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अगले दशक की विदेश नीति

टीपी श्रीनिवासन
रवि, 31 अक्टूबर 2021   |   5 मिनट में पढ़ें

आठ रणनीतिक विचारकों द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट, जिसमें दो पूर्व विदेश सचिव भी शामिल थे, सेंटर ऑफ पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की वेबसाइट पर पोस्ट की गयी। रिपोर्ट का जिसका शीर्षक इंडियाज पाथ टू पावर: स्ट्रैटेजी इन वर्ल्ड एड्रिफ्ट है। इसमें अगले दशक में विदेश नीति में तेजी से बदलाव करने के कई सुझाव दिये गए हैं। यह रिपोर्ट इस बात का स्पष्ट संकेत है कि विदेश नीति पर राष्ट्रीय सहमति के दिन अब समाप्त हो गए हैं। लेकिन यह परिवर्तन विदेश नीति की कमियों के कारण नहीं, बल्कि विदेशों में घरेलू घटनाक्रमों के प्रभाव के कारण  है।

रिपोर्ट के अनुसार, जब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कुछ अधूरे संवेदनशील कामों को निपटाया गया, जो पूरी तरह से घरेलू (अनुच्छेद 370, नागरिकता के मुद्दे और कृषि कानून) थे, तो उनके बाहरी आयामों से इसकी विदेश नीति को चुनौती मिली। पश्चिम में, मानवाधिकारों और भारत में लोकतंत्र की स्थिति के बारे में प्रश्न उठाए गए थे। भारत में विपक्ष ने सरकार की विदेश नीति पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। महामारी के कारण अर्थव्यवस्था में आई मंदी तथा लद्दाख में चीनी घुसपैठ ने सरकार की मुश्किलों को और बढ़ा  दिया।

इन घटनाक्रमों का प्रभाव रिपोर्ट पर दिखाई दिया। “दुनिया पर भारत के प्रभाव का मूल स्रोत इसकी शक्ति है। यह चार स्तंभों, घरेलू आर्थिक विकास, सामाजिक समावेश, राजनीतिक लोकतंत्र और व्यापक उदार संवैधानिक व्यवस्था पर टिकी  है। यदि ये अभिन्न स्तंभ मजबूत बने रहें, तो भारत को कोई रोक नहीं सकता… पिछले एक दशक में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि हम भारत के विकास मॉडल की सफलता की गारंटी नहीं ले सकते… लेकिन भारत के विकास और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव के मूलभूत स्रोत तेजी से बढ़ते दिख रहे हैं। हमें इस बदले हुए दृष्टिकोण का पूरी तरह और स्पष्ट रूप से सामना करना  होगा। भारत की सफलता की नींव को पोषित करने के लिए एक सचेत राजनीतिक प्रयास की जरूरत है, जो पहली रणनीतिक अनिवार्यता है।”

वर्तमान दस्तावेज़, मोदी सरकार की विदेश और रक्षा नीतियों के विकल्प के रूप में है, क्योंकि इसके कुछ सिद्धांतों को महामारी के बाद की दुनिया में भारत के लिए सत्ता का रास्ता खोजने के लिए अनुकूल नहीं माना जा सकता। लेकिन अध्ययन के बाद प्राप्त आठ निष्कर्षों में से कुछ काफी तार्किक और उचित हैं, भले ही पेपर का स्वर आलोचनात्मक है और  इस विषय में सुधार की आवश्यकता है।

उदाहरण के लिए, इस दावे पर कोई मतभेद नहीं है, कि अगला दशक भारत के लिए एक निर्णायक दशक होगा। इसी तरह, यह मानना भी ​​उचित है कि भू-राजनीतिक परिवर्तन  जोखिम भरा है, लेकिन यह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के विस्तार  के लिए जगह भी बनाता है। यह भी स्पष्ट है कि “आत्मनिर्भर” भारत को अधिक लागत की निम्न गुणवत्ता वाली अर्थव्यवस्था की ओर न ले जाए। भारत को चीन और पाकिस्तान की सीमाओं पर घुसपैठ की कार्रवाई  के लिए पर्याप्त संख्या में सैनिकों को तैनात करना चाहिए, जो हमारे विरोधियों द्वारा उठाया गया अधिक लागत का उच्च जोखिम वाला उद्यम है।

यह स्पष्ट है कि भारत के संविधान के अनुसार भारत को महान शक्ति के रूप में देखने के लिए देश का मार्गदर्शक पद बना रहना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि समावेशी नीतियों में लोकतांत्रिक मूल्य परिलक्षित हों। रिपोर्ट मे आशा व्यक्त की गयी है कि भारत अमेरिका, यूरोप और जापान के साथ अपनी साझेदारी का लाभ उठा सकता है और न केवल चीन का मुकाबला करने बल्कि चीन से आगे निकलने के लिए अपनी ताकत का लाभ उठा सकता है जिसे, बिना किसी विवाद के सभी द्वारा साझा किया जाएगा।

