चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में उनके गुप्त युद्ध
कमांडर संदीप धवन (सेवानिवृत्त)
2014 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने घोषणा की थी कि उनकी अफगानिस्तान में 34,000 सशक्त अमेरिकी बलों में 70 प्रतिशत की कटौती करने की योजना हैं। उन्होंने कहा कि उनका इरादा वर्ष 2015 में इसे 5,500 तक सीमित करने और 2016 तक पूरी तरह से वापसी करने का है। आईएसआईएस की स्थिति उन्हें पूरी तरह से वापसी की अनुमति नहीं देती।
वास्तव में ट्रम्प प्रशासन ने वर्ष 2022 तक पूर्ण वापसी योजना से पूर्व सैनिकों की संख्या बढ़ा कर 14,000 तक कर दी थी। हालांकि, यह बाइडेन प्रशासन ही है जिसने 2021 में तेजी से वापसी कर ली। आज अमेरिकी बलों की वापसी एक वास्तविकता है, जो अफगान सरकार देख रही है।
यह अफगानिस्तान के बारे में डेजा-वु प्रकार की भावना है। केवल 20 वर्ष पूर्व अल-कायदा ने अफगानिस्तान को देखने का नजरिया बदल दिया था। परंतु 9/11 के बाद स्थितियां बदलने लगी। यद्यपि, अमेरिका द्वारा अपनी सेनाओं को वापस बुला लेने से अफगानिस्तान एक बार पुन अंधकार में आ गया और यह चीन और पाकिस्तान दोनों देशों को अत्यधिक चिंतित करने वाला है।
तालिबान गेम प्लान
8 अगस्त 2021 : लाल रंग में तालिबान क्षेत्र, सलेटी में अफगान सरकार, नारंगी में चुनाव लड़ा
अगस्त 2021 के शुरू में तालिबान ने अफगान के 85 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने लगभग सभी प्रमुख सीमावर्ती जिलों पर कब्जा कर लिया जो महत्वपूर्ण हैं। शहर दर शहर हाथ से निकल रहे है और अफगान सेना बिना युद्ध लड़े हार मान रही है। अफगानिस्तान में तालिबान के निम्नलिखित स्पष्ट लक्ष्य हैं :
तालिबान जानता है कि काबुल में सरकार गिराना उनके हित में नहीं होगा। यह अनावश्यक रूप से अंतर्राष्ट्रीय ध्यान, संभावित सैन्य कार्रवाई और प्रतिबंधों को आकर्षित करेगा। यदि तालिबान बुद्धिमान होगा तो वह अफगान सरकार को क्षति पहुंचाए बिना ही प्रमुख अड्डों पर शासन करेगा। सत्ता का आनंद लेने और फिर भी जिम्मेदारी न होने से बेहतर क्या हो सकता है? पिछले कुछ वर्षों से तालिबान परिपक्व हुआ है, हालांकि, तालिबान के पूर्व रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए कुछ भी असंभव नहीं है, यहां तक कि कोई ऐसा कदम भी जो उनके किसी उद्देश्य की पूर्ति न करे।
तालिबान चीन के लिए कोई अनजान इकाई नहीं है। वे पूर्व में भी एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। चीन शासन के तरीकों की परवाह किए बिना ही किसी देश की सरकार के साथ काम करना पसंद करता है। यहां तक कि पाकिस्तान के मामले में भी, वे जानते हैं कि किसके पास सत्ता है और किससे बात करनी है। हालाँकि, अफगानिस्तान के मामले में वे भिन्न हैं।
28 जुलाई को चीनी विदेश मंत्री वांग यी और तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के बीच क्या हुआ, यह वे बेहतर जानते हैं, लेकिन अतीत में बीजिंग ने शांति के बदले ऊर्जा और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में निवेश की पेशकश की थी। इस बार वे और भी अधिक प्रस्ताव दे सकते थे। चीन लंबे समय से अफगानिस्तान को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के विस्तार का प्रलोभन दे रहा है। लेकिन चीनी नेतृत्व इस बात से पूर्णतः अवगत है कि वे जो कुछ भी करेंगे, इससे उनकी स्वप्न परियोजना बीआरआई और अरबों डॉलर का निवेश नष्ट हो जायेगा।
