समझौतों के विफल होने से बढ़ती जलवायु अराजकता
टीपी श्रीनिवासन
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में स्थिति का वर्णन करने के लिए एक नए वाक्यांश, “क्लाइमेट कैओस” का आविष्कार किया, ताकि यह दावा किया जा सके कि जलवायु परिवर्तन “व्यापक, तीव्र और प्रबल” है। इसमें दुनिया को झकझोरने वाला कोई नया रहस्योद्घाटन नहीं किया गया था, अपितु इसने भारतीय प्रधान मंत्री को उस दिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अपने संबोधन के मुख्य शीर्षक से वंचित कर दिया। समुद्री सुरक्षा के संबंध में उनकी चेतावनी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप होने वाली कयामत की भविष्यवाणी के कारण समाप्त हो गयी । इसमे कहा गया कि संमुख् आने वाले अनेक जलवायु परिवर्तन हजारों वर्षों से नही देखे गये और कुछ अन्य परिवर्तन अभी गतिमान हैं – उदाहरण के लिए समुद्र के स्तर में हो रही निरंतर वृद्धि -जो सैकड़ों हजारों वर्षों सेअपरिवर्तनीय थी।
इस तथ्य के वैज्ञानिक प्रमाण हमेशा से मौजूद थे कि ग्रीनहाउस गैसों का मानवजनित उत्सर्जन पृथ्वी के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा। लेकिन रिपोर्ट में दी गई जानकारी के अनुसार वर्तमान आपदा के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रिया अपर्याप्त है। पेरिस समझौता एक छल साबित हुआ जैसा राष्ट्रपति ट्रम्प और कुछ अन्य ने इस संबंध में कहा। भले ही पेरिस समझौता पूरी तरह से लागू कर लिया जाता हैं, फिर भी पृथ्वी रहने के लिए बहुत उष्म होगी।
1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन और 1992 के ऐतिहासिक रियो शिखर सम्मेलन में दिखायी गयी उम्मीदें 2009 में कोपेनहेगन में उस समय समाप्त हो गईं, जब क्योटो प्रोटोकॉल को खारिज कर दिया गया और यह 2015 में पेरिस में दफन हो गया। लालची औद्योगिक राष्ट्रों ने विकसित देशों को उनके “आत्म रक्षा उत्सर्जन” से वंचित रखते हुए अपने “लक्जरी उत्सर्जन” को जारी रखने पर बल दिया। रियो में अपनाए गए निम्नलिखित इन मूलभूत सिद्धांतों में से कुछ को 1992 में निर्धारित मार्ग को बदलने के लिए कोपेनहेगन में जान-बूझ कर छोड़ दिया गया :
सम्मेलन के अंतिम दिन कोपेन हेगन समझौते की मूल शर्तो में कुछ देश के प्रमुख नेताओं द्वारा सीधे तौर पर सौदेबाजी की गयी। कुछ सरकारों की कठोर आपत्तियों के पश्चात् नेताओं की सौदेबाजी को औपचारिक रूप प्रदान करने के लिए प्रक्रियागत समझौते पर पहुंचने में लगभग अगला पूरा दिन लग गया।
कोपेनहेगन समझौते के प्रमुख तत्वों में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का एक आकांक्षात्मक लक्ष्य शामिल था; जिसमे देशों के लिए 31 जनवरी, 2010 तक अपनी विशिष्ट प्रतिज्ञाओं को दर्ज कराने की प्रक्रिया; देशों की कार्रवाइयों की रिपोर्टिंग और सत्यापन की व्यापक शर्तें; विकासशील देशों की सहायता के लिए विकसित देशों द्वारा 2010-2012 में $30 बिलियन की प्रतिबद्धता; और 2020 तक सार्वजनिक और निजी वित्त में वार्षिक 100 अरब डॉलर जुटाने का लक्ष्य निर्धारित था। समझौते में एक नए हरित जलवायु कोष की स्थापना का भी आह्वान किया गया।
पेरिस समझौते ने सभी देशों को जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने और इसके प्रभावों के अनुकूल होने के महत्वाकांक्षी प्रयास के लिए एकजुट किया। ऐसा विकासशील देशों की सहायता के लिए समर्थन को बढ़ाने के साथ किया गया अर्थात इसने वैश्विक जलवायु प्रयास में एक नया अध्याय जोड़ा । पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से कम रख कर जलवायु परिवर्तन के खतरे के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया को मजबूत करना और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाना था। .
