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कब तक टिक पायेगा तालिबान!

कर्नल दीपक कुमार
शुक्र, 29 अक्टूबर 2021   |   8 मिनट में पढ़ें

अगस्त की शुरुआत से अफगानिस्तान में प्रांतीय राजधानियों पर बिजली की तेज गति से  कब्ज़ा होता गया,  जिसने अगस्त 2021 के मध्य तक तालिबान लड़ाकों को काबुल तक पहुंचा दिया। विभिन्न सुरक्षा विश्लेषकों और पश्चिमी खुफिया एजेंसियों की सभी भविष्यवाणियों को मजबूती दे दी- जिन्होंने काबुल की सरकार के छह महीनों के  भीतर गिर जाने की भविष्यवाणी की थी। जिहादी आंदोलन दुनिया के आकर्षण का एक केंद्र बन गये। पाकिस्तानी आईएसआई की विचार धारा और उनके मीडिया प्रबंधन में प्रशिक्षित  तालिबान 2. 0 ने पूर्ववर्ती सरकारों के साथ काम करने वालों के लिए आम माफ़ी की घोषणा की, अन्य देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों के लिए अफगान धरती का इस्तेमाल नहीं करने का वादा किया और महिलाओं को इस्लामी कानून के अनुसार शासन में भाग लेने की अनुमति देने की घोषणा की।

हालाँकि, तालिबान शासन के बारे में अधिक जानकारी मिलने के बाद पता चला कि इन वादों को निभाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसमें यदि कोई संदेह रह गया गया था, तो तालिबान ने अपने मंत्रिमंडल के लिए नामों की घोषणा से उसे पूरा कर दिया – जहाँ जातीय अल्पसंख्यकों का बहुत कम प्रतिनिधित्व था, जबकि पश्तूनों का प्रभुत्व था,  इसके मंत्रीमंडल में कोई महिला शामिल नहीं थी। अधिक महत्वपूर्ण मंत्रालयों को कट्टरपंथियों ने हड़प लिया। अब्दुल गनी बरादर जैसे अपेक्षाकृत उदारवादी को दरकिनार कर दिया गया।  तालिबान ने अपनी सरकार का उदघाटन 9/11 की 20वीं बरसी पर करने का फैसला किया, जो स्पष्ट रूप से अमेरिका की अवमानना करने के लिए था। हालांकि बाद में इस फैसले को  बदल दिया गया।

विश्लेषकों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या तालिबान 2.0  कायम रहेगा और यदि हां, तो कब तक? तालिबान शासन की स्थिरता तीन बुनियादी कारकों पर निर्भर करेगी- पहला, उस क्षेत्र के भीतर सुरक्षा की स्थिति जिसे वह नियंत्रित करता है।  दूसरा, क्या वह अपने शासन में आर्थिक स्थिरता प्रदान कर सकता है और तीसरा, क्या वो अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कर पायेगा। तालिबान शासन के लिए आर्थिक स्थिरता, अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और शासन के लिए सुरक्षा की स्थिति सबसे महत्वपूर्ण कारक है, हालांकि स्वयम् का शासन होना एक निर्णायक तत्व नहीं है, यह खराब शासन हो सकता है और इससे राज्य में अन्य देशों के लोगों पर दबाव हो सकता है।

तालिबान एक  मजबूत स्तंभ या वर्गीकृत संगठन नहीं है; बल्कि यह विभिन्न सशस्त्र समूहों का मेल है, जो एक जैसी इस्लामी महत्वाकांक्षाओं को साझा करते हैं। इसकी   सहायक सेना में अनेक जातीय सरदार हैं; सिपहसलार का महत्व, सेना में उनके लड़ाकुओं की संख्या के अनुपात से होता है। इसके पास हक्कानी नेटवर्क भी है जो आईएसआई के नियंत्रण में है और साथ ही ऐसे तत्व भी हैं जो पहले अल कायदा और आईएसकेपी के पास  थे। हालांकि तालिबान ने अल कायदा के साथ सभी संबंध तोड़ने का दावा किया है, लेकिन साझा इस्लामी विचारधारा के आधार पर  यह संबंध अभी भी मौजूद हैं।