चीन की मूलभूत चिंता तालिबान का पूर्वी तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) के साथ घनिष्ट संबंध है। तालिबान अन्य आतंकवादी समूहों से संबंध रखते हुए वास्तविक राजनीति में रहने की स्थिति में नहीं है। बदख्शां जो अब तालिबान के नियंत्रण में है, के अधिकांश लड़ाके ताजिक, उज़्बेक, उइघुर और चेचन हैं। तालिबान इस बात को बखूबी समझता है कि इन विदेशी लड़ाकों की लगातार आपूर्ति इनके अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है। इसलिए, भले ही तालिबान ने चीन को आश्वासन दिया कि अफगान की धरती का प्रयोग चीन के हितों के विरुद्ध नहीं किया जाएगा, परन्तु दोनों पक्ष यह अच्छी तरह से जानते हैं कि इस वादे को निभा पाना बहुत कठिन होगा।
इस क्षेत्र में चिंता का एक और बिन्दु पाकिस्तान है। वे अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और उनकी टीम से अत्यधिक घृणा करते हैं लेकिन तालिबान को लुभाने के अन्य दुष्प्रभाव हैं। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), या तथाकथित “पाकिस्तानी तालिबान”, तालिबान के उदय से निश्चित रूप से लाभान्वित होगा। टीटीपी लंबे समय से पाकिस्तानी प्रतिष्ठानों को चुनौती देता आ रहा है। उन्होंने पाकिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रहे चीनी कामगारों के खिलाफ भी कार्रवाई की है। दोनों तालिबान समूहों के मध्य जटिल संबंध हैं लेकिन फिर भी, अफगान तालिबान ने लंबे समय से टीटीपी को संरक्षण दिया है और यह समीकरण बदलने वाला नहीं है।
चीनी दुविधा और निराशा
चीन अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना बल पर बहुत समय से आपत्ति कर रहा है। अब, जब वापसी एक वास्तविकता बन गई है और स्थितियां और बिगड़ रही है, चीन ने अपना रुख बदल दिया है। यह इस तरह अचानक वापसी करने के लिए अमेरिका की आलोचना कर रहा है। चिंतित चीनी नेतृत्व के दिमाग में बहुत कुछ चल रहा है। व्यापक मुद्दे निम्न हैं :
अफगानिस्तान में चीन की दिलचस्पी मुख्य रूप से उसके बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की सुरक्षा से जुड़ी है। चीनी सरकार बुनियादी ढांचे का निर्माण करते हुए अफगानिस्तान को दरकिनार कर सकती है, हालांकि, चीनी सरकार के लिए यह इतना आसान नहीं होगा। अफगानिस्तान दो प्रमुख मार्गों के बीच है। ये महत्वपूर्ण मार्ग पश्चिम की ओर मध्य एशिया और दक्षिण की ओर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के माध्यम से हिंद महासागर और मध्य पूर्व तक जाते हैं। अफगानिस्तान में किसी भी तरह की अस्थिरता का अभिप्राय बीआरआई के इन बेहद महत्वपूर्ण हिस्सों के लिए खतरा होगा।
फाइव नेशन रेलवे कॉरिडोर: सौजन्य insightful.co.in
