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काबुल में फैज़ हमीद का मिशन थोपना

सुशांत सरीन
गुरु, 09 सितम्बर 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

पाकिस्तान के ख़ुफ़िया प्रमुख, डीजी, आईएसआई, लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद का सार्वजनिक काबुल दौरा पूरे विश्व में कही जाने वाली बात की पुन पुष्टि  करता है कि – तालिबान के तार आबपारा (आईएसआई) के द्वारा संचालित हैं। इससे पाकिस्तानियों द्वारा शेष दुनिया को भेजे जाने वाले –  संदेशों और संकेतों पर भी प्रश्न खड़ा होता  है।

जनरल हमीद, काबुल के एक पांच सितारा होटल की लॉबी में इस तरह अकड़ रहा था, जैसे वह अफगानिस्तान का वाणिज्य दूत हो, ऐसा जान-बूझ कर किया गया था। एक साक्षात्कार के दौरान पत्रकारों को “सब ठीक होगा आप चिंता न  करे” का आश्वासन देते हुए भी वह लापरवाह मुद्रा में थे। अगर आईएसआई प्रमुख चाहते तो काबुल की उनकी यात्रा को गुप्त रखने के लाखों तरीके थे।    परंतु अपना झंडा दिखाने के निर्णय  से पाकिस्तानियों ने घोषणा कर दी  कि वे अब अफगानिस्तान में छद्म रूप से नहीं बल्कि खुले तौर पर सार्वजनिक  रूप से काम करेंगे। यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए एक संदेश था कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में शीर्ष स्थान पर है और तालिबान के साथ संबंध और समानता रखता है। अब कोई भी देश जो तालिबान अथवा अफगानिस्तान से संपर्क चाहता है, उसे पाकिस्तान से होकर गुजरना पड़ेगा।

जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय के संकेत स्पष्ट हैं, वहीं जनरल हमीद के दौरे के वास्तविक उद्देश्य को लेकर भी अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसी चर्चा है कि आईएसआई प्रमुख की यात्रा  का संबंध पंजशीर घाटी पर तालिबान के हमले के साथ जुड़े है। रिपोर्ट यह भी है कि पाकिस्तानी सेना के अधिकारी और अन्य लोग  आक्रामक नेतृत्व कर रहे हैं और पाकिस्तानी वायु सेना के जंगी जहाजों और ड्रोन का इस्तेमाल राष्ट्रीय प्रतिरोध मोर्चा को लक्षित करने के लिए किया जा रहा है, जो कि अग्रिम पंक्ति से हो रहा हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना ​​है कि हमीद संभवत: आक्रामकों का समन्वय कर रहा था। लेकिन इससे अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि डीजी, आईएसआई की तुलना में इस तरह के ऑपरेशनों का संचालन सैन्य निदेशालय या पेशावर कोर द्वारा बेहतर रूप से किया जा सकता था।

एक अन्य संभावना यह व्यक्त की  जा रही है कि हमीद वहाँ अफगान सैन्य और खुफिया सेवा के पुनर्गठन पर चर्चा करने गए थे। रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान तालिबान पर अपनी पकड़ और नियंत्रण को मजबूत करने के लिए बहुत उत्सुक है। तीसरी संभावना यह है कि वह अफगान तालिबान  द्वारा टीटीपी और अन्य आतंकवादी समूहों को पाकिस्तान और अन्य देशों में बंद करने, समाप्त करने तथा  निष्कासित/प्रत्यर्पित करने के लिए उठाये जाने वाले संभावित कदमों के संबंध में चर्चा करने गये थे। परंतु तालिबान के इस पर सहमत होने की संभावना बहुत कम है क्योंकि इससे अफगानिस्तान को एक  बड़ा झटका लग सकता है। साथ ही,  हठी और विद्रोही अफगानों पर तालिबान के नियंत्रण को मजबूत करने के लिए इन समूहों और उनके लड़ाकुओ की आवश्यकता है। अंतिम संभावना यह है कि वास्तव में आईएसआई प्रमुख ने व्यापार और वाणिज्य पर चर्चा करने के लिए  ही काबुल का दौरा किया हो। उस स्थिति में यह पहला खुफिया प्रमुख होगा, जो व्यापारिक गतिविधियों में भी अपनी भूमिका निभा रहा है। जिसकी ऐसे देश में पूर्ण संभावना है जहां मित्र देशों से ऋणों के संबंध में वार्ता करने के लिए सेना प्रमुख, वास्तविक शासक और प्रमुख राजनयिक दोनों का समन्वय होता है। एक अन्य बिंदु जिसकी संभावना अधिक है कि हमीद का यह दौरा इस्लामिक अमीरात में सरकार बनाने की प्रक्रिया में आने वाली रुकावट को दूर करने के संबंध में था। तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा किये जाने के लगभग तीन सप्ताह पश्चात भी अभी तक कोई सरकार नही बन पायी।  कोई नहीं जानता कि नई सरकार का स्वरूप क्या होगा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सरकार की नयी प्रणाली क्या होगी? इस्लामिक अमीरात का वैधानिक और संविधानगत प्रारूप, इसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक नीतियां, इसकी विदेश और सुरक्षा नीति, कुछ भी स्पष्ट नहीं है।