तालिबान के रैंकों में कई विदेशी लड़ाके भी हैं और  उन्हें अभी पता  नहीं है कि उन लड़ाकों को  उनके देशों में वापस कैसे भेजा जाए। क्षेत्र के बड़े हिस्से पर कब्जा करने के बाद, बोरियत शुरू हो जाएगी और आर्थिक स्थितियों के कारण मिलिशिया नेताओं को बहुत कम  वित्तीय लाभ और करने को  बहुत कम काम होगा। एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए और तालिबान के भीतर प्रमुख स्थान एवं शक्ति हासिल करने के लिए इन गुटों में आपसी लड़ाई से इंकार नहीं किया जा सकता।

आईएसकेपी द्वारा हाल ही में किए गए हमले- तालिबान का एक अधिक उग्र संस्करण, कुंदुज में एक शिया मस्जिद पर 100 से अधिक लोगों की हत्या से गृहयुद्ध शुरू होने की संभावना है। आईएसकेपी शिया को विधर्मी और तालिबान को पर्याप्त रूप से कट्टरपंथी नहीं मानता है। आईएसकेपी हमलों से चुनौतियाँ पहले ही बढ़ चुकी हैं और अगर इससे निपटा नहीं गया तो सुरक्षा की स्थिति अनिश्चित हो जाएगी।

तालिबान मुख्य रूप से सुन्नी समूह है, इस कारण कुछ लड़ाके और मिलिशिया नेता  शियाओं से घृणा करते हैं और हजारा समुदाय के शियाओं पर हमले जारी रखते हैं। शियाओं के खिलाफ इन तत्वों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसक प्रतिशोध या आईएसकेपी की विचारधारा पर चलने की संभावना बनी हुई है। यहां ईरान-जिसका न केवल हजारा समुदाय के साथ जातीय संबंध हैं, बल्कि  इसका अफगानिस्तान के साथ हेलमंद नदी जल बंटवारा विवाद भी सामने आ सकता है। यह फातेमीयुन मिलिशिया के अलावा, हजारा समुदाय के एक अन्य शिया मिलिशिया समूहों को आगे बढ़ा सकता है,  जिससे सुरक्षा स्थिति  अस्थिर हो सकती है, क्योंकि तालिबान हजाराओं के खिलाफ अपने प्रतिशोध में असाधारण रूप से क्रूर रहा है।

इसी तरह, ताजिकिस्तान के साथ संबंध-जिसमें अफगान ताजिकों के  साथ खून के संबंध हैं- और जो अफगान आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा हैं- तालिबान के उदय के बाद से  तालिबान के साथ उनके संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। हाल के सप्ताहों में, ताजिक और तालिबान के अधिकारियों ने एक समावेशी और प्रतिनिधित्व वाली सरकार के अपने वादे को पूरा नहीं करने के संबंध में कटु वचनों का आदान -प्रदान किया । 23 सितंबर को ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति इमामोली रहमोन ने संयुक्त राष्ट्र में कहा कि तालिबान, जिसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा एक आतंकवादी समूह के रूप में सूचीबद्ध किया गया था,  उसकी शक्ति में वृद्धि ने इस क्षेत्र की पहले से ही जटिल भू-राजनीतिक प्रक्रिया को और जटिल  बना दिया था। यदि दोनों पड़ोसियों के बीच संबंध बिगड़ते हैं, तो ताजिकिस्तान से और अधिक हस्तक्षेप की उम्मीद भी की जा सकती है।

जबकि उज्बेकिस्तान के भी अफगान लोगों के साथ खून के संबंध हैं और वे बल्ख प्रांत के साथ सीमा साझा करते हैं, इसने दलदल में शामिल नहीं होने का आह्वान किया है और  रूस के सीएसटीओ नेता  के मार्ग  का पालन करने का फैसला किया है। नॉर्दर्न एलायंस के लड़ाकों ने फिर से संगठित होकर अमरुल्ला सालेह को कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में मान्यता दी है। पश्चिम के साथ-साथ सालेह के ताजिकिस्तान में भी कई प्रशंसक हैं। कहा जाता है कि सालेह पंजशीर में है, लेकिन वह ताजिकिस्तान में हो सकता है। यदि यह समूह ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान से अधिक समर्थन प्राप्त कर सकता है, तो वे तालिबान के लिए एक प्रबल खतरा हो सकते हैं।

