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विरोध प्रदर्शनों के जरिये लोकतंत्र को अस्थिर करने की साजिश

लेविना
बुध, 12 जनवरी 2022   |   10 मिनट में पढ़ें

तीन डी- डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), डिमॉन्सट्रेशन (प्रदर्शन) और डीस्ट्रक्शन (विनाश) ने पिछले तीन वर्षों से भारत को तनावग्रस्त कर रखा है।

 किसानों के विरोध प्रदर्शन में आईएसआई समर्थित खालिस्तानी आतंकवादी समूहों की भागीदारी देखी गयी, कजाकिस्तान के अल्माटी में विरोध प्रदर्शनों में एमआई 6 जैसी विदेशी एजेंसियों की भागीदारी देखी गयी, अमेरिका में ब्लैक लाइफ मैटर के नाम पर देखा गया कि चीन ने एंटीफा को हथियारों की आपूर्ति की, और अरब स्प्रिंग के लिए सीआईए पर आरोप लगाये गये। अर्थात विरोध की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है- दुनिया भर में होने वाले अनेकों विरोध प्रदर्शन सामान्य तौर पर होते नहीं बल्कि उनको “निर्मित” किया जाता है।

हाल की दो रिपोर्टों में जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनके अनुसार दुनिया भर में हुए सभी विरोध प्रदर्शनों में से 42% अपने मिशन में सफल रहे हैं। लोकतंत्र को गिराने के लिए दो से 3.5 फीसदी आबादी ही काफी है।

भारत एक ऐसा लोकतंत्र है जिस पर हमें गर्व है। लेकिन अगर भारत की 3.5% आबादी, लगभग 45,500,000 लोग चाहें, तो वे हमें एक अवांछित भविष्य की ओर ले जा सकते हैं। क्या हम एक राष्ट्र के रूप में विरोध की अगली सुनामी के लिए तैयार हैं?

क्या विरोध वास्तव में “लोकतांत्रिक” हैं?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत जैसे लोकतंत्र में शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध जायज है। जब हमारा संविधान तैयार किया जा रहा था तो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके विरोध की शैली को ध्यान में रखा गया था। हमारा संविधान कुछ हद तक विरोध प्रदर्शन की अनुमति देता है।

विरोध करने का अधिकार हर नागरिक को है। यह विचार 2010 में मध्य पूर्व में अरब स्प्रिंग, 2003 में जॉर्जिया में रोज़ क्रांति, 1986 में फिलीपींस में पीपुल्स पावर आंदोलन और 20वीं और 21वीं सदी में ब्लैक लाइव्स मैटर सहित इस तरह के अन्य असंख्य विरोध प्रदर्शनों के बाद कहा जा सकता है।

अरब स्प्रिंग ने मुख्य रूप से छह देशों को प्रभावित किया था, और यह तानाशाहों के खिलाफ किया गया था, लेकिन यह जल्द ही अरब विंटर में बदल गया, यमन, लीबिया और सीरिया को गृहयुद्ध में धकेल दिया गया। बाद में ऐसी खबरें आईं कि कैसे अरब स्प्रिंग विकसित देशों की खुफिया एजेंसियों द्वारा निर्मित अराजकता थी। रणनीति सरल थी – एक नागरिक को सिस्टम के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।

किसानों का विरोध प्रदर्शन भारत में लोकतांत्रिक विरोधों का सबसे हालिया उदाहरण है। भारत के प्रधानमंत्री के काफिला को पंजाब के फिरोजपुर में 20 मिनट तक रोक दिया गया। किसान कानून भारत के कृषि क्षेत्र को व्यवस्थित करने और भारत को विशाल भारत-अरब-भूमध्यसागरीय गलियारे से जोड़ने वाला था। इससे भारत, संयुक्त अरब अमीरात, इज़राइल, ग्रीस और अन्य को बहुत देशों को लाभ होने की उम्मीद है। लेकिन किसानों के विरोध ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले कृषि क्षेत्र को संगठित करने की प्रक्रिया को बाधित करने में कामयाबी हासिल की।

