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भारत-नेपाल सम्बन्धों पर भारी पड़ता चीन का प्रभाव

डॉ. राकेश कुमार मीना
गुरु, 28 अक्टूबर 2021   |   7 मिनट में पढ़ें

भारत ने हमेशा अपनी विदेश नीति में पड़ोसी देशों को प्राथमिकता दी है। पड़ोसी देशों के साथ अपनाई गयी विदेश नीति को “गुजराल सिद्धांत” कहा गया, इस नीति का बीजवपन 1996-97 में प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल के दौरान हुआ था। यद्यपि यह नीति परोक्ष रूप से जवाहर लाल नेहरु के समय से ही भारत की विदेश नीति में शामिल थी। पिछले सात दशकों में भारत की विदेश नीति और पड़ोसी देशों के साथ विदेश नीति के सामने विभिन्न प्रकार की चुनौतियां एवं समस्याएं उभर कर सामने आई है। इस परिप्रेक्ष्य में यह समझना जरुरी है कि भारत के नेपाल के साथ कैसे सम्बन्ध है; साथ ही उन्हें भविष्य में कैसे आपस में मधुर एवं गतिशील बनाया जा सकता है। भारत और नेपाल के सदियों पुराने ऐतिहासिक, व्यापारिक, सभ्यता, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, भाषाई और आर्थिक रूप से गहरे तार जुड़े हुए हैं । जो दोनों देशों के संबंधों को और भी प्रगाढ़ बनाते हैं।  इसके अतिरिक्त खुला बॉर्डर एवं वर्ष 1950 की शांति एवं मैत्री संधि भी इस रिश्ते को अनोखा और विशिष्ट बनाती है। नेपाल एक भू आबद्ध राष्ट्र है जो कि एक संप्रभु देश के रूप में एक मजबूत और अनूठी पहचान रखता है। यह दो महाकाय देशों, भारत और चीन के मध्य एक अस्थिर संतुलन के रुख को अपनाता रहा है। इसकी भौगोलिक एवं सामरिक अवस्तिथि के कारण, नेपाल की विदेश नीति की प्राथमिकता  और विकल्प सीमित है जो कि काफी बार इसकी ‘उत्तरजीविता के लिए रणनीति’ के रूप में निरुपित होती है। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में नेपाल भारत के सीमान्त से घिरा हुआ है। उत्तर की ओर हिमालय दुर्गम सीमाओं का निर्माण करता है जहाँ इसकी सीमायें चीन को छुती है।

रिश्तों में अवसान का दौर

वर्ष 2015 में दोनों देशों के संबंधों के आयाम में परिवर्तन आने शुरू हो गये, जब नेपाल ने इस वर्ष   सितम्बर माह में  अपने नए संविधान की घोषणा की। जिसके परिणिति के रूप में भारत-नेपाल सीमा पर अनाधिकारिक नाकेबंदी हुई, जिसके बाद दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने के लिए काफी प्रयास किये गये, जिसके तहत आपस में कई उच्च स्तरीय यात्रायें की गयी, उदाहरण के तौर पर मुख्यतः भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल में चार बार नेपाल की यात्रा पर गये थे। हालाँकि इसके प्रत्युत्तर में नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व ने भी भारत की यात्रा की। नरेंद्र मोदी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल के साथ रिश्तों को सामान्य और मधुर बनाने की प्रबल आशा जाहिर की जा रही है, जिसके संदर्भ में साल 2020 में भारत की तरफ से कई प्रतिनिधिमंडल नेपाल गये।

