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अफगानिस्तान : धन का आभाव!

सुशांत सरीन
सोम, 23 अगस्त 2021   |   6 मिनट में पढ़ें

अफगानिस्तान : धन का आभाव!

सुशांत सरीन

अफगानिस्तान पर कब्जा करना आसान था परंतु अफगानिस्तान को चलाना अधिक कठिन और जटिल कार्य है। खासकर तब जब खजाना खाली हो। काबुल के साथ-साथ लगभग पूरे देश पर कब्जा कर लेने के एक सप्ताह पश्चात ही तालिबान को यह आभास हो गया कि विद्रोह और देश का प्रशासन एक ही बात नहीं है।

अफगानिस्तान केवल एक समस्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन इस समस्या का समाधान करना तो दूर इसे रोक पाना भी तालिबान के लिए ‘मिशन इम्पॉसिबल’ होगा, जिसकी मानसिकता छठी शताब्दी की है। मध्यकालीन हथियार है और एक ऐसा कौशल जिसके द्वारा उस युग में राज्य को चलाने के लिए संसाधन जुटाने की प्रणाली ‘माल- ए- घनीमत’  (युद्ध की बर्बादी) थी।

निःसंदेह, तालिबान के पास एक ऐसा सक्षम जनसंपर्क तंत्र है, जिससे वह  इस 21वीं सदी में  भी कहानियाँ गढ़ने और प्रेस सम्मेलन आयोजित करने में अग्रणी है। लेकिन जब तिजोरी खाली हो तो कोई भी योग्य व्यक्ति इसका समर्थन नहीं करेगा। शेष विश्व भी ‘अमीरात’ के लिए दरवाजे बंद कर रहा है और इनकी सत्ता हथियाने का जश्न मनाने वाले लोग या तो कट्टर इस्लामवादी है या पाकिस्तानी, जिनमें से कोई भी राज्य को वित्तपोषित करने की स्थिति में नहीं है।

अमीरात की प्रशासनिक, राजनीतिक, विदेश नीति, सुरक्षा, शासन, संगठनात्मक और अन्य  सभी चुनौतियों के  अतिरिक्त इसकी सबसे  बडी चुनौती आर्थिक है। सीधे शब्दों में कहें तो अमीरात को चलाने के लिए पैसा कहां है?

बैंकिंग सिस्टम पहले से ही चरमराने के कगार पर है। बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों द्वारा अफगानिस्तान को दी जा रही आर्थिक सहायता पर रोक लगा दी गयी है। अफगान मंदी की स्थिति में है – एक विदेशी पत्रकार के अनुसार वर्तमान मे एक अमेरिकी डॉलर में आपको 8600 अफगानी मिल रहे है (यह एक सप्ताह पहले 86 था!)

विदेश व्यापार जो देश के लिए  अति महत्वपूर्ण है, बुरी तरह बाधित हो गया है। राज्य को चलाने और सेवाएं प्रदान करने के लिए जिस सहायता राशि की आवश्यकता थी, उसे रोक  दिया गया है। निवेशकों का भरोसा नहीं के बराबर है। व्यवसायी और उद्यमी देश छोड़ने के पहले अवसर की तलाश में हैं। यही स्थिति शिक्षित और प्रतिभाशाली लोगों की भी है। वेतन देने के लिए उनके पास पैसे नहीं है और न ही नागरिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए कोई पैसा है। यह  तो अभी शुरुआत  ही है।

कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि यह  एक  दौर है जो बीत जायेगा। जब एक नई सरकार  बन जायेगी और शासन संरचना और व्यवस्था स्थापित हो जायेगी, तब सामान्य स्थिति वापस लौट आयेगी। हमारी शुभकामनाएँ! परंतु इस आशावादिता का कोई आधार नहीं है, सिवाय कुछ काल्पनिक सपने दिखाने या भ्रम पैदा करनेके। तथ्य यह है कि अफगानिस्तान आर्थिक रूप से एक व्यवहार्य राज्य नहीं है।

सदियों से गैर-युद्ध वाला अफगानिस्तान उत्पादन करने  वाला देश रहा और इसके लगभग 40 मिलियन लोगों की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए  निर्यात पर्याप्त नहीं है। यदि अफगानिस्तान एक लघु स्तर पर निर्वाहन करने वाली अर्थव्यवस्था थी, तो यह अभी भी बहुत निम्न-स्तर के संतुलन का प्रबंधन करने में सक्षम हो सकता है। लेकिन पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान मे व्यय की गयी अरबों डॉलर की राशि ने देश को बदल दिया है। अब यह उस  पाषाण युग में नहीं है,जैसा वर्ष 2001 में था। परंतु पिछले दो दशकों से उनकी अर्थव्यवस्था पश्चिमी सहायता पर बुरी तरह से निर्भर थी।