एक राजनीतिक वैज्ञानिक जीन शार्प ने अपनी पुस्तक “फ्रॉम डिक्टेटरशिप टू डेमोक्रेसी” में स्पष्ट किया था कि विरोध प्रदर्शनों के जरिये कैसे एक तानाशाह को नीचे लाया जा सकता है।

भारत के दुश्मनों ने जीन शार्प के सिद्धांत के साथ भी ऐसा ही किया। उन्होंने एक सृजनात्मक लोकतंत्र को अराजकता में धकेलने के लिए तरीके को उलट दिया। इसे चरणबद्ध तरीके से समझिये।

4 चरणों में लोकतंत्र को अस्थिर करना:

चरण 1: आंदोलन

लोकतंत्र में मौजूद एक कमजोरी को चुनें, उसके बारे में गलत सूचनाएं फैलाएं और फिर इसका इस्तेमाल देश की आबादी के एक निश्चित हिस्से को भड़काने के लिए करें। रणनीतिक तरीके से अपील के लिए महिलाओं और बच्चों का प्रयोग करें।

हमारे लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि विरोध में शामिल होने वालों में से अधिकांश यह मानते हैं कि वे एक कारण के लिए लड़ रहे हैं, उनमें से मात्र कुछ “नेताओं” को ही पता होता है कि विरोध को किस दिशा में ले जाया जाएगा। शाहीन बाग धरना में महिलाओं और बच्चों को विरोध प्रदर्शन में शामिल किया गया।

उदाहरण के लिए, शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन किया गया। शुरुआत में यह काफी हद तक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन था। मीडिया और अन्य सरकार विरोधी संस्थाओं का उपयोग इस बात को प्रचारित करने के लिए किया गया कि – भारत के भीतर और बाहर, एक निश्चित वर्ग सरकार के इस फैसले से नाराज है। भारत के भीतर एक समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है।

सरकार उस स्तर पर उनके साथ नरम व्यवहार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। लेकिन भारत की एजेंसियों को इस तथ्य की जानकारी थी कि दिसंबर 2019 में सीएए के विरोध के शुरुआती चरणों में भारत में करीब 120 करोड़ रुपये भेजे गए थे।

अमेरिका जैसे लोकतंत्र में जिस गलती का फायदा उठाया जा सकता है वह है नस्ल, जबकि भारत में यह धर्म है।

चरण 2: राजनीतिक अशांति, दंगे, चोरी और आगजनी

शाहीन बाग का विरोध हो या किसानों का विरोध प्रदर्शन, स्टेज 2 को भारत की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर दंगे भड़काकर अंजाम दिया गया।

राजनीतिक दल पैसे लेकर आये आंदोलनकारियों को अपना समर्थन देते हैं और सरकार पर आंदोलनकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने वाले सरकारी अधिकारियों पर कार्रवाई के लिए दबाव डालते हैं। अन्य राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह के दबाव का उपयोग एक छतरी के रूप में किया जाता है जो आंदोलनकारियों की रक्षा करता है और उन्हें दंगा, चोरी, आगजनी करने में बढ़ावा देता है। स्टेज 2 के शिकार हुए आईबी (इंटेलिजेंस ब्यूरो) के सुरक्षा सहायक अंकित शर्मा और कांस्टेबल रतन लाल, जिन्होंने सीएए के विरोध में अपनी जान गंवाई।

आईबी के कर्मचारी अंकित शर्मा को भीड़ ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान बेरहमी से हत्या कर दी थी।

किसान विरोध के दौरान खालिस्तानी तत्व भी शामिल हुए और कई जगहों पर भीड़ ने हत्या तक कर डाली। महिलाओं के साथ बदसलूकी की भी खबरें आई थीं। गिरफ्तारी के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा।

शाहीन बाग विरोध के दौरान, एनएसए अजीत डोभाल ने धार्मिक नेताओं के साथ बैठक की और मार्च 2020 में कोविड की शुरुआत, ने विरोध की उग्रता को कम करने में कामयाबी हासिल की। भारत सरकार द्वारा किसान कानूनों को वापस ले लिया गया।

गुरुपर्व पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए, पीएम मोदी ने कहा कि ये कानून राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में लाए गए थे और इसका उद्देश्य छोटे और सीमांत किसानों को लाभ पहुंचाना था।

