहीं होता। अपनी सत्ता बचाये रखने के लिए वह समझौता करता रहता है। अतः उससे छुटकारा पाने की तात्कालिकता समाप्त हो जाती है, जो कभी भी समाप्त किया जा सकता है, क्योंकि वह कमजोर है। पहले वर्ग में सत्ता के अहंकार में नेता ऐसे कदम उठा लेते है, जो उसके विरोधियों को नाराज कर देते हैं। अपने निजी और राजनीतिक अस्तित्व को बचाये रखने के लिए वह विपक्ष को लड़ने अथवा बैक फुट पर आने के लिए मजबूर कर देता है। प्राय इसका अभिप्राय सरकार गिराने के लिए ‘सैन्य प्रतिष्ठान’ के साथ षडयंत्र करना है। पाकिस्तानी राजनीति का यह सशक्त नियम एक बार फिर से प्रकट हो रहा है।
अभी कुछ सप्ताह पूर्व ही, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इमरान खान ने अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत कर ली है। उनकी पार्टी ने पाकिस्तान के कब्जे वाले लद्दाख (गिलगित बाल्टिस्तान) एवं जम्मू-कश्मीर (पीओजेके) में जीत दर्ज कर ली। इन जीत के पश्चात उसने सियालकोट में अपने मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पीएमएलएन से उपचुनाव में जीत हासिल की। इस सब में सेना उनका पूरा समर्थन करती नजर आई। विपक्ष असमंजस में था। बहुप्रचारित पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) अपना प्रभाव खो चुका था और पीपीपी और एएनपी विपक्षी मोर्चे से अलग हो गए थे। मुख्य विपक्षी दल पीएमएलएन शाहबाज शरीफ तथा भीड़ खींचने वाली उनकी करिश्माई भतीजी मरियम और नवाज शरीफ के बीच आंतरिक मतभेद हो गये हैं। क्लासिक फासीवादी रणनीति का उपयोग करते हुए, इमरान खान ने विपक्षी नेताओं के विरुद्ध फर्जी मामले आरंभ करके और उनमें से अनेक को कारावास देकर आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया ।
इस बीच, उन्होंने और उनके साथियों ने नेशनल असेंबली के माध्यम से अनेक विवादास्पद कानूनों के माध्यम से संवैधानिक और राजनीतिक औचित्य को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। यह जानकारी होने के बाद भी कि चुनावी सुधारों पर कोई आम सहमति नहीं थी, ‘चयनित’ शासन ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) उपलब्ध करवाने में अत्यधिक फुर्ती दिखायी, जिस के बाद विपक्ष ने आरोप लगाया कि यह अगले चुनावों को वैज्ञानिक रूप से चुराने की एक चाल है। यद्यपि पाकिस्तानी मीडिया शासन का मुखोटा बनकर रह गया था, परंतु इमरान खान और उनके अनुयायी संतुष्ट नहीं थे। मीडिया को पूरी तरह से नियंत्रित करने के लिए, उन्होंने एक नये मीडिया नियामक प्राधिकरण की दिशा में काम किया, जो पहले से ही उनके चापलूस मीडिया को प्रभावी रूप से पीटीवी क्लोन बना देगा। न्यायपालिका पर भी हमले हुए, विशेषकर उच्च न्यायालयों के असंतुष्ट न्यायाधीशों पर यह हमले हुए हैं। भले ही भावी मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध सरकार द्वारा दायर याचिका अस्वीकृत हो गयी थी, फिर भी शासन न्यायाधीश को निशाना बनाने में लगा रहा। चुनाव आयोग और उसके प्रमुख भी शासन के मंत्रियों के विरुद्ध थे।
कई अनुभवी पर्यवेक्षकों ने एक साथ इतने मोर्चे खोलने की समझदारी पर प्रश्न चिन्ह लगाया । लेकिन यह चिकने घड़े की भाँति ही था। इमरान खान ने अनुभव किया कि, उसे सेना के आला अधिकारियों का पूरा समर्थन प्राप्त है, उनके पास वास्तव में इसके अतिरिक्त कोई अन्य राजनीतिक विकल्प नहीं था। जब तक जनरल उनका समर्थन करते हैं तब तक इमरान खान हत्या से बचे रहेंगे। सेना के लिए एक व्यवहार्य घरेलू राजनीतिक विकल्प की कमी के अतिरिक्त एक अन्य चिंता बाहरी परिस्थितियाँ भी थी। अफगानिस्तान में अंतिम खेल शुरू हो गया और अब सेना को अपने घरेलू राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है, जो