मोदी सरकार का पहला कार्यकाल अपनी अभिनव, साहसिक और मुखर विदेश नीति के  कारण उल्लेखनीय रहा, जिसे देश और विदेश में स्वीकृति मिली। पीएम मोदी ने आगे बढ़कर इसका नेतृत्व किया और इतिहास पर बेझिझक काबू पाने का श्रेय लिया। उन्होंने  अपनी प्राथमिकताओं का स्पष्ट रूप से निर्धारण किया और दृढ़ता के साथ उन्हें आगे बढ़ाया। पाकिस्तान के साथ उनकी गैरपरंपरागत शांति पहल विफल होने के बाद, उन्होंने कठोर रुख अपनाया और अपने घर में लोकप्रियता हासिल की। अन्य पड़ोसियों के साथ घनिष्ठ संबंध रखने की उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई, लेकिन कठिन परिस्थितियों में भी उनकी मदद करने के रवैये ने आने वाले किसी भी संकट को टाल दिया। वह भारत-अमेरिका संबंधों में एक नया तालमेल लेकर आए और चीन के साथ एक नये समीकरण की खोज में लगे रहे। इज़राइल और अरब देशों के साथ भारत के अच्छे संबंध बन गए। दूसरे कार्यकाल में श्री मोदी का बढ़ा हुआ बहुमत आंशिक रूप से उनकी विदेश नीति की सफलताओं के कारण था। यहां तक ​​कि विमुद्रीकरण और जीएसटी विवाद भी उनके रास्ते में नहीं आए।

इन परिस्थितियों में, जब पूरी दुनिया में उथल-पुथल है, तब दूसरी मोदी सरकार की आंतरिक नीतियों के कारण उसकी कड़ी आलोचना अनुचित लगती है। “यह महत्वपूर्ण है कि हम उन घरेलू राजनीतिक और वैचारिक कारकों के प्रतिकूल प्रभाव को स्वीकार करें जो हमारी विदेश नीति को चला रहे हैं, “रिपोर्ट पर बल दिया गया है कि वैश्विक संकट के बाद  अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने “सर्वव्यापी भारतीय विदेश नीति” की ओर देखा।

इस रिपोर्ट के मूल आधार को अलग कर दिया जाये, तो इसमें कई सकारात्मक तत्व हैं,  जिनसे नीति निर्माताओं को नीति पर पुनर्विचार करने में मदद मिलेगी। उदाहरण के लिए, यह ठीक कहा गया है कि “भारत के लिए वैश्वीकरण से मुंह मोड़ना गलत और प्रतिकूल होगा।” यह भी सुझाव दिया गया है कि सार्क को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए और भारत को आरसीईपी में फिर से शामिल होना चाहिए और एपेक में सदस्यता के लिए अपने प्रयत्न जारी रखने चाहिए।

यह रिपोर्ट दुनिया की वर्तमान धूमिल और अनिश्चित स्थिति में रणनीतिक स्वायत्तता के महत्व पर भी जोर देती है। जहां तक ​​भारत-अमेरिका-चीन का त्रिकोणीय संबंध है, रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि भारत को अमेरिका और चीन दोनों के साथ अलगअलग अपने संबंधों को बेहतर बनाना चाहिए, उनके एक दूसरे के साथ आपसी संबंधों के आधार पर नहीं

रिपोर्ट में विभिन्न क्षेत्रों और प्रमुख देशों का विस्तृत विश्लेषण हैं, लेकिन सामान्य जोर इस बात पर दिया गया है कि भारतीय विदेश नीति में सब कुछ ठीक नहीं है और वर्तमान स्थिति को ठीक करने के लिए एक मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है। चीन के बारे में, रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया कि चूंकि चीन भारत के राजनीतिक, आर्थिक और ढांचागत रूप को प्रभावित कर सकता है, इसलिए चीन के साथ जुड़ाव और प्रतिस्पर्धा दोनों का संयोजन व्यवहार्य विकल्प नहीं है। वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण इससे बहुत अलग नहीं है। रिपोर्ट में पाकिस्तान नीति की आलोचना निहित है। रिपोर्ट में कहा गया है, “जब तक पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति के उद्देश्य बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं, बातचीत की बहाली और व्यापार, परिवहन और अन्य लिंक के क्रमिक पुनरुद्धार को टालना उचित है।”

रिपोर्ट का एक बड़ा भाग रक्षा, परमाणु सिद्धांत, अंतरिक्ष, साइबर स्पेस और पारिस्थितिक संकट से संबंधित मुद्दों के संबंध में है। पर्यावरण आपदा के संबंध में, रिपोर्ट में कहा गया है, कि चूंकि भारत अभी अपने विकास पथ के प्रारंभिक चरण में है, इसलिए अभी यह ऊर्जा  विकास की प्रणाली में नहीं आता। इसके अधिकांश बुनियादी  ढाँचों का निर्माण अभी बाकी है। “रेट्रो-फिटिंग की कोई बड़ी लागत नहीं है, जैसा औद्योगिक देशों या चीन में है। अधिक गुणवत्ता वाले विकास का एक वैकल्पिक मार्ग संभव है।” दूसरे शब्दों में, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास की वर्तमान रणनीति में सब कुछ ठीक नहीं है।

निश्चित रूप से रिपोर्ट का अगले चुनावों से पहले और आगे विस्तृत अध्ययन किया जायेगा, क्योंकि अगला दशक बदलाव के लिए सुझाई गई समय-सीमा है। इस प्रक्रिया में, रिपोर्ट के कई विवेकपूर्ण सुझावों को स्वीकार किया जा सकता है। रिपोर्ट के आरोप-प्रत्यारोप का फायदा भारत की संप्रभुता और आर्थिक विकास को कमजोर करने वाली ताकतें ही उठाना चाहेंगी।

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लेखक
टीपी श्रीनिवासन भारत के पूर्व राजदूत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। वह वर्तमान में केरल अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के महानिदेशक हैं। उन्हें बहुपक्षीय कूटनीति में लगभग 20 वर्षों का अनुभव है और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रमंडल और एनएएम की ओर से आयोजित कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। उन्होंने कई संयुक्त राष्ट्र समितियों और सम्मेलनों की अध्यक्षता की है।

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