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अब उड़ान भरने के लिए तैयार एयर इंडिया; अलविदा फैबियन समाजवाद

मेघनाद देसाई
रवि, 10 अक्टूबर 2021   |   4 मिनट में पढ़ें

टाटा संस को एयर इंडिया की बिक्री कोई साधारण निजीकरण नहीं है। यह एक से अधिक अर्थों में ‘घर वापसी’ है। 1932 में महान भारतीय उद्यमी जेआरडी टाटा द्वारा टाटा एयरलाइंस के रूप में शुरू की गयी एयर इंडिया दुनिया की शुरुआती एयरलाइनों में से एक थी। जिस तरह जमशेदजी टाटा ने बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में लोहा और इस्पात कंपनी बनाई, उसी तरह उनके वंशज ने एक एयरलाइन की स्थापना की। टाटा ने इसे एक व्यवसाय के रूप में सफलतापूर्वक चलाया, इसका विस्तार किया, 1946 में इसका नाम एयर इंडिया रखा और अपने पोर्टफोलियो में   अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के साथ, यह 1948 में एयर इंडिया इंटरनेशनल बन गयी।

एयर इंडिया में कुछ भी गलत नहीं था। जवाहरलाल नेहरू द्वारा फैबियन समाजवाद की हठधर्मिता के अलावा एयरइंडिया में और किसी भी तरह की अन्य परेशानी नहीं थी। नेहरू ने जेआरडी से कहा था कि लाभ एक खराब शब्द है। एक लोकप्रिय नेता नेहरू, जिसे महात्मा गांधी द्वारा उत्तराधिकारी के रूप में चुने जाने के व्यापक रूप में देखा जाता था, उनके पास अपनी इच्छा अनुसार भारत और उसकी अर्थव्यवस्था को आकार देने की शक्ति थी और ऐसा उन्होंने किया। दुर्भाग्यवश, उनका चुनाव गलत था। इतना गलत कि उन्होंने भारत को चालीस साल के आर्थिक ठहराव, भुखमरी और निरंतर गरीबी की सजा सुना दी। एयर इंडिया का अनुभव वह बीमारी है, जिससे भारत अभी तक पूरी तरह से उबर नहीं पाया है।

1953 में एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इस निर्णय का कोई विवेक पूर्ण कारण नहीं था। यह  समाजवादी विचारों वाली अर्थव्यवस्था की उल्लेखनीय उपलब्धियों’ को निजी क्षेत्र में ले जाना था। लेकिन उस समय हाल ही में शुरू की गई किसी एयरलाइन को संभवतः उल्लेखनीय उपलब्धियों के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता था। हर प्रकार से यह यात्रा का उच्चस्तरीय परिवहन साधन मात्र था जो अधिकांश लोगों के अनुकूल नहीं था। रेलवे का राष्ट्रीयकरण करना एक अलग बात थी, लेकिन एयरलाइन क्यों?

68 वर्षों के बाद निजी क्षेत्र में एयर इंडिया की वापसी यह संकेत देती है कि भारतीय आर्थिक नीति के साथ अभी भी बहुत कुछ गलत है। कांग्रेस हो या भाजपा, सरकारी हलकों में निजी क्षेत्र के प्रति गंभीर अविश्वास है। राव-सिंह सरकार ने भारत के निराशावादी निर्यात से नाता तोड़ लिया और 44 साल की निरंकुशता या राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के बाद अर्थव्यवस्था को खोल दिया था। लेकिन वाम, दक्षिण पंथी या किसी भी अन्य विचारधारा के भारतीय राजनेताओं को निजी क्षेत्र पसंद नहीं है।

दक्षिण कोरिया, जिसे जापानी साम्राज्यवाद से दशकों बाद प्राप्त अपनी स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में एक गंभीर  समस्या का सामना करना पड़ा था, विकास के रास्ते पर शुरुआत में उसने सरकार और व्यापार में परस्पर सहयोग का रास्ता चुना। विश्व बैंक ने दक्षिण कोरिया को भारत की रणनीति का पालन करने की सलाह दी लेकिन कोरिया ने  इसे बड़ी विनम्रता से खारिज कर दिया। 1960 में भारत से गरीब दक्षिण कोरिया अब कई गुना अमीर और ओईसीडी का सदस्य है।

भारत का एशिया में  पिछड़ने  का एक उदाहरण एयर इंडिया है। जब इंडियन एयरलाइंस ने अंतर्देशीय हवाई यात्रा पर एकाधिकार स्थापित कर लिया था उस दौरान मुझे सीट आरक्षित होने के बावजूद यात्रा करने में होने वाली  परेशानियां याद हैं। अन्य निजी एयरलाइनों के परिचालन के बाद ही हवाई यात्रा सुखद हुई। इंडियन एयरलाइंस के पास धन की कमी होने लगी। इसलिए इसका विलय एयर इंडिया में कर दिया गया। इंदिरा गाँधी की राष्ट्रीयकृत बैंकों के समान ही इस सर्वोच्च मूढ़ता  के कारण,  एक दर्जन वर्षों तक नुकसान लगातार बढ़ते रहे। सरकार ने एयर इंडिया को चालू रखने के लिए 1,10,276 करोड़ रुपये के परिचालन घाटे को कवर किया। उस पैसे से आप साल भर में कितने बच्चों का पेट भर सकते थे?