अफगान राज्य द्वारा  अर्जित राजस्व अपने बजट के लगभग 20% को पूरा करने के लिए पर्याप्त था, जो सीमा शुल्क संग्रह से एकत्रित किया जाता था। बाकी धन- लगभग 4-5 बिलियन डॉलर पश्चिमी देशों से आया। अफगान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों  (एएनडीएसएफ) को प्रदान की जाने वाली लगभग 3-4 बिलियन डॉलर की धनराशि अब तब तक उपलब्ध नही हो सकती जब तक हक्कानी नेटवर्क, अल कायदा, जैश, टी टी पी, ई टी आई एम, आदि   को नया एएनडीएसएफ  मान्यता प्रदान नहीं  करता। अगर   नये समीकरण बना कर  धन की व्यवस्था कर भी ली जाए तो शेष 4-5 अरब डॉलर  का प्रबंध कहां से होगा? यहां तक ​​​​कि बैंकिंग के पतन और अंतरराष्ट्रीय भुगतान तंत्र के संचालन में व्यवधान के कारण दो बिलियन डॉलर के सीमा शुल्क राजस्व में  भी काफी तेजी से  गिरावट आने की संभावना है।

नशीले पदार्थों, जबरन वसूली, तस्करी और अन्य अवैध गतिविधियों से तालिबान का अनुमानित राजस्व 1-1.5 बिलियन डॉलर था। ये गतिविधियां आतंकवाद और उग्रवाद के वितपोषण के लिए उचित हो सकती हैं परंतु देश चलाने के लिए नहीं। जब तक तालिबान  जिहादी-नार्को राज्य  का मॉडल नहीं  बनता  – आइए इसे पूरी तरह से खारिज न करें। इसे एक सामान्य देश होने का दिखावा करना होगा। क्योंकि अगर यह जिहादी-नार्को मॉडल का पालन करता है तो  पड़ोसी राज्यो  के साथ इसके परिणाम  गंभीर होंगे । वे अफगानिस्तान की  सीमाओं को सील कर देंगे, जिससे आर्थिक संकट और अधिक  विकट हो जाएगा। इससे भी  अधिक महत्वपूर्ण  तथ्य यह है कि यह अफगानिस्तान के उपनिवेशीकरण  की योजनाओं को ध्वस्त कर देगा।

अब प्रश्न यह है कि अमीरात को फंड कौन देगा? पाकिस्तान दिवालिया है और केवल अफगानिस्तान पर युद्ध थोप सकता है वह तो  अपनी सरकार के लिए फंड नहीं जुटा सकता। चीन, रूस और ईरान अपने बजट से   अन्य सरकारों को इस प्रकार का अनुदान नहीं देते हैं।

अफगानिस्तान के नए उपनिवेशिक आकाओं ( पाकिस्तान) को आशा  है कि अमेरिकी कुटिलता को देखते हुए  अमीरात को वित्त पोषण जारी रखने के लिए उसे मनाने में  उन्हे ज्यादा समय नहीं लगेगा। उन्हें  ब्लैकमेल किया जायेगा कि यदि आप तालिबान को पैसे देकर प्रोत्साहित नही करेंगे तो वे नहीं बदलेंगे। पश्चिमी देश विशेष रूप से अमेरिकी और ब्रिटिश विश्लेषक, अपने समर्थन में  ‘मानवीय संकट’ मुद्दे के उपयोग  द्वारा पहले से ही यही तर्क दे रहे है।इसके अतिरिक्त यदि पश्चिम पैसा देता है, तो वह  अपने प्रभाव  का विस्तार करेगा,लेकिन अगर यह सभी  प्रकार की सहायता को रोक देता है, तो इसका कोई  वर्चस्व नहीं  रहेगा।

अतीत में यह दोनों तर्क बुरी तरह विफल हो चुके हैं। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता,  एंटीडिल्यूवियन विश्वदृष्टि जो किसी  भी  अन्य को स्वीकार नहीं कर सकते के कारण अभी  वे असमंजस की  स्थिति मे है। क्योंकि पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका  की अगर   इच्छा होगी तो वे तालिबान को सहायता फिर से आरंभ कर सकता हैं। लेकिन  वह अमीरात को  इस तरह से आगे बढ़ाएगा कि पाकिस्तानी और चीनी अफगानिस्तान में आसानी से लाभांवित हो सके । पाकिस्तान में बिल्कुल यही मॉडल अपनाया गया है: अमेरिका और पश्चिम ने पाकिस्तानी राज्य को वित्त पोषित किया जो  अब चीन पर निर्भर है और अमेरिका को धोखा दे रहा है।

पश्चिमी सहायता के अतिरिक्त चीन द्वारा अफगानिस्तान में विशेष रूप से खनन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर  निवेश करने की  बहुत चर्चा है। कहा जा रहा है कि अफगानिस्तान में साउदी अरब का सोना, तांबा, लौह अयस्क और दुर्लभ पृथ्वी का भंडार है, जिस पर चीन की नजर है। वह इस क्षेत्र मे पाकिस्तानी स्थिरता सुनिश्चित करना और चीनी निवेश करना चाहेगा और खनिज संपदा का दोहन करेगा। दोनों आयरन ब्रदर्स अफ़गानों को थोड़ी – रॉयल्टी आदि दे देंगे।