इसके अतिरिक्त इस समझौते का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए देशों की क्षमता में वृद्धि करना है। इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए, उपयुक्त वित्तीय प्रवाह, एक नवीन प्रौद्योगिकी ढांचा और एक उन्नत क्षमता निर्माण ढांचा स्थापित करना होगा।इस प्रकार विकासशील देशों और सबसे कमजोर देशों द्वारा उनके स्वयं के राष्ट्रीय उद्देश्यों के अनुरूप की गयी कार्रवाई का समर्थन होगा। यह समझौता कार्रवाई और समर्थन गतिविधियों में और अधिक पारदर्शिता प्रदान करता है।
पेरिस समझौते के लिए सभी पक्षों को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के माध्यम से अपने उत्कृष्ट प्रयासों को आगे बढ़ाने और आने वाले वर्षों में इन्हे और अधिक सशक्त करने की आवश्यकता है। इसमें वे अपेक्षाएं भी शामिल हैं जो सभी पार्टियां अपने उत्सर्जन और उनके कार्यान्वयन प्रयासों पर नियमित रूप से करती हैं। 2018 में, पार्टियों ने पेरिस समझौते में निर्धारित लक्ष्यों की दिशा में होने वाली प्रगति के सामूहिक प्रयासों का जायजा लिया और एनडीसी की तैयारी की जानकारी दी। समझौते के उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में सामूहिक प्रगति का आकलन करने और पार्टियों द्वारा की जाने वाली आगामी कार्रवाइयों से अवगत करवाने हेतु प्रत्येक 5 वर्ष में वैश्विक प्रगति का आकलन भी किया जाता है।
पेरिस समझौता सामूहिक एवं अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धांत से दूर चला गया और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी को सभी देशों के लिए स्वैच्छिक बनाकर इसे एक ही स्तर पर बनाये रखा गया। राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) अब तक ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित करने के वांछित उद्देश्य को पूरा नही कर पाया।
आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक तापमान को स्थिर होने में अनुमानित 20-30 साल लग सकते हैं।यह रिपोर्ट अगले दशकों में ग्लोबल वार्मिंग के 1.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर को पार करने की संभावनाओं के नए अनुमान प्रदान करती है, और यह पाती है कि जब तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में तत्काल, तेजी से और बड़े पैमाने पर कमी नहीं होती, तब तक वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाए अन्यथा 2 डिग्री सेल्सियस भी पहुंच से बाहर हो जायेगा।
रिपोर्ट से पता चलता है कि मानव गतिविधियों से होने वाला ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के लिए वर्ष 1850-1900 के बाद से ही जिम्मेदार है, और अगले 20 वर्षों में वैश्विक तापमान औसत रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने या उससे भी अधिक होने की संभावना है। यह आकलन ऐतिहासिक वार्मिंग का आकलन करने से संबंधित आकड़ों पर आधारित है, साथ ही मानव जनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जलवायु प्रणाली की प्रतिक्रिया की वैज्ञानिक समझ में भी वृद्धि हुई है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले दशकों में सभी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन में और अधिक वृद्धि होगी। ग्लोबल वार्मिंग के 1.5 डिग्री सेल्सियस के तक होने केकारण बढ़ती गर्मी , लंबे गर्म मौसम और ठंड के मौसम में कमी होगी। रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्लोबल वार्मिंग के 2 डिग्री सेल्सियस तक होने के कारण गर्मी का चरम कृषि और स्वास्थ्य की असहिष्णुता सीमा तक पहुंच जाएगा।
आईपीसीसी रिपोर्ट वास्तविकता का आकलन और एक कड़ी चेतावनी का संकेत है। लेकिन यह अपने उद्देश्य की पूर्ति तभी कर पायेगा जब औद्योगिक राष्ट्र अपनी मानसिकता में बदलाव करेंगे और जलवायु के प्रति न्याय के रियो सिद्धांतों पर लौटेंगे। वैज्ञानिक साक्ष्य या डेटा की कमी प्रगति में बाधक नही है , बल्कि यह विकसित देशों की विशिष्ट उपभोग की अपनी जीवन शैली को बदलने की अनिच्छा के कारण है। ऐसा प्रतीत नहीं होता कि जलवायु परिवर्तन को सम्मेलनों, प्रोटोकॉल या समझौतों से रोक पाना संभव होगा।
अंततः विज्ञान को ही आगे बढ़ना होगा और वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों के निवारण की तकनीक की खोज करनी होगी और शून्य कार्बन अर्थव्यवस्थाओं के संबंध में चर्चा की अपेक्षा कुछ उपयोगी करना होगा ।
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