एयर इंडिया के नुकसान बहुत विशाल थे। जो लोग इसका बचाव करते हैं वे उस यूनिट में काम करने वाले लोग हैं या एयर इंडिया के मामले में निजी क्षेत्र के कर्मचारी, राजनेता और मंत्री हैं, जिन्हें यात्रा का विशेषाधिकार मिलता है।  नुकसान गरीबों की जेब से भरना पड़ता है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र और अन्य यूनिटों की अकुशलता के कारण सरकार को अच्छी खासी रकम खर्च करनी पड़ती है जिससे गरीबों को भोजन, कपड़े और  छत सब मिल सकता  था।

एक अनुमान के अनुसार टाटा को 153 अरब रुपये से अधिक का नुकसान  हुआ और 27 अरब रुपये नकद (मैंने अन्य अनुमान भी देखे हैं) का भुगतान किया गया, जिससे सरकार को 463 अरब रुपये का नुकसान और 147 अरब रुपये की अन्य (जंक संपति) क्षति हुई। जब आप कर्ज के आकार के बारे में सोचते हैं, तो वास्तव में एयर इंडिया की   उपलब्धि नकारात्मक थी। टाटा का इतना उदार  होना सरकार के लिए भाग्यशाली है।

घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचने में काफी देरी हुई है। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान कुछ कार्रवाई हुई, जब अरुण शौरी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचने में एक सफल मंत्री साबित हुए। लेकिन, कुल मिलाकर, निजीकरण पर कर्मचारी संगठनों द्वारा आपत्ति का डर था।  इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है, क्योंकि यह नुकसान उनका वेतन होता। सार्वजनिक क्षेत्र के घाटे को पूरा करने के लिए अधिकांश गरीब भारतीयों पर कर लगाने का विचार किया जा सकता था परंतु कोई भी राजनेता कर लगाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता।

स्वतंत्रता के समय भारत सातवां सबसे बड़ा औद्योगिक देश था। इसके पास अनेक शताब्दियों से एक परिष्कृत वित्तीय नेटवर्क वाली निजी क्षेत्र अर्थव्यवस्था की परंपरा थी और यह दो समृद्ध क्षेत्रों में से एक था। इंग्लैंड में अठारहवीं शताब्दी के अंत में औद्योगिक क्रांति आयी, जिसमें नई तकनीक ने पुरानी तकनीक को यूरोप के साथ-साथ शेष दुनिया में भी बदल दिया, भारत ने एशिया या अफ्रीका के अन्य सभी देशों में सबसे पहले औद्योगिकीकरण शुरू किया। इसके पास किसी भी अन्य देश से पहले कपड़ा मिलें और रेलमार्ग थे।

लेकिन स्वतंत्र होने के बाद तर्क यह था कि अंग्रेजों ने भारत का गैर-औद्योगिकीकरण कर दिया। (भारत 1947 में सातवां सबसे बड़ा औद्योगीकृत देश था)। सबसे अधिक हानिकारक तर्क यह था कि केवल सार्वजनिक क्षेत्र वाला फेबियन समाजवादी मार्ग ही भारत का औद्योगीकरण कर सकता है।

नेहरू के पास सत्ता थी और उनका प्रभाव भी था। पूर्व-औपनिवेशिक देशों द्वारा सोवियत संघ को सफलता के मार्ग  के रूप में देखा जाता था। नेहरू ने भारत को सार्वजनिक क्षेत्र और योजना के मार्ग से हटा दिया। भारत के पास विश्व -स्तरीय कपड़ा उद्योग था लेकिन निजी होने के कारण यह हतोत्साहित हो गया। सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश महंगा और अनुत्पादक था। योजना दर को व्यय और वृद्धि के लक्ष्यों के साथ तैयार किया गया था। विकास दर लगभग 3% प्रति वर्ष और प्रति व्यक्ति 1% या  उससे कम  थी – जो चालीस वर्षो से  तथाकथित हिन्द विकास दर थी।

हम आशा करते हैं कि एयर इंडिया की बिक्री भारतीय आर्थिक नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। हमें अपनी गलतियों से सीखने के लिए 75 साल काफी हैं। निजीकरण कार्यक्रम थोक में होना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की बिक्री की बड़ी सेल लगाई जाए। नुकसान में भारी कमी लाओ। गरीबी मिटाने के लिए निजीकरण के मार्ग पर चलो।

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लेखक
मेघनाद देसाई एक ब्रिटिश अर्थशास्त्री और पूर्व लेबर राजनेता हैं। वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर एमेरिटस हैं।
उन्हें 2008 में भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है।

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