किसान कानून को निरस्त करने के बाद भारतीय प्रधान मंत्री का बयान विचार करने योग्य था। उन्होंने कहा कि उन्होंने राष्ट्रहित में फैसला लिया। यह एक ऐसा विधेयक है जिसके लिए भारत सरकार ने बहुत लड़ाई लड़ी थी, फिर भी अप्रत्याशित रूप से इसे निरस्त करना पड़ा।

लाल किले पर “किसान”

चरण 3: अति महत्वपूर्ण लक्ष्य और आर्थिक मदद

शाहीन बाग विरोध का अगला चरण एक अति महत्वपूर्ण लक्ष्य (एचवीटी) की हत्या हो सकती थी, जिसके बाद अराजकता होती, जो भुगतान किए गए आंदोलनकारियों के खिलाफ सरकार की कार्रवाई में बाधा डालने पर होती।

भारत के वर्तमान परिदृश्य में, एचवीटी कोई भी स्थानीय राजनीतिक नेता हो सकता है जो किसी आंदोलन का नेतृत्व कर रहा हो या किसी भी खेमे से किसी राजनीतिक संगठन का प्रमुख— वह सरकार विरोधी या सरकार समर्थक हो सकता है। इस तरह की हत्या एक अभूतपूर्व पैमाने पर अशांति का कारण बनेगी, जिसमें एचवीटी के अनुयायी बिना सोचे-समझे मारकाट मचाते।

सरकारी नीतियों के खिलाफ आंदोलन करने वालों में अशांति फैलाने से रक्षा बलों पर जबरदस्त दबाव पड़ेगा। आदर्श रूप से, ऐसी परिस्थितियों में अशांत स्थानों पर सबसे पहले रैपिड एक्शन फोर्स और अर्धसैनिक बल पहुंचते हैं। गृह मंत्रालय (एमएचए) राज्य के नागरिक पुलिस और सशस्त्र बलों की सहायता के लिए राज्य में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ) को तैनात कर सकता है। लेकिन अगर स्थिति असहनीय बनी रहती है, जहां अशांति लगातार जारी रहती है तो वहां सेना को उतारना पड़ जाता है।

लेकिन हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि चरण -3 में एक एचवीटी की हत्या हो सकती है?

जसविंदर सिंह मुल्तानी को जर्मनी में गिरफ्तार किया गया था

28 दिसंबर 2021 को, एसएफजे (सिख फॉर जस्टिस, एक खालिस्तान समर्थक समूह) आतंकवादी जसविंदर सिंह मुल्तानी को जर्मनी में एरफर्ट से गिरफ्तार किया गया था, भारत सरकार से उच्चतम स्तर के अनुरोध के बाद जर्मन सरकार ने यह कार्रवाई की थी। यह आतंकी न सिर्फ लुधियाना कोर्ट ब्लास्ट में शामिल था, बल्कि उसने भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल की हत्या और अशांति फैलाने की साजिश भी रची थी। यहां बलबीर सिंह एचवीटी थे।

निजी और सरकारी संपत्तियों में तोड़फोड़ करने वाले, सड़कों पर दंगे, राजनीतिक हस्तियों और सरकारी अधिकारियों की हत्याओं के साथ, दुश्मन आंतरिक अराजकता को अगले चरण तक बढ़ाने के अवसर का उपयोग कर सकते हैं।

चरण 4: सीमा पर तनाव और आर्थिक क्षति

सोशल मीडिया पर वायरल होते सड़कों पर तबाही के वीडियो न केवल देश की छवि को नुकसान पहुंचाएगी, बल्कि विदेशी निवेशकों का भारतीय सरकार पर भरोसा को भी कम करेगी।

आंकड़ों के अनुसार अकेले किसानों के विरोध ने अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित नुकसान पहुँचाया:

  • दिल्ली-हरियाणा सीमा पर 1800 फैक्ट्रियों का कामकाज ठप हो गया।
  • किसानों के आंदोलन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को तीसरी तिमाही में 70,000 करोड़ रुपये से अधिक का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा।

आंतरिक रूप से कमजोर शत्रु पर हमला करना हमेशा आसान होता है। अगर कभी भारत पर अराजकता अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है, तो यह भारत के दुश्मनों के लिए सीमा पर हमले का निमंत्रण बन जाएगा। किसी देश को कमजोर करने के लिए परम्परागत युद्ध ही एकमात्र संभावना नहीं है बल्कि आर्थिक नुकसान के जरिये भी ऐसा किया जा सकता है। भारत के अंदरूनी उत्पादन को रोकने के तरीकों की खोज भी दुश्मन करते रहते हैं।

समाधान?