भारत नेपाल के रिश्तों पर चीन के प्रभाव के अतिरिक्त और भी कई कारण रहे है जिनसे दोनों देशों के मध्य संबंधों में तल्खी या दूरियां पैदा होने लगी थी। 2015 के  संविधान के कई प्रावधानों को लेकर भारत ने इसकी घोषणा के समय आपत्ति जाहिर की थी, जिसके अंतर्गत भारत ने यह इंगित किया था कि तराई क्षेत्र के लोग जिनके सामजिक और पारिवारिक सम्बन्ध भारत की तरफ के लोगों से काफी गहरे हैं, उनके साथ इस नये संविधान द्वारा भेदभाव किया गया है। इस मुद्दे के संदर्भ में नेपाल ने भारत की इस मंशा की काफी आलोचना की। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली नेपाल यात्रा के दौरान “समावेशी संविधान” के निर्माण की बात कही थी। हालांकि दोनों देशों के बीच आगे हुए संवादों में भारत की तरफ से नेपाल के संविधान पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी और इसे नेपाल का आंतरिक मामला माना गया। इसके अतिरिक्त, प्रबुद्ध व्यक्तियों के समूह (EPG) की रिपोर्ट का मामला था जिसमें साल 2016 में दोनों देशों की तरफ से 5-5 प्रबुद्ध व्यक्तियों के समूह का गठन किया गया, जिसे 1950 की शांति एवं मैत्री संधि तथा अन्य द्विपक्षीय मुद्दों की समीक्षा करनी थी। इस समीक्षा को करने का उद्देश्य यह था कि नेपाल ने इस संधि को संशोधित करने और 21वीं सदी में बदलते रिश्तों को अद्यतन करने की मांग की थी। जुलाई 2018 में भारत-नेपाल संबंधों पर प्रबुद्ध व्यक्तियों के समूह की अंतिम बैठक संपन्न हुई थी और इसके बाद दोनों समूहों ने अपनी रिपोर्ट स्वयं की सरकारों को सौंप दी थी। लेकिन अभी तक किसी भी सरकार ने अपनी रिपोर्टों का सार्वजनिक रूप से प्रकटीकरण नहीं किया है। इसके अतिरिक्त, मुद्दा था नोटबंदी/विमुद्रीकरण का, जिसमें भारत ने साल 2016 में 500 और 1000 की मुद्रा पर प्रतिबन्ध लगाया था, जिसका असर नेपाल पर भी पड़ा था। नेपाल राष्ट्र बैंक के अनुसार लगभग 33.6 मिलियन प्रतिबंधित भारतीय रूपये नेपाल के बैंकों में कई माध्यमों से जमा हुए थे। इसके कारण नेपाल की जनता और वहाँ की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा था और बड़ी संख्या में लोग उस मुद्रा को बदलवाने की प्रतीक्षा में थे। इसके अतिरिक्त मुद्दा रहा सार्क को सक्रिय रूप से पुनः संचालित करने का जिसके कारण भी भारत और नेपाल के बीच अविश्वास बढ़ा।

भारत की विदेश नीति में पिछले कुछ सालों में बिम्सटेक, BBIN और एक्ट ईस्ट जैसी नीतियों पर बल रहा है। पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को राज्य की नीति के रूप में संचालित करने और आतंकी हमलों के फलस्वरूप सार्क देशों के नेताओं की बैठक नहीं हो पाई है। साल 2018 में काठमांडू में बिम्सटेक का चौथा सम्मलेन हुआ, जिसमें नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने कहा था कि बिम्सटेक सार्क की जगह नहीं ले सकता है और सार्क को पुनः सक्रिय करने पर बार-बार बल भी नेपाल द्वारा दिया जाता रहा है। इसी क्रम में साल 2020 की कालापानी घटना के बाद भी दोनों देशों के मध्य अविश्वास बढ़ा। भारत द्वारा जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद भारत ने अपना राजनीतिक मानचित्र जारी किया, जिसमें कालापानी को अपना भूभाग प्रदर्शित किया। नेपाल का दावा है कि यह भू-भाग उसके क्षेत्र में आता है। वर्ष 2020 में नेपाल ने भी अपना राजनीतिक मानचित्र जारी करके इसे अपने क्षेत्र में दिखाया है। दोनों ही देश इस भू-भाग पर अपना दावा एतिहासिक तथ्यों से सिद्ध करने के तर्क देते है।