पाकिस्तानियों का यह भी मानना ​​है कि अमीरात न केवल सीपीईसी को पुनर्जीवित कर पाने की दुविधा में है अपितु अफगानिस्तान के माध्यम से मध्य एशियाई राज्यों के लिए व्यापार और पारगमन केंद्र भी बन जाएगा। अफ़गानों को एक बार फिर पारगमन शुल्क के रूप में कुछ धन प्राप्त होगा – पुराना रहदारी कर – जिस पर अफगान राज्य परंपरागत रूप से  निर्भर था जब उसका कोई साम्राज्य नहीं था।

लेकिन ये सभी गणनाएं  काल्पनिक हैं। उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान की खनिज संपदा मूल रूप से 1970 के दशक के एक अध्ययन पर आधारित है। हाल के वर्षों में कोई  अद्यतन भूवैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ है जो खनिज संपदा के अनुमानों की सटीक जानकारी दे। यह सही है कि कुछ जमा होगा परंतु क्या ये आयरन ब्रदर्स के लिए पर्याप्त  होगा जिसके लिए सभी उत्साहित  हैं।

ऐसा माना जाता है कि बलूचिस्तान में भी खनिज पदार्थ हैं, लेकिन पिछले 30 वर्षों में ऐसा कुछ नही दिखा। अगर इन अनुमानों को सही भी मान लिया जाए तो  अफगानिस्तान  के अर्थशास्त्री जिसे डच रोग कहते हैं, उसकी संभावना के अतिरिक्त, अफ़गानों का पूरा मुद्दा संक्षिप्त रूप से बदल गया है। मध्य एशियाई पारगमन व्यापार भी केवल अनुमानित  ही  है। निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इन देशों की व्यापार प्रणाली, दिशा और उत्पादों का अध्ययन करना उपयोगी होगा।  अच्छे भू-अर्थशास्त्र के लिए  शेख चिल्ली के सपने उचित नहीं, अच्छी भू-राजनीति और भू-रणनीति के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।

लेकिन चाहे ये सभी भू-आर्थिक  सपने सत्य हो जाए  परंतु ऐसा,  रातोंरात नहीं होगा। इन निवेशों को परिपक्व होने में अनेक वर्ष लगेंगे। इस अवधि में ​​ बिल कौन पेश करेगा और किन शर्तों पर करेगा? क्या तालिबान, जो कट्टर इस्लामवादी हैं, कर्ज की राशि पर ब्याज देने के लिए सहमत होगा? क्या चीनी  इस्लामिक बैंकिंग को अपनाएंगे जो केवल  छल है जिसमें ब्याज को लाभ कहा जाता है, अथवा वे अपनी बंदूकों का सहारा लेते है?

क्या अफगान अपने देश को खेल के मैदान या आभासी उपनिवेश की तरह उपयोग में लाने वाले चीनी और पाकिस्तानियों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा? क्या  वे पाकिस्तान और तालिबान के हाथों अपने अपमान को  आत्मसात करके पश्चिम की और प्रवृत्त हो जाएगा और  समाप्त हो जाएगा? क्या तालिबान  अपने भाइयों-टीटीपी, अल कायदा और अन्य इस्लामी आतंकवादी समूहों के साथ सभी संबंधों को तोड़ने के लिए  सहमत हो जाएगा?

सारांश यह है कि अफगानिस्तान में  अनेक मुद्दे है और भविष्य के बारे में  यह अनुमान लगाया जा रहा है कि कुछ  अत्यंत  कठोर और अप्रिय झटके  संभव हैं।

*****


लेखक
सुशांत सरीन आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं और चाणक्य फोरम में सलाहकार संपादक हैं। वह पाकिस्तान और आतंकवाद विषयों के विशेषज्ञ हैं। उनके प्रकाशित कार्यों में बलूचिस्तान : फारगॉटेन वॉर, फॉरसेकेन पीपल (2017), कॉरिडोर कैलकुलस : चाइना-पाकिस्तान इकोनोमिक कोरिडोर और चीन का पाकिस्तान में निवेश कंप्रेडर मॉडल (2016) शामिल है।

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POST COMMENTS (1)

इन्द्रेश कुमार मिश्र

अगस्त 24, 2021
बहुत सटीक और शानदार विश्लेषण.! नाममात्र या कथित लोकतंत्र के बावजूद पड़ोसी पाकिस्तान अपनी आर्थिक जरुरतों को आत्मबल के साथ पूरा नही कर पा रहा तो यह तालिबान जो अलोकतांत्रिक शासन के लिये आतुर है,बिना किसी विदेशी सहायता के मुख्य रूप से पश्चिमी देश जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं की सहायता बिना (अरब देशों जो वर्तमान जरूरत तेल की पूरी करते हैं उनके अलोकतंत्र को पश्चिमी देश मुद्दा नही बनाते क्योंकि तेल का खेल है.!) परंतु तालिबान के साथ ऐसी कोई जरूरत नही सिर्फ सहयोग जिसके लिये कोई पश्चिमी देश आगे नही आयेगा.! तालिबान के लिये देश चलाना मुश्किल होगा, ये सिर्फ हत्याओं,लूटपाट,बलात्कार के उस्ताद थे,देश चलेगा नही बडे़ पैमाने पर पलायन चलता रहेगा.!!

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