मुल्ला बरादर  और हक्कानी  के अलग अलग गुटों के बीच भविष्य की सरकार को लेकर मतभेद की जानकारी भी प्राप्त हो रही है।

एक तरफ कंधारियों और हेलमंडियों और दूसरी तरफ हक्कानी के नेतृत्व वाले पूर्वी अफगानों के बीच पदों के लिए छीना–झपटी चल रही  है। एक तरफ़ राजनेता और सैन्य कमांडर, अधिक व्यावाहरिक  लोग, जो दुनिया से जुड़े रहना चाहते  है तथा अमीरात को अलग रखना चाहते हैं और दूसरी ओर कट्टर मुल्ला जो किसी भी प्रकार के समझौते का समर्थन नहीं कर सकते, उनके मध्य  उत्पन्न  गंभीर मतभेदों का समाधान करने की आवश्यकता है। विभिन्न पश्तून जनजातियों, अन्य जातीय समूहों और पुराने शासन के राजनीतिज्ञों की आकांक्षाओं और मांगों को कैसे समायोजित किया जाए, इस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ है। इन सबके  अतिरिक्त एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय है, जो प्रतीक्षा कर रहा है और देख रहा है कि महिलाओं और अल्पसंख्यकों को  इस ‘समावेशी’ सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिया जाता है  अथवा नही। इस पर वे लंबे समय से जोर दे रहे है। संक्षेप में, सरकार के गठन की पूरी प्रक्रिया  अनाकर्षक हो गई है।

काबुल में सत्ता संघर्ष चल रहा है और ऐसे में उनका ‘सर्वोच्च नेता’, या तथाकथित अमीर-उल-मोमिनीन हिबतुल्ला कहीं दिखाई नहीं दे रहा। जबकि तालिबान का दावा है कि वह कंधार पहुंच गया है और बैठकें कर रहा है,  परंतु वह सार्वजनिक रूप से कहीं दिखायी नहीं दिया। प्रश्न किये जा रहे हैं कि क्या वह जिंदा भी है,  अथवा उसे पाकिस्तानियों द्वारा बंधक बना लिया गया  है।  मुल्ला उमर की वर्ष 2013 में मृत्यु हो गई थी, परंतु 2015 में जब उसकी मृत्यु की घोषणा हुई तब तक उनकी कब्र से बयान और फरमान जारी किये जाते रहे। क्या हिबतुल्लाह के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है? पाकिस्तानी सेना के अनौपचारिक प्रवक्ता के रूप में काम करने वाले सेवानिवृत्त पाकिस्तानी जनरल  बार-बार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि सरकार के गठन में देरी इसलिए हो रही है क्योंकि हिबतुल्ला कंधार अभी कुछ दिन पहले ही पहुंचे हैं। उनका कहना है कि देरी में बहुत कुछ नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि हिबतुल्लाह को शायद यह निर्णय लेने में अभी कुछ और समय की आवश्यकता है कि नई सरकार में कौन कौन शामिल होगा।

यद्यपि पाकिस्तान यह नहीं बता रहा कि हिबतुल्ला कंधार किस मार्ग से  आया था। तालिबान इस बात पर जोर दे रहा है कि हिबतुल्ला पिछले कुछ सालों से अफगानिस्तान में ही मौजूद है। यदि ऐसा है, तो निश्चित रूप से तालिबान, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने खुद को बहुत पेशेवर रूप से संगठित किया है, को भी बहुत पहले ही यह निर्णय कर लेना चाहिए था कि कौन किस पद पर आसीन होगा। अमीर-उल-मोमिनीन के रूप में हिबतुल्लाह के पास निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है, परंतु सरकार बनाने  और सत्ता के वितरण पर निर्णय लेने में उनकी अयोग्यता से यह पता चलता है कि आंदोलन के भीतर सब ठीक नहीं है और इसी के समाधान के लिए फैज हमीद को काबुल जाना पड़ा। लेकिन तथ्य यह है कि क्या इसमें हमीद के हस्तक्षेप की आवश्यकता थी, जिसके बारे में माना जाता है कि वह लगभग 4-5 वर्षों से तालिबान के सैन्य अभियानों का मार्गदर्शन और निर्देशन करता रहा है, इससे यह पता चलता है कि सरकार  बनाने को लेकर तालिबान के भीतर  काफी गंभीर मतभेद हैं।