पश्चिमी शक्तियों द्वारा विदेशी सहायता पर रोक लगाने के बाद अफगानिस्तान एक भयंकर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी तालिबान द्वारा आक्रमण के कारण भुगतान रोक दिया है। अफगान सेंट्रल बैंक के लगभग 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर को भी पश्चिमी शक्तियों द्वारा फ्रीज कर दिया गया था। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि आधारित है, लेकिन यह सकल घरेलू उत्पाद के 30 प्रतिशत से भी कम है; इसका 70 प्रतिशत पश्चिमी स्रोतों से प्राप्त सहायता पर आधारित है।

तालिबान खसखस ​​की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था चलाता है, लेकिन यह सरकारी खजाने में केवल एक छोटा सा योगदान प्रदान कर सकता है। जबकि पश्चिमी दानदाताओं ने सहायता में 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का वादा किया है। लेकिन उन्होंने  इसमें हिचकिचाहट के साथ-साथ इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि तालिबान शासन के तहत सहायता का उपयोग कैसे होगा और सहायता कर्मियों की सुरक्षा कैसे की जायेगी। आर्थिक सहायता की आमद तालिबान शासन को परोक्ष रूप से मान्यता देने के समान होगी।

जब तक तालिबान मानवाधिकार, सुरक्षा और अल्पसंख्यकों की समानता के वैश्विक मानकों के लिए प्रतिबद्ध नहीं हो जाता, तब तक अधिकांश अंतरराष्ट्रीय शक्तियां तालिबान को मान्यता  नहीं देंगी। अतः इसकी अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को समाप्त करना, सुरक्षा स्थिति और तालिबान शासन की मान्यता पर निर्भर करता है। फिर, तालिबान के लिए हजारों युवाओं को रोजगार देना और अपने अन्य हजारों लड़ाकों को उनके खजाने में नकदी के निरंतर प्रवाह के बिना भुगतान करना मुश्किल होगा। इसके अलावा, तालिबान के पास अपने रैंकों  में ऐसे टेक्नोक्रेट की कमी है, जो किसी देश की अर्थव्यवस्था की अत्यंत जटिल प्रक्रियाओं को संचालित कर सके। यह अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक निर्वाह को संदिग्ध बनाता है।

किसी क्षेत्र पर शासन एक साधारण मुद्दा नहीं है। आधुनिक शासन जटिल मुद्दों और प्रक्रिया का एक जाल है ,जिसके लिए पिछड़े, अविकसित राष्ट्र में भी विविध बहु-विषयक कौशल की आवश्यकता होती है। तालिबान के पास शायद ही इनमें से कोई कौशल और क्षमता हो। तालिबान ज्यादा से ज्यादा एक ग्रामीण प्रकार का शासन प्रदान कर सकता है जो 18वीं शताब्दी की याद दिलाता हो। तालिबान के पास  कोई  वरिष्ठ टेक्नोक्रेट नहीं है ,जो नीति बना सके, उसे लागू कर सके और आधुनिक उपकरणों के उपयोग  से उसकी निगरानी कर सके। तालिबान में ऐसा कोई नहीं है जो व्यापक और सूक्ष्म आर्थिक नीति, मौद्रिक और राजकोषीय मुद्दों की बारीकियों को समझता हो; कोई भी व्यक्ति  स्वास्थ्य देखभाल नीति निर्धारित और कार्यान्वित नहीं कर सकता ।