चीन अपनी एक और महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआई ‘द फाइव नेशंस रेलवे प्रोजेक्ट’ के संबंध में भी चिंतित है। यह परियोजना क्षेत्र में अफगानिस्तान की रणनीतिक स्थिति को दर्शाती है। 2,100 किमी की यह रेलवे परियोजना चीन को मध्य एशिया (ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान), अफगानिस्तान, ईरान और यूरोप से जोड़ने के लिए थी। एक मजबूत अफगान सरकार का बने रहना चीन के लिए एक आदर्श प्रस्ताव था, और उन्हें यूएस सुरक्षा कवच की कमी महसूस नहीं होनी चाहिए।
बीआरआई का डिजिटल सिल्क रोड कार्यक्रम: सौजन्य insightful.co.in
अफगानिस्तान मध्य पूर्व और यूरोप में चीन के फाइबर ऑप्टिक्स लिंकेज के लिए सबसे छोटा मार्ग भी प्रदान करता है। बीआरआई के ‘डिजिटल सिल्क रोड’ कार्यक्रम के अंतर्गत चीन ने वखान कॉरिडोर के माध्यम से अफगानिस्तान के फाइबर ऑप्टिक्स कनेक्टिविटी में निवेश किया। यह अगस्त 2017 में हस्ताक्षरित एक समझौते के द्वारा किया गया था। यह चीनी अधिकारियों के लिए एक जीत की स्थिति थी। संयुक्त राज्य अमेरिका बुरे लोगों से लड़ रहा था और चीन अपने व्यापार का विस्तार कर रहा था।
चीन को दुनिया के दूसरे सबसे बड़े तांबे के भंडार, और खानों के अनुबंध को पुनर्जीवित करने की भी बहुत उम्मीद थीं। चीनी सरकार ने संगमरमर और अलबास्टर खनिज निष्कर्षण में निवेश करने की रुचि भी व्यक्त की। फिलहाल तो सब कुछ अधर में ही लग रहा है।
तालिबान के कायाकल्प के साथ, शिनजियांग क्षेत्र में अलगाववादी आंदोलन के पुनरुद्धार का चीनी डर एक वास्तविकता बन सकता है। चीनी आशंकाओं को गलत नहीं ठहराया जा सकता, भले ही हाल के दिनों में चीन में लगभग हर हमला स्वदेशी ही रहा हो, और यह किसी अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़ा न हो। हालांकि, माहौल तेजी से बदल रहा है। तुर्केस्तान इस्लामिक पार्टी या ईटीआईएम सीरिया के गृहयुद्ध से सीख लेते हुए एक अधिक सक्षम पक्ष के रूप में उभरा है।
चीन की एक और चिंता उत्तरी सीरिया से शक्तिशाली लड़ाकों की वापसी को लेकर भी है। पिछले एक दशक में चीन को कई अन्य आतंकवादी समूहों द्वारा भी निशाना बनाया गया है जिन्होंने पहले इसका साथ दिया था। चीन जानता है कि तालिबान चीन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण शिनजियांग में चीनी अत्याचारों से आंखें मूंद सकते हैं, लेकिन अफगानिस्तान के भीतर की स्थिति इन समूहों के लिए अनुकूल होती जा रही है। चीन की मुख्य भूमि पर हमले संभव नहीं हो सकते हैं। चीनी हित दूरगामी है। मध्य एशिया, मध्य पूर्व या अफ्रीका में इसके व्यवसाय सुरक्षित नहीं हैं। सबसे बुरी बात यह है कि चीन के पास इसका मुकाबला करने के लिए कोई रणनीति या योजना नहीं है। यह इस पूरे क्षेत्र में अमेरिकी उपस्थिति पर बहुत अधिक निर्भर था।
हर तूफान के केंद्र में पाकिस्तान
पाकिस्तान में चीन के तीन सुपरिभाषित लक्ष्य हैं :
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के सत्ता में आने के तुरंत बाद दो महत्वपूर्ण तथ्यों को महत्व दिया। पहली भारत आगे बढ़ेगा और भविष्य में चीन को चुनौती देगा। दूसरा, पाकिस्तानी सेना महत्वपूर्ण होने की अपनी इच्छा में कुछ भी कर सकती है।
पाकिस्तान की रणनीतिक स्थिति देश के लिए वरदान साबित हो सकती थी, लेकिन किसी अनभिज्ञ कारण से उन्होंने अलग रास्ता चुना। अफगानिस्तान चार रेलवे बिंदुओं पर पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है। ये संबंध संभावित रूप से अफगानिस्तान को सीपीईसी और पाकिस्तान को व्यापार के लिए मध्य एशिया से जोड़ सकते हैं। हालाँकि, पाकिस्तान ने कभी वह रास्ता नहीं अपनाया क्योंकि वह मार्ग न तो चीन के अनुकूल है और न ही पाकिस्तानी सेना के। इस सौदेबाजी में पाकिस्तान को द्विपक्षीय व्यापार में वार्षिक लगभग दो अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है।
2002 तक अफगानिस्तान से तालिबान का पूरी तरह से सफाया हो गया था। हालांकि, जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने वर्ष 2004 में अपना ध्यान इराक पर केंद्रित किया, तो पाकिस्तानी सेना ने इस अवसर का उपयोग किया और तालिबान को मदद का हाथ बढ़ाया। उन्होंने अफगानिस्तान में प्रमुख सेना का दर्जा हासिल कर लिया। मदद या कोई मदद न हो, तालिबान एक अविश्वसनीय इकाई बना हुआ है। पाकिस्तान, अपने सभी प्रभावों के बावजूद, तालिबान को टीटीपी के साथ उनके जुड़ाव को छोड़ने के लिए मनाने में असमर्थ है। तालिबान ने अल-कायदा को खारिज करने के अपने वादे को भी पूरा नहीं किया है।
भले ही इन नीतियों ने पाक सेना के उद्देश्य को भली भाँति पूरा किया, लेकिन इससे पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में लाभ नहीं हुआ। आज पाकिस्तानी सेना खुद को चट्टान और कठोर स्थान के बीच फंसा हुआ पाती है। तालिबान पर पाकिस्तान की पकड़ से चीन वाकिफ है। इसलिए, वे स्थानीय और साथ ही अफगान तालिबान पर लगाम लगाने के लिए पाक सेना पर दबाव बना रहे हैं। पश्चिमी दबाव और प्रतिबंधों के डर से पाकिस्तान ने फिलहाल तालिबान से दूरी बनायी हुई है परन्तु यह लंबे समय तक नहीं हो पायेगा। पाकिस्तानी एनएसए मोईद यूसुफ ने पाकिस्तान और अफगान तालिबान को एक ही सिक्के के दो पहलू करार दिया है। पाकिस्तान की स्थिति चिंताजनक है। यदि वे तालिबान का समर्थन करते हैं और उनके साथ काम करते हैं तो वे पश्चिम से संकट की स्थिति में होंगे और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो भी वे चीन से संकट में हैं। लेकिन सबसे बड़ा झटका तालिबान से लगेगा जो पाकिस्तानी सेना के ड्रग मनी को रोक देगा।
भारत कहां खड़ा है
भले ही महाभारत से लेकर चंद्र गुप्त तक महाराजा रणजीत सिंह और कई अन्य भारतीय राजाओं ने अतीत में अफगानिस्तान को अपने अधीन कर लिया था, आधुनिक भारत सदैव ही अफगानिस्तान के साथ रचनात्मक गतिविधियों में शामिल रहा है। इस तथ्य को अफगान सरकार भी स्वीकार करती है परंतु तालिबान इसे मानने को तैयार नहीं है।
भारत ने अफगानिस्तान के सामाजिक और आर्थिक मामलों के लिए 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का वादा किया। यह ‘रणनीतिक भागीदारी समझौते’ का एक हस्ताक्षरकर्ता है जो अफगान सुरक्षा एजेंसियों की सहायता करता रहेगा। भारत उन्हें सैन्य सहायता देता है और भारतीय सैन्य अकादमियों में उनके कैडेट अधिकारियों को प्रशिक्षण भी मिलता है।
वर्तमान परिदृश्य में, भारत बहुत कठिन स्थिति में है। तालिबान का साथ देना अथवा इंकार करना एक मिलियन डॉलर का प्रश्न है। इससे भारत अफगान सरकार के साथ-साथ अफगान नागरिकों के साथ सद्भावना को जोखिम में डालेगा। तालिबान के साथ भारत के संबंध स्पष्ट होने चाहिए। इससे वे अफगानी आश्वस्त होंगे जो तालिबान का समर्थन नहीं करते।
भविष्य अंधकारमय परंतु स्पष्ट है
अफगानिस्तान में गृहयुद्ध एक निर्धारित निष्कर्ष है। अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी लंबी दौड़ की तैयारी कर रहे हैं। यह आम तौर पर इस क्षेत्र और विशेष रूप से चीन और पाकिस्तान के लिए अच्छी खबर नहीं है।
अफगानिस्तान की स्थिति चीन को बहुत अधिक चिंता की स्थिति में डाल देगी। उनके पास शी जिनपिंग की हस्ताक्षर परियोजना, तथा बीआरआई पर और बहुत कुछ है। जब से उन्होंने प्रभार संभाला है, चीनी विकास दर स्थिर हो गई है, अनुमोदन रेटिंग गिर गई है, और जनसंख्या वृद्धि में कमी आयी है। यह उसकी चिंता को बहुत अधिक बढ़ाता है। घबराहट में वह अपनी सभी वार्ताओ मे पीएलए से वफादारी और समर्थन की मांग कर रहा है। वह जानता है कि चीनी नागरिक अधिक समय तक नकली राष्ट्रवाद की इस लहर में नही आएँगे। उसे बाहर निकल कर समाप्त करना होगा ।
अपनी परियोजनाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए चीन पाकिस्तान पर बहुत अधिक निर्भर है। और अंतत चीन पाकिस्तान पर अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप करने का दबाव डालेगा। अब प्रश्न यह है कि क्या पाकिस्तान के पास अफगानिस्तान में हो रही घटनाओं को नियंत्रित करने की क्षमता और सामर्थ है। अफगानिस्तान पाक सेना का वाटरलू सिद्ध होने वाला है और जब ऐसा होगा तो चीन अपनी आर्थिक शक्ति का प्रयोग राज्यों का एक गुट बनाने और न केवल अफगानिस्तान बल्कि पूरे मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान) और पाकिस्तान में भ्रष्टाचार, कमजोर शासन और अस्थिरता को दूर करने के लिए करेगा। ब्लॉक के उपयोग द्वारा चीन अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने और संयुक्त राष्ट्र में जवाबदेही से बचने का प्रयास करेगा।
भारत जैसे देशों को अतिरिक्त सुरक्षा की आवश्यकता है। पाकिस्तान, चीन और रूस के बीच रणनीतिक सहयोग सर्वकालिक उच्च स्तर पर है और यह दक्षिण एशियाई प्रमुख के लिए अच्छा नहीं है। भारत को अशांत अफगानिस्तान में अपने निवेश और 20 साल की कड़ी मेहनत को बचाने के लिए रूस को नियमित रूप से इसमें शामिल करने के प्रयास करने होंगे। भारत को ईरान के साथ अपना सहयोग बढ़ाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि ईरान किसी ऐसे चीनी गुट के झांसे में न आए जो इस क्षेत्र के लिए हानिकारक हो। भारत को अफगानिस्तान में भारत को अवरुद्ध करने के पाकिस्तान के जुनून, जो वर्तमान मे चरम पर है , उसका मुकाबला करने के लिए एक रणनीति बनानी होगी
अंत में एडवर्ड रदरफर्ड कहते हैं, “सभी साम्राज्य अभिमानी हो जाते हैं। यह उनका स्वभाव है।” अफगानिस्तान कई साम्राज्यों का कब्रिस्तान रहा है। क्या अब यह शी जिनपिंग के राष्ट्रपति पद का कब्रिस्तान बन जाएगा और उनके अहंकार को समाप्त कर देगा? कई चीनी नेता शी जिनपिंग का स्थान लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह तो वक्त ही बताएगा कि यह साहसिक कदम कब और कौन उठाएगा।
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