यह बार-बार साबित हुआ है कि पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी आईएसआई, चीन की मदद से सीधे टकराव या पारंपरिक युद्ध से बचते हुए भारत को अस्थिर करने में लिप्त रही है। उनकी रणनीति बार-बार देश के भीतर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करना है, जो अंततः भारत में लोकतंत्र को कमजोर करेगा और जनता में निराशा की भावना भर देगा। आगे एक खतरनाक स्थिति होगी जो भारत के दुश्मनों- जो भारत के पड़ोस तक ही सीमित नहीं हैं, के पक्ष में काम करेगी।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में हुए प्रमुख विरोध प्रदर्शन

  • 2016, हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, कश्मीर में बुरहान वानी की हत्या के बाद विरोध प्रदर्शन।
  • 2017, जल्लीकट्टू विरोध, गोरखालैंड विरोध, और तमिलनाडु में किसान विरोध
  • 2018, जाति आधारित विरोध प्रदर्शन
  • 2019-2020, जेएनयू के विरोध के बाद सीएए के विरोध में प्रदर्शन
  • 2020-2021, किसानों का विरोध

विरोध को कैसे नियंत्रित करें?

समस्या यह है कि हमारे पुलिस बल भीड़ नियंत्रण के उपाय तभी करते हैं, जब विरोध प्रदर्शन हाथ से निकल जाता है। वे भीड़ वृद्धि को रोकने के उपाय के मामले में कमजोर हैं। आइए हम उन कुछ मामलों के बारे में जानें जहां हिंसक विरोधों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया गया था:

1) रूस और चीन: रूस दुनिया का सबसे बड़ा देश है और चीन सबसे अधिक आबादी वाला देश है। इसके बावजूद इन देशों में विरोध प्रदर्शन कम होते हैं। 2020 में हांगकांग आंदोलन तब तक जारी रहा जब तक सीसीपी ने विरोध को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने का फैसला नहीं किया। और यह कारगर रहा।

लेकिन दोनों देश भारत जैसे लोकतंत्र नहीं हैं। क्या यह उनके लिए लाभदायक साबित हुआ?

जब 1 जनवरी 2022 के बाद शुरू हुए हिंसक “लोकतांत्रिक” विरोध प्रदर्शनों के तहत कजाकिस्तान को कुचला जा रहा था, रूस ने तत्परता से काम किया और विरोध के 5वें दिन तक कजाकिस्तान के सबसे बड़े शहर अल्माटी को नियंत्रण में लाने के लिए सीएसटीओ शांति सेना को भेज दिया।

 2) उत्तर प्रदेश: चाहे सीएए का विरोध हो या किसानों का विरोध, योगी सरकार शुरुआती दौर में ही विरोध प्रदर्शनों को रोकने में कामयाब रही। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के हस्तक्षेप को खारिज कर दिया गया। लेकिन इसने काम किया।

तो जिन रणनीतियों ने काम किया वे थे:

