• 29 March, 2024
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अमर जवान ज्योति – अनावश्यक विवाद

कंवल सिब्बल
शनि, 29 जनवरी 2022   |   5 मिनट में पढ़ें

अमर जवान ज्योति को इंडिया गेट से राष्ट्रीय युद्ध स्मारक (एनडब्ल्यूएम) में स्थानांतरित करने के निर्णय पर विवाद पूरी तरह से अनावश्यक है। अमर जवान ज्योति (एजेजे) 1971 के युद्ध के शहीदों की स्मृति में जलायी गयी है, न कि अविभाजित भारत के सैनिकों की स्मृति में, जो प्रथम विश्व युद्ध (और भारत-अफगान युद्ध) में अंग्रेजों के लिए लड़ते हुए शहीद हुए थे। उनके नाम तो इंडिया गेट की दीवारों पर खुदे हुए हैं।

इंडिया गेट पर ज्योति स्थापित करने का मूल निर्णय उचित नहीं था। यह एक शाही स्मारक है, जो अंग्रेजों द्वारा भारत की अधीनता का प्रतीक है। पश्चिमी परंपरा में विजय द्वारों का निर्माण किया जाता था जो रोमन काल की याद दिलाता है। पेरिस में नेपोलियन की सेना ने जीत का जश्न मनाते हुए आर्क डी ट्रायम्फ का निर्माण किया था जो उस परंपरा की सबसे प्रभावशाली संरचना है। अमर जवान ज्योति को इंडिया गेट पर रखने का मतलब है स्वतंत्र भारत को ब्रिटिश शासन का प्रतीक बनाना, जो ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा में मरने वालों और स्वतंत्र भारत के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों को एक समान दर्शाता है। जैसा कि रिकॉर्ड दिखाते हैं, पहले ज्योति को एक अस्थायी स्थान पर रखने का इरादा थ। इस तरह अमर जवान ज्योति को एनडब्ल्यूएम में स्थानांतरित करने का निर्णय सही है।

कुछ लोगों द्वारा यह तर्क दिया जा रहा है कि ज्वाला बुझाने से शहीद सैनिकों को दी जाने वाली श्रद्धांजलि की शाश्वत प्रकृति बाधित होती है। उनको जान लेना चाहिए कि मौजूदा ज्योति से एक मशाल को एनडब्ल्यूएम में नई ज्योति तक ले जाया गया है और इस तरह ज्योति की “निरंतरता” से समझौता नहीं किया गया है। दोनों स्थानों पर गैस समान है और ऐसा नहीं है कि एक जगह की गैस से दूसरी भिन्न है, या एक ज्योति के माध्यम से वीरता को दर्शाने वाली लौ स्थान में बदलाव से कम हो जाती है। ओलंपिक ज्योति का ही उदाहरण लिया जा सकता है जिसे एक देश में खेलों के अंत में बुझाया जाता है, और बुझायी जाने वाली ज्योति से मशाल जलाकर ओलंपिक खेलों के अगले मेजबान देश में ले जाया जाता है। इंडिया गेट, जो विदेशी शासन का प्रतीक है, उससे कोई भी भावनात्मक लगाव प्रदर्शित करना वीरों का सम्मान नहीं हो सकता।

दूसरा तर्क है कि दोनों लपटें जलती रह सकती थीं और विवाद से बचा जा सकता था। 1971 के शहीदों को एनडब्ल्यूएम में भी याद किया जाता है। साथ ही उन सभी युद्धों में शहीद हुए वीरों को भी जो स्वतंत्र भारत में लड़े गये हैं। 1971 के शहीदों के लिए दो अलग-अलग ज्योति का कोई मतलब नहीं है। राष्ट्रीय अवसरों पर पुष्पांजलि के औपचारिक समारोह और विदेशी नेताओं का दौरा एनडब्ल्यूएम में होगा, न कि इंडिया गेट पर। इससे इंडिया गेट की ज्योति का महत्व कम होता है।

अमर जवान ज्योति को 2019 में एनडब्ल्यूएम में स्थानांतरित क्यों नहीं किया गया, जब उसे बनाया गया था, यह एक वाजिब प्रश्न है। लेकिन यह कहना कि पहले क्या किया जा सकता था और किया जाना चाहिए था, उसे बाद में करने से गलत हो जाता है। समय पर निर्णय केवल इसलिए असामयिक नहीं हो जाते क्योंकि इसमें देरी होती है। हो सकता है कि सेंट्रल विस्टा के जीर्णोद्धार की परियोजना के कारण यह निर्णय अब लिया जा रहा है।

कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने अमर जवान ज्योति को स्थानांतरित करने का इसलिए विरोध किया है कि इंडिया गेट पर जिनके नाम हैं, वे भी तो भारतीय हैं, भले ही वे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लड़े। उनके बलिदानों को स्वतंत्र भारत द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। मानवीय स्तर पर स्वीकार करने और राष्ट्रीय मान्यता देकर सम्मान देने के बीच एक बड़ा अंतर है।