इसके अलावा, बिजली, पानी की आपूर्ति, स्वच्छता, दूरसंचार और विमानन जैसे शासन संबंधी कई अन्य मुद्दे हैं, जिनके बारे में तालिबान को कोई जानकारी नहीं है। अधिकांश अविकसित राष्ट्र जिनपर कड़े प्रतिबंध हैं या जिनकी सुरक्षा स्थिति अस्थिर और खतरनाक है, उन्हें मानव विकास सूचकांक के विभिन्न मैट्रिक्स में सुधार के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से सहायता और अनुदान प्राप्त होता है। हालाँकि, यह  सुरक्षा की स्थिति, बुनियादी मानवाधिकारों से इनकार और अति-रूढ़िवादी इस्लामी  नियमों  के पालन के लिए मजबूर करने, समाज में महिलाओं की भागीदारी को प्रतिबंधित करने के कारण, उसे  दी जाने वाली ऐसी किसी भी अनुदान सहायता पर रोक लगा सकता है। दूसरे, दानदाताओं को इस बात की आशंका भी है कि यह सहायता तालिबान द्वारा हड़पी जा सकती है और जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंचेगी ।

संयुक्त राष्ट्र  द्वारा प्रायोजित डोनर सम्मेलन के दौरान, जर्मन विदेश मंत्री, हेइको मास ने सहायता एजेंसियों की ‘उचित पहुंच’ और सहायता कर्मियों के बारे में चिंता व्यक्त की- जिसमें महिलाएं शामिल  हैं, जो किसी प्रकार के भय और तालिबानी अत्याचार के  बिना अपना काम कर सकें। तालिबान के नए प्रशासन को मान्यता दिए या मजबूत किए बिना अफ़ग़ानी लोगों  में सुधार करना और उनके सामाजिक ,आर्थिक पतन को रोकना  नैतिक दुविधा के साथ-साथ लोकतांत्रिक दुनिया के सामने एक कठिन चुनौती  भी है।

किसी भी राष्ट्र के लिए, आज के अंतर्राष्ट्रीय शासन ढांचे में भाग लेने और वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था से लाभ उठाने के लिए, अपने शासन की वैश्विक मान्यता हासिल करना एक आवश्यक शर्त है। प्रमुख आतंकी गतिविधियों में समर्थन/भागीदारी के पिछले इतिहास और महिला अधिकारों सहित मानवाधिकारों के खराब रिकॉर्ड के कारण अधिकांश देशों ने तालिबान 2.0 को मान्यता नहीं दी है। वैश्विक पहचान हासिल  न कर पाने का अन्य कारण एक समावेशी प्रतिनिधित्व वाली सरकार बनाने में विफलता है, जहां देश के सभी वर्गों और समूहों को जगह मिलती हो।

तालिबान 2.0 में हक्कानी नेटवर्क और अन्य इस्लामी कट्टरपंथियों का दबदबा है। तालिबान का तुलनात्मक रूप से उदार चेहरा- अब्दुल गनी बरादर, जिन्होंने दोहा वार्ता का नेतृत्व किया और जिसे तालिबान 2.0 को एक सुधरा  हुआ और स्वीकार्य धार्मिक चरमपंथी गुट के रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, नई सरकार में उसे एक महत्वपूर्ण भूमिका से  हटा दिया गया है।

पश्चिम के एजेंडे में, समाज के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी और जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों  को समान अधिकार देने को उच्च स्थान दिया गया हैं, जिसे तालिबान मानने को तैयार नहीं है। तालिबान 2.0 को मान्यता देने में यह एक बड़ी बाधा हो सकती है। तालिबान 2.0 के तहत अफ़ग़ानिस्तान  अंतरराष्ट्रीय रूप से परित्यक्त बना रह सकता है – जो इसके नागरिकों की  सुरक्षा स्थिति, गरीबी और बुनियादी सेवाओं से वंचित होने से उत्पन्न होने वाली अत्यधिक कठिनाइयों का कारण बनेगा।

सुरक्षा की  सबसे खराब स्थिति उस चरम बिंदु पर पहुंच सकती है, जहां अमेरिकी हितों पर अफगानी या अफगान समर्थित आतंकवादी समूहों द्वारा हमला किया जाता है। ऐसे परिदृश्य में, जबकि 2001 की  वापसी संभव है, हालांकि दूर स्थान के युद्धों के लिए अमेरिका की   रुचि की कमी के कारण इसकी  अधिक संभावना नहीं है, अमेरिका की इस क्षेत्र में अफगानिस्तान के आतंकी लक्ष्यों  के विरुद्ध भविष्य में तालिबान 2.0 को काबुल से बेदखल करने की अत्यधिक संभावनाएं हैं।