इमरान के लिए उपयुक्त होगा। तालिबान द्वारा काबुल पर तेजी से किये गए कब्जे को भी इमरान खान की सफलता के दावे के रूप में प्रस्तुत किया गया। अत्यधिक चाटुकारिता का प्रदर्शन करते हुए, पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अफगानिस्तान के संबंध में उनकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के लिए दुनियां के नेताओं को इमरान खान के शिष्य और भक्त बनने के लिए कहा। तालिबान की जीत पर पाकिस्तान के भीतर विजय के जश्न के बाद यह चर्चा हो रही है कि अब पाकिस्तान वैश्विक अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में किस प्रकार से उभरेगा।
अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि इमरान खान अपराजित हैं, परंतु इस प्रकार की अफवाहें भी उड़ी कि वह इस कदर प्रसन्न हैं कि निर्धारित समय से एक साल पहले ही चुनाव कराने पर विचार कर रहे हैं। चीजें अब स्पष्ट होने लगीं हैं। इमरान खान द्वारा खोले गए सभी मोर्चे लगभग एक साथ असफल हो गए। विपक्ष के अचानक से एकजुट होने और संयुक्त कार्यवाही करने के कुछ संकेत दिखाई दिये हैं।
परिस्थितियाँ जल्द ही उस बिंदु पर पहुंच गई है जहां कुछ करना होगा। पीडीएम को पुनर्जीवित किया गया है, यद्यपि उसकी स्थिति सिंध के बाहर काफी अप्रासंगिक है। सिंध में जिस तरह से इमरान की पार्टी ने पीपीपी को निशाना बनाया, उससे उसकी हैकड़ी बढ़ गई है। इस बीच सैन्य प्रतिष्ठान के प्रति नवाज शरीफ और उनके पीएमएलएन के रुख में नरमी दिखाई दे रही है। छावनी बोर्ड के चुनाव, जिसमें इमरान खान को पंजाब में हार का सामना करना पड़ा, को उस प्रांत में व्याप्त भावना के बैरोमीटर के रूप में देखा जाता है, जो पाकिस्तान का ‘नियंत्रक प्राधिकरण’ है। चुनाव आयोग ने भी अगले चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल से धांधली करने की फासीवादी सरकार की योजनाओं पर तंज कसा है। चुनाव आयोग को अपने साथियों के साथ ढेर करने के सरकार के प्रयास, और निंदनीय भ्रष्टाचार विरोधी ज़ार (जिसे नैतिक और आर्थिक रूप से भ्रष्ट और राजनीतिक रूप से शासन के साथ गठबंधन के रूप में देखा जाता है) को विस्तार देने के प्रयास भी बहुत बेचैनी पैदा कर रहे हैं। मीडिया जो फासीवादी शासन के हर आदेश को स्वीकार करने में काफी सहज थी, उसे एक ऐसे बिंदु पर धकेल दिया गया है। जहां से वह वापस लौट रही है।
पिछले सप्ताह दो दिनों तक, पाकिस्तानी मीडिया , सभी प्रस्तावित मीडिया नियमों के विरुद्ध संसद के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। यहां तक कि जिन पत्रकारों को इमरान शासन के गुंडे के रूप में देखा जाता था, वे भी सरकार द्वारा मीडिया को नियंत्रित करने के प्रयासों का विरोध करते देखे गए। कानूनी समुदाय से एक और शक्तिशाली चुनौती सामने आ रही है। वकील न्यायपालिका से अपने पसंदीदा व्यक्तियों के लिए उन्हें हटाने के प्रयासों के खिलाफ सरकार और उच्च न्यायालयों के कई न्यायाधीशों से बेहद नाराज हैं। सिविल सेवा में शासन और उसके साथियों के भारी कुप्रबंधन के कारण असंतोष पैदा हो रहा है, क्योंकि शीर्ष अधिकारियों का स्थानान्तरण ऐसे हो रहा है, जैसे लोग कपड़े बदलते हैं। आश्चर्य की बात है कि प्रशासन पूरी तरह से तटस्थ है, कोई निर्णय नहीं लिया जा रहा है, कोई योजना नहीं बन रही और हर कोई केवल अपना समय बिता रहा है। मंत्रियों की मनमानी के कारण व्यापार भी बाधित हैं, क्योंकि सरकार ने अनियंत्रित मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रयासों में व्यापारियों को आरोपित करने और उनपर जुर्माना लगाने का लक्ष्य अधिकारियों के लिए निर्धारित कर दिया है ।