  1. शुरू में ही खत्म कर देना: ज्यादातर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन तब शुरू हुए जब भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए फंड भेजे जाने की खुफिया रिपोर्ट आई। प्रशासन को एक विरोध प्रदर्शन तेज होने की उम्मीद थी, लेकिन प्रारंभिक चरणों में ही विरोधी तत्वों पर अंकुश लगाने की कार्रवाई में कमजोरी दिखाने के कारण भारत सरकार को बदनाम किया गया। व्यापक प्रचार किया गया, जिसके परिणामस्वरूप कई स्थानों पर हिंसा हुई। लेकिन रूस और यूपी के मामले में – प्रशासन द्वारा त्वरित कार्रवाई ने विरोध पर नियंत्रण कर लिया।
  2. तोड़फोड़ का लोकतंत्र रुकना चाहिए: योगी सरकार उन नेताओं और प्रदर्शनकारियों को सूचीबद्ध करने में कामयाब रही, जो सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने के लिए गए थे और उनको सरकारी संपत्ति के नुकसान के लिए भुगतान करने के लिए मजबूर किया गया। क्या यह प्रदर्शनकारियों के लिए एक बेहतर सबक हो सकता है जो मानते हैं कि बर्बरता और तोड़फोड़ करना उनका अधिकार है?
  3. इंटरनेट समर्थित विरोध”: जब कजाखस्तान में व्यापक दंगे हुए तो इंटरनेट बंद होने के बाद उसे दुनिया भर से विरोध का सामना करना पड़ा। कश्मीर में इंटरनेट अस्थायी रूप से बंद करने के लिए भारत को भी विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन इंटरनेट बंद करने से स्थिति को बिगड़ने से रोकने में मदद मिली।
  4. पुलिस को अच्छी तरह से लैस करना: अनियंत्रित भीड़ को संभालने के लिए प्रत्येक पुलिस को प्रशिक्षित कर हर अधिकारी को बेहतरीन दंगा नियंत्रण उपकरण दिये जाने चाहिए। फील्ड फोर्स की टीमों को पूरी तरह से प्रशिक्षित, रेडियो प्रोटोकॉल, के -9 का समावेश, भीड़ नियंत्रण के लिए ड्रोन आदि मुहैया कराये जाने चाहिए। हमने सीएए या किसानों के आंदोलनों के दौरान ऐसा कुछ नहीं देखा।

सीएए के विरोध और किसानों के विरोध दोनों के दौरान दो चीजें स्पष्ट थीं- हमारे पुलिसकर्मी न तो अच्छी तरह से सुसज्जित हैं और न ही उनके पास बड़ी भीड़ को नियंत्रित करने का कौशल है। नीचे एक पुलिसकर्मी की तस्वीर है, जिसे पिस्तौल से धमकाया जा रहा है जबकि उसके पास सिर्फ एक छड़ी है जिससे वह दंगा करने वाली भीड़ का सामना कर रहा है। क्या यह न्यायसंगत है?

  1. सामाजिक परिवर्तन: जापान जैसे देशों में 40% लोग हिंसक विरोध प्रदर्शन के खिलाफ हैं। यह उन नागरिकों से आता है जो परिपक्व वयस्कों की तरह सोचते हैं। मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए लोगों को हिंसक विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने से लगातार हतोत्साहित करना होगा। यह तत्काल परिणाम नहीं लाएगा, इसे लंबे समय तक जारी रखना होगा।
  2. हिंसक विरोध प्रदर्शन के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जरूरत है: अगर कोई रिपोर्ट कुछ और कहती है, तो वे लोगों को गुमराह कर रहे हैं। हमने देखा है कि कैसे बाहरी ताकतें दंगा भड़काने और देश को अस्थिर करने के इरादे से विरोध प्रदर्शनों को फंड करती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कुडनकुलम (परमाणु ऊर्जा परियोजना) विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और स्कैंडिनेवियाई देशों से वित्त पोषित गैर सरकारी संगठनों को दोषी ठहराया था।

भारत एक लोकतंत्र है और दंगाइयों को यह सख्त संदेश दिया जाना चाहिए कि यहां हिंसक तत्वों को सहन नहीं किया जायेगा। भारत के दुश्मन बिना सीधे टकराव के भारत के भीतर सामान्य स्थिति को नुकसान पहुंचाने में कामयाब रहे हैं। यही नहीं वे दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। ऐसे में विरोध प्रदर्शनों के प्रति लापरवाह रवैया बंद होना चाहिए।

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लेखक
लेखक सामरिक मामलों और रक्षा के एक प्रसिद्ध विश्लेषक हैं। उन्हें कई विषयों पर सामग्री निर्माण में विशेषज्ञता हासिल है। उन्हें ट्विटर पर @LevinaNeythiri पर फॉलो किया जा सकता है।

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POST COMMENTS (1)

Dhruv

जनवरी 12, 2022
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है। लेकिन इतना काफी नहीं है!

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