अमेरिका की सबसे बड़ी बाधा, अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों का विरोध  करने वाले अन्य आतंकी गुटो के साथ  तालिबान के संबंध हैं। तालिबान के कई नेता घोषित आतंकवादी है और  अमेरिकी सरकार ने उन पर भारी इनामो की  घोषणा की है।   अब तक, अमेरिका इनामों  की इन घोषणाओ को वापस लेने के लिए तैयार नहीं है। कई पश्चिमी विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि तालिबान, इस्लामिक उम्माह (ग्लोबल इस्लामिक नेशन) में अपने दृढ़ विश्वास और अल कायदा और कई अन्य आतंकवादी समूहों के साथ इसके निरंतर संबंधों को देखते हुए,  जिनके पश्चिम के खिलाफ हिंसक हमले जारी  हैं, और  इनके निरंतर निष्पादन   से अमेरिकी सहयोगी 2014  में ईरान की तरह अफगानिस्तान में अमेरिका को वापसी  के लिए मजबूर कर सकते हैं, भले ही यह छोटे स्तर पर हो।

हालाँकि, अफगानिस्तान और उसके आस पास के क्षेत्रों में बदलती हुई जटिल राजनीतिक वास्तविकताए अमेरिका की अफगानिस्तान वापसी में बाधा बन सकती हैं। रूस और चीन, जो  अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति का  शुरू से ही विरोध करते रहे हैं, अमेरिका की वापसी के प्रयासों को रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसके लिए, चीन और रूस दोनों अपने राजनयिक टूल किट  के सभी साधनों का काबुल के नए शासन में दृढ़ता से  इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें  जातीय  धार्मिक समूहों और समाज के  सभी वर्गों की भागीदारी निश्चित करने के लिए एक  ऐसी  समावेशी सरकार बनायी जाए, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक स्वीकार्य है और जिससे कम से कम कुछ देशों द्वारा मान्यता प्राप्त  की जा सके।

अमेरिका अफगानिस्तान लौटेगा या नहीं या तालिबान शासन कब तक चलेगा, यह  सब जादुई आँख से देखने के समान है, लेकिन अफगानिस्तान की गतिविधियों का भारत की सुरक्षा पर स्पष्ट प्रभाव  होगा- विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के सीमावर्ती क्षेत्रों में यह प्रभाव अधिक होगा। अफगानिस्तान में अपने उदय के बाद से, हजारों तालिबान लड़ाके इस समय इनके प्रभाव में  हैं।

साथ ही, यह तथ्य कि तालिबान पाकिस्तान के  आईएसआई के प्रभाव में है, पाकिस्तान के इन जिहादी कट्टरपंथियों को जम्मू-कश्मीर की ओर मोड़ना बेहद आसान बना देता है। नियंत्रण रेखा पर भारतीय सेना द्वारा किये गए घुसपैठ विरोधी  मजबूत उपायों के बावजूद, पाक अधिकृत कश्मीर में घुसपैठ के प्रयासों में तेजी देखी गई है। साथ ही, पिछले एक महीने में राजनीतिक कार्यकर्ताओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों  के खिलाफ हिंसक हमलों में  अत्यधिक वृद्धि  देखने को मिली है।  निश्चित रूप से भारत के सुरक्षा तंत्र को  सतर्क रहने, शुरुआती संकेतकों पर ध्यान देने और  कड़ी मेहनत से हासिल की गई जम्मू कश्मीर की शांति को बनाए रखने के लिए अपनी प्रतिक्रियाओं को संशोधित  करने और   उनकी जाँच  करते रहने की आवश्यकता है।

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लेखक
कर्नल दीपक कुमार एक सेवारत भारतीय सेना अधिकारी हैं और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक्सीलेंस फाॅर डिफेंस सर्विसेस के अध्यक्ष रहे हैं।

अस्वीकरण

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