चीन का प्रभाव

चीन का प्रभाव नेपाल या भारत नेपाल संबंधों पर हाल के दशकों में ही नहीं बल्कि नरेश महेंद्र के शासन काल से ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नेपाल में दिखाई देने लग गया था और क्रमिक रूप से उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। नेपाल में साम्यवादी सरकारों के सत्तारूढ़ होने विशेष रूप से 2015 के बाद चीन का प्रभाव नेपाल के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में देखा जा सकता है। चीन के बढ़ते प्रभाव का कारण चीन की ओबोर नीति और दूसरी तरफ नये संविधान की घोषणा के बाद भारत सीमा पर हुई नाकेबंदी को माना जा सकता है। इस क्रम की शुरुआत नाकेबंदी के तुरंत बाद मार्च 2016 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की चीन यात्रा और इस दौरान दोनों देशों के मध्य हुई व्यापार और पारगमन संधि उल्लेखनीय रूप से इंगित की जाती है। इस संधि के माध्यम से नेपाल को मुख्य रूप से चीन द्वारा तीसरे देश से व्यापार करने के लिए बंदरगाह एवं रेल लिंक मुहैया करने का प्रावधान स्थापित किया गया।

दिसंबर 2020 में नेपाल के प्रधानमंत्री ओली द्वारा संसद बर्खास्त करने और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के घटकों में कलह को सुलझाने के लिए चीन कम्युनिस्ट पार्टी के उप मंत्री के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल काठमांडू आया और मध्यस्थता करवाने की कोशिश की। इसके अतिरिक्त नेपाल में चीन की राजदूत ने भी इस मसले को सुलझाने ने लिए साम्यवादी दलों के नेताओं से लगातार वार्ता की जिससे नेपाल में साम्यवादी सरकार बनी रहे। ये कदम नेपाल की आंतरिक राजनीति में चीन के प्रत्यक्ष दखल को प्रदर्शित करते है। आर्थिक क्षेत्र में देखें तो चीन और नेपाल के मध्य पहला आर्थिक सहायता का समझौता 1956 में संपन्न हुआ था। नेपाल के विदेश मंत्रालय का भी मानना है 80 के दशक के मध्य तक हमें चीन से वित्तीय और तकनीकी सहायता मिलती रही थी। इसके बाद नेपाल में राजतन्त्र के जाने के बाद वर्ष 2008 के बाद इसमें और भी वृद्धि हुई। वर्ष 2014 में विदेशी निवेश के साझेदार के रूप में चीन ने भारत को नेपाल में पीछे छोड़ दिया। पिछले वर्ष चीनी मीडिया ने कहा कि चीन 2019-20 के वित्तीय वर्ष में अपने विदेश निवेश का 220 मिलियन डॉलर नेपाल में लगाएगा। जो कि पूर्व के वर्षों में हुए निवेश (116 मिलियन डॉलर) से दुगना रहा जबकि ये कोरोना काल था।

इसके अतिरिक्त दोनों देशों के मध्य सैन्य सहयोग भी विगत के वर्षों में बढ़ा है। चीन ने वर्ष 2014 में एक प्रशिक्षण अकादमी के द्वारा तिब्बत सीमा पर तैनात नेपाल की शस्त्र पुलिस बल को चीन की सेना द्वारा आतंकवाद निरोध हेतु प्रशिक्षित किया गया। इसके अलावा द्विपक्षीय सहयोग के क्षेत्र जैसे आधारभूत संरचना, शिक्षा, कृषि और हाइड्रोपावर में अब तक जहाँ परम्परागत रूप से भारत की सहायता में बड़ी हिस्सेदारी रहती थी उसको चीन द्वारा कम करने की कोशिश जारी है। इसके अतिरिक्त वर्ष 2019 में नेपाल के शिक्षा मंत्रालय और चीन के दूतावास के मध्य एक ज्ञापन समझौता हुआ जिसमें मेंडरिन भाषा को नेपाल के स्कूलों में पढ़ाये जाने पर सहमति हुई। इसके अतिरिक्त नेपाल जो अब तक इन्टरनेट के लिए भारत पर निर्भर था, साल 2016 में चीन ने फाइबर केबल के माध्यम से नेपाल को इंटरनेट की सुविधा मुहैया करा दी।