दिलचस्प बात यह है कि काबुल के अंदर के सूत्रों का दावा है कि अपनी यात्रा के पहले दिन हमीद  होटल  के अंदर ही रहे। वह तालिबान के किसी वरिष्ठ नेता से मिलने नहीं गए और न ही तालिबान का कोई वरिष्ठ नेता उनसे मिलने आया। उन्होंने इस्लामाबाद में अफगानिस्तान के पूर्व राजदूत क्विस्लिंग डॉ उमर ज़खलीवाल सहित कुछ अन्य लोगों से मुलाकात की, जिन्हें स्पष्ट रूप से पाकिस्तानियों ने परिवर्तित कर दिया था और अब काबुल में उनके मार्ग पर चलते हुए दिख रहे हैं ।

दूसरे दिन हमीद की बरादर से मुलाकात होने की सूचना मिली। उनकी बैठक का परिणाम किसी को नहीं पता। लेकिन अगर पाकिस्तानी प्रेस में छपी खबरों पर ध्यान दिया जाए तो चीजें काफी जटिल प्रतीत होती हैं। मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद का नाम सरकार के प्रमुख के रूप में सामने आ रहा है। वह एक कट्टर नेता हैं और 1990 के दशक में प्रथम तालिबान शासन में सरकार के उप प्रमुख थे और बाद में उन्होंने कैबिनेट का नेतृत्व किया। वह “फाइटिंग क्लब” के रूप में जाने जाने वाले गुट का हिस्सा थे – एक ऐसे तालिबानी नेता, जिन्होंने उत्तरी गठबंधन के साथ बातचीत से समाधान के बजाय सैन्य जीत पर बल दिया।

यदि अखुंद सरकार का नेतृत्व करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि तालिबान 2.0 अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, विदेश और सुरक्षा नीति के मामले में तालिबान 1.0 का  समरूप  ही होगा। अर्थात अल कायदा, टीटीपी, ईटीआईएम आदि जैसे आतंकी समूहों को समाप्त नहीं किया जायेगा, वे बदले में न केवल पश्चिम बल्कि कई निकटवर्ती पड़ोसियों को भी अलग-थलग कर देगा। यह  स्पष्ट नहीं है कि हमीद अखुंद कट्टरवाद पर जोर दे रहा है, अथवा अपने जैसे किसी व्यक्ति को तालिबान शासन का नेतृत्व करने से रोकने की कोशिश कर रहा है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि  बरादार विरोध कर रहा हैं अथवा पाकिस्तानी जो कुछ भी  देने की कोशिश कर रहे हैं, उसे स्वीकार कर रहा हैं। अगले कुछ दिनों में स्थिति स्पष्ट हो  जाएगी।

पाकिस्तानी संकट मोचक डॉक्टर निश्चित रूप से इस बात पर कायम रहेंगे कि तालिबान अपने फैसले खुद लेगा। परंतु वास्तविकता  यह है कि  पाकिस्तानियों ने अफगानिस्तान में हमेशा बड़े पैमाने पर दखल दिया है। 1992 में डॉ नजीबुल्लाह की सरकार के पतन के बाद, आईएसआई ने विभिन्न मुजाहिदीन गुटों के साथ पेशावर और मक्का समझौते पर वार्ता की। इन समझौतों का दूसरे मामलों में अधिक उल्लंघन  हुआ । 1996 में आईएसआई ने तत्कालीन प्रधान मंत्री, नवाज शरीफ की जानकारी के बिना ही तालिबान शासन को मान्यता प्रदान करने के लिए कार्यवाही की । अतः  आश्चर्य नहीं होगा  यदि आईएसआई  इन कमजोर कड़ियों को जोडने के प्रयास में एक बार फिर सीधे दखल दे। वे सफल होते है या नहीं यह अलग बात है। इस दौरे के परिणाम यद्यपि बहुत अच्छे नहीं है और पाकिस्तान पर इसका उल्टा असर भी हो सकता है। गैर-तालिबान अफगानों के साथ साथ तालिबान के कुछ गुटों में भी पाकिस्तान के अत्यधिक हस्तक्षेप और प्रभाव को लेकर पहले से ही नाराजगी बढ़ रही है। आईएसआई प्रमुख के दौरे का निष्कर्ष  केवल यह है कि तालिबान और कुछ नहीं अपितु अफगानों को अपने अधीन करने के लिए पाकिस्तानी औपनिवेशिक परियोजना है।

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लेखक
सुशांत सरीन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं और चाणक्य फोरम में सलाहकार संपादक हैं। वह पाकिस्तान और आतंकवाद विषयों के विशेषज्ञ हैं। उनके प्रकाशित कार्यों में बलूचिस्तान : फारगॉटेन वॉर, फॉरसेकेन पीपल (2017), कॉरिडोर कैलकुलस : चाइना-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर और चीन का पाकिस्तान में निवेश कंप्रेडर मॉडल (2016) शामिल है।

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