अर्थव्यवस्था एक बार फिर गंभीरसंकट में है। व्यापार घाटा बढ़ रहा है और देश भविष्य में भुगतान संतुलन के एक और संकट को देख रहा है। पाकिस्तानी रुपया गिर रहा है। जो पिछले 4 महीनों में लगभग 152 डॉलर से गिरकर 170 पर आ गया है। सरकार ने रुपये को स्थिर करने के लिए 5 अरब डॉलर से अधिक की बिक्री की है, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ । महंगाई आम लोगों के जीवन को असंभव बना रही है। खाद्य पदार्थो की महंगाई दोगुना हो गयी है। ऊर्जा मूल्य बढ़ रहे हैं। रोजगार नहीं हैं। अब तक आईएमएफ ने अपने कार्यक्रम को बहाल नहीं किया है जिससे बाजार में अनिश्चितता और अधिक बढ़ रही है।
अफगानिस्तान में प्रतीत होने वाली जीत में उपरोक्त सब भी शामिल है जबकि पाकिस्तानियों ने अपने तालिबान प्रतिरूप का उपयोग करके अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की, इसने पाकिस्तान के लिए समस्याओं को और बढ़ा दिया है। पश्तून बेल्ट में आतंकवाद चरम पर है, जबकि इससे पंजाब को नुकसान नहीं पहुंचेगा (जो कि पाकिस्तानी शासकों के लिए मायने रखता है)। अफगानिस्तान के लिए अब पहले से ही आर्थिक रूप से कमजोर पाकिस्तान एक बड़ा मार्ग है। अफगानिस्तान में बैंकिंग प्रणाली ध्वस्त हो जाने के कारण अफगानिस्तान के अधिकांश आयात अब पाकिस्तान के माध्यम से होंगे। इसी प्रकार अफगानों द्वारा की जाने वाली डॉलर की मांग से पाकिस्तानी रुपये पर दबाव पड़ेगा क्योंकि अब पाकिस्तान से अफगानिस्तान में डॉलर की तस्करी होगी। वहाँ के शरणार्थियों के संकट के कारण अफगानिस्तान में खाद्य पदार्थों और अन्य सामग्री की आवश्यकता होगी, जिससे पाकिस्तान के अंदर इनकी कमी हो जायेगी।
यदि यह सब काफी नहीं है तो ऐसी आशंकाएं भी हैं कि पाकिस्तान को जल्द ही प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है, या कम से कम अमेरिका और उसके सहयोगियों से आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है। जबकि सैन्य प्रतिष्ठान इसके प्रति नरम रुख दिखाने की कोशिश कर रहा है, परंतु इमरान खान का अहंकार एवं बुरा व्यवाहर मामलों में मदद नहीं कर रहा है। वह और उनके मंत्री अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों पर कटाक्ष करते रहे हैं, उनका मजाक उड़ा रहे हैं, यहां तक कि उनके प्रति दुस्साहस भी कर रहे हैं। पाकिस्तानी विश्लेषक चेतावनी देते आ रहे हैं कि पश्चिम में मिजाज काफी खराब है और पाकिस्तान के प्रति सहनशीलता बहुत कम हो रही है। यूरोपीय संघ ने पाकिस्तान को जो जीएसपी+ दर्जा दिया था, उसमें विस्तार पर पहले से ही संदेह व्यक्त किया जा रहा है। अगर यह दर्जा वापस ले लिया गया तो पाकिस्तान के निर्यात पर बड़ा असर पड़ेगा। यह भावना भी बढ़ रही है कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) में पाकिस्तान के नाकाम होने की संभावना है। विदेशी निवेश कम हो गया है, और घरेलू निवेश वस्तुतः न के बराबर है।
सभी स्तरों पर चुने हुए शासन के खिलाफ एक तूफान तैयार हो रहा है। क्या उसकी रासपुतिन-ईश पत्नी के सम्मोहित करने के ‘मंत्र’ असंतोष की सर्दी से उसे बचा पाएंगे? क्या सेना इमरान खान के समर्थन की दोबारा समीक्षा करेगी और उसे हटा देगी? क्या बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव इस बात का पहला संकेत है कि सेना अब इस विनाशकारी शासन से पल्ला झाड़ रही है, जिसे उसने पाकिस्तान के लोगों पर थोप दिया था? अतीत में, इस्लामाबाद में परिवर्तन हमेशा क्वेटा के माध्यम से आया । क्या इस बार कुछ अलग होगा? अथवा वो तूफ़ान जिसकी हर कोई उम्मीद कर रहा है, वह केवल राई का पहाड़ है? इन प्रश्नों के उत्तर अगले कुछ हफ्तों में स्पष्ट हो जाएंगे।
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