नेपाल चीन और भारत जैसे बड़े देशों के मध्य एक भू सामरिक अवस्थिति पर है, जहाँ उसे इन दोनों शक्तियों के साथ प्रभाव के संतुलन को साधने का निरंतर प्रयास करना होता है। चीन द्वारा नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश करने के बाद अमेरिका ने भी नेपाल में अपनी ‘मुक्त एवं खुला इंडो पैसेफिक’ नीति के तहत चीन को चुनौती दी है। अमेरिका और भारत ने चीन के बड़े पैमाने पर नेपाल में हो रहे निवेश पर सतर्कता बरतने की सलाह नेपाल को दी है। चीन के BRI प्रोजेक्ट से अन्य देशों के साथ हो रही मुश्किलों से भी नेपाल को सीखने की जरुरत है। नेपाल को यह भी संतुलन बनाना होगा कि कही चीन की इस BRI परियोजना से भारत और नेपाल के रिश्तों पर कोई प्रभाव न पड़े। नेपाल हाल ही में अमेरिका के सामरिक अभिलेख से जुड़ा है, जो कि नेपाल और अमेरिका के रक्षा संबंधों को मजबूत करता है। अमेरिका का इंडो पैसेफिक अभिलेख जून 2019 में प्रकाशित हुआ, जिसमे कहा गया कि अमेरिका नेपाल के साथ रक्षा संबंधो को सुदृढ़ करेगा जिसके अंतर्गत, शांति सेना ओपरेशन, रक्षा व्यवसायीकरण और सैन्य बलों की क्षमता के कार्यक्रम संचालित करेगा। यह विदित रहे कि भारत की सेना में नेपाल के गोरखा सैनिक सौ सालो से भी अधिक समय से काम कर रहे है। अब जबकि अमेरिका के साथ नेपाल का सैन्य सहयोग बढ़ रहा है। इसमें नेपाल को भारत नेपाल रिश्तों को भी ध्यान में रखना होगा।

संबंधों में मजबूती के आधार:

चीन के बढ़ते प्रभाव के बावजूद भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत और नेपाल के सम्बन्ध भौगोलिक समीपता, सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक जुड़ाव के कारण हमेशा से मजबूत रहे है। खुला बॉर्डर, नेपाल के लोगों को भारत में काम करने के अवसर और भारतीय सेना में नेपाल के गोरखा रेजीमेंट का होना, आपसी संबंधों को और भी गहरा तथा विशिष्ट बनाते है। साल 2018 में भारत के प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा के दौरान पशुपति मंदिर, जनकपुर और मुक्तिधाम मंदिर जाना हजारों साल पुराने सांस्कृतिक एवं धार्मिक लिंक को और मजबूत बनाती है।

चीन द्वारा नेपाल के साथ कनेक्टिविटी के समझौते जमीनी स्तर पर इतने संभाव्य नहीं है बल्कि भारत के साथ इस प्रकार की समस्या नहीं है, यह बात अभी भी भारत की स्थिति को नेपाल संदर्भ में मजबूत बनाती है। काफी बार नेपाल की तरफ से कहा जाता है कि किसी भी समझौते के बाद ‘डिलीवरी डेफिसिट’ की समस्या आती है और चीन के साथ ऐसा नहीं है। अतः भारत को इसका समाधान प्रशासनिक स्तर पर सुलझा लेना चाहिए।

कोरोना महामारी के काल में भी भारत का नेपाल को सहयोग निरंतर बना रहा। इस संदर्भ में देखे तो जनवरी माह में भारत ने सबसे पहले कोरोना की वैक्सीन की खेप नेपाल और भूटान जैसे देशों को भेजकर आपसी संबंधों को मधुर और प्रगाढ़ बनाने की कोशिश की है।

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लेखक
डॉ. राकेश कुमार मीना वर्तमान में डीएवी पीजी कालेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत है। इसके पूर्व डॉ. मीना इंडियन कौंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफेयर्स (ICWA), सप्रू हाउस, नई दिल्ली में रिसर्च फेलो के पद पर दक्षिण एशियाई देशों की राजनीति और विशेष रूप से नेपाल के शोध विशेषज्ञ के रूप में वर्ष 2015 से 2020 कार्य कर रहे थे। डॉ. मीना ने भारतीय राजनीति, वैश्विक मामलों, नेपाल और दक्षिण एशियाई देशों की राजनीति के मामलों पर कई शोध पत्र लिखे है।

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