ये सैनिक भारत को आजाद कराने के लिए नहीं शहीद हुए; वे ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण के लिए और भारत पर उसके औपनिवेशिक अधिकार के लिए मारे गए। उन्हें भाड़े के सैनिकों के रूप में वर्णित किया जा सकता है या नहीं यह भी एक मुद्दा है। नेहरू ने अपने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में बर्मा, चीन, ईरान, मध्य पूर्व और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में भारतीय सैनिकों को भाड़े के सैनिकों के रूप में इस्तेमाल किए जाने का उल्लेख किया है। वे इन सभी देशों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक बन गए और वहां के लोग भारत के खिलाफ हो गये। मुझे एक मिस्रवासी की कड़वी टिप्पणी याद है: “आपने न केवल अपनों को खोया, बल्कि आप दूसरों को गुलाम बनाने में अंग्रेजों की मदद किये हैं”।

नेहरू ने जो कहा वह मूलतः सही है, हालांकि यह आरोप कि “भारत” ने अंग्रेजों को दूसरों को गुलाम बनाने में मदद की, झूठ है, क्योंकि भारतीय नेतृत्व के नियंत्रण में अपना देश नहीं था। वे साम्राज्यों से लड़ने के लिए भारतीयों की भर्ती को रोक नहीं सकते थे। वे न केवल युद्ध करते थे बल्कि अपने ही लोगों की स्वतंत्रता का दमन भी करते थे। भारत में ब्रिटिश सैनिकों की संख्या हमेशा कम थी; उन्होंने भारतीय रेजिमेंटों के समर्थन से देश पर शासन किया। 1942 में कांग्रेस नेतृत्व के भारत छोड़ो आह्वान और द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने के लिए भारतीय सैनिकों की भर्ती में अंग्रेजों की मदद करने की अनिच्छा के बावजूद, भर्ती के लिए भारतीय, विशेष रूप से मुस्लिम, बड़ी संख्या में आए। 1942 में एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में नेहरू ने इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से देखा। भारत के आजाद होने के बाद इस सच्चाई को छुपाने की कोई वजह नहीं है।

स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेता हमारे अपने सशस्त्र बलों की संवेदनशीलता के कारण इन सैनिकों को भाड़े के सैनिक बुलाने की इच्छा नहीं दिखायी। आज, वे उन शहीद सैनिकों की स्मृति में यूरोप के शहीद स्थलों पर जाकर अपने लोगों के बलिदान के साथ खुद को जोड़ने को तैयार है। भारतीयों ने भारत के स्वतंत्र नहीं होने पर भी यूरोपीय राष्ट्रों की ओर से अपने प्राणों की आहुति दी। उसे आज इसलिए महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि स्वतंत्र भारत और यूरोप मित्रता और पारस्परिक लाभ के नए संबंध बना रहे हैं। यह एक कूटनीतिक रुख है, जो इस वास्तविकता को नहीं बदल सकता कि अंग्रेज इन सैनिकों को यूरोप लाए थे। बदले परिदृश्य में राजनयिक कारणों से हम इन सैनिकों के प्रति राष्ट्रीय कृतज्ञता दिखाएं, इसका कोई मतलब नहीं है।

हमारी मीडिया में कुछ लोगों को यह तर्क देना चाहिए कि इन सैनिकों ने फासीवाद और नरसंहार के खिलाफ भारत की लड़ाई लड़ी थी और हम उनको अपना रहे हैं, जो हास्यास्पद है। यह दिखाता है कि मोदी सरकार के प्रति राजनीतिक घृणा के कारण हमारा तर्क कितना विकृत हो गया है। दूसरी बेतुकी तुलना भारतीय सेना में सेवारत नेपाली गोरखा सैनिकों से है। नेपाल एक संप्रभु देश है और भारत के साथ उसकी खुली सीमा है जो संबंधों की निकटता का प्रतीक है। भारत और ब्रिटेन के साथ ऐसा कोई संबंध नहीं था।

इसी तरह, आईटीबीपी में तिब्बतियों को भाड़े के सैनिक नहीं कहा जा सकता। तिब्बती शरणार्थियों को उनकी मातृभूमि से बेदखल कर दिया गया है जो विदेशी कब्जे में है। वे लौटने की आशाओं के साथ संघर्ष कर रहे हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक सैनिकों को भारत से बेदखल नहीं किया गया था और उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों के साथ मिलकर अपनी मातृभूमि को फिर से जीतने की उम्मीद नहीं की थी। यह तर्क देना कि फ्रांस में 14 जुलाई की परेड में भाग लेने वाला एक भारतीय दल और मॉस्को में विजय दिवस समारोह में भाग लेने वाला भारत की तीनों सेनाओं का एक दल इस तर्क की पुष्टि करते हैं कि भारतीय सैनिकों ने दोनों विश्व युद्धों को राष्ट्रीय हितों के लिए लड़ा था, कोरी बकवास है। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के 64 और 75 साल बाद उठाए गए ये कदम आज की राजनीति और कूटनीति को दर्शाते हैं, अतीत को नहीं।

दोनों ज्योतियों के “विलय” पर छिड़ी बहस कई मायनों में वास्तिकता से परे है, जो आज के राजनीतिक ध्रुवीकरण का नतीजा है।

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लेखक
कंवल सिब्बल एक प्रतिष्ठित राजनयिक हैं जो भारत सरकार के विदेश सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं। 2017 में भारत सरकार ने उन्हें सार्वजनिक